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निबंध संग्रह

चयन

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला


चयन

निबन्ध-संग्रह

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

 

दो शब्द

लगभग ढाई वर्ष पूर्व राजकमल प्रकाशन ने 'निराला' जी की 7 पुस्तकों का नई साज-सज्जा के साथ प्रकाशन किया था। ये पुनर्प्रकाशित पुस्तकें थी - अलका, अप्सरा, कुल्लीभाट, परिमल, लिली, प्रबन्धपज्ञ तथा महाभारत। इसी क्रम में यह पुस्तक एक और बढ़ोतरी है।

साथ ही एक और महत्वपूर्ण कार्य हुआ है- "निराला" जी की और असंकलित कविताओं का प्रकाशन। इसी संकलन का ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि इसमें उनकी अब तक की प्रायः सभी असंकलित कविताओं को शामिल किया गया है।

इसके अंतर्गत "निराला" जी की कई और पुस्तकें भी नये रूपाकार में पुनर्मुद्रित हुई हैं। आशा है कि पुनर्प्रकाशित पुस्तक का यह संस्करण हिंदी के शुर्धा साहित्यिकों को पसंद आयेगा और वे इससे भी उसी आदर भाव से अपनायेंगे, जैसे "निराला" जी की पूर्व प्रकाशित कृतियों को अपनाते रहे हैं।

अनुक्रम

ये निबन्ध

भाषा की गति और हिन्दी की शैली

खड़ी बोली के कवि और कविता

काव्य-साहित्य

हिन्दी कविता-साहित्य की प्रगति

हिन्दी के आदि-प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

कवि अंचल

साहित्य की समतल भूमि

महाकवि रवीन्द्र की कविता

ज्ञान और भक्ति पर गोस्वामी तुलसीदास

तुलसी के प्रति श्रद्धांजलि

अर्थ-अर्थान्तर

महादेवीजी के जन्म-दिवस पर

शक्ति परिचय

पं. बनारसीदास का अंग्रेजी-ज्ञान

बंग भाषा का उच्चारण

छत्रपुर में तीन सप्ताह

'मनसुखा' को उत्तर

कामायनी महाकाव्य परीक्षा

बोलचाल

श्रीरामकृष्ण आश्रम , धन्तौली की पुस्तकें

प्राच्य और पाश्चात्य

श्री भुवनेश्वर की तारीफ

 

 

 

ये निबन्ध

महाकवि निराला प्रारम्भ से ही एक पटु निबन्धकार हैं। साहित्यिक समस्याओं को लेकर लिखे गये उनके लेखों को पाठक बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ा करते क्योंकि प्रायः उनमें तत्कालीन कुत्सित मनोवृत्तियों के भण्डाफोड़ के साथ-साथ हिन्दी गद्य में एक नवीन शैली का प्रयोग हो रहा था। अब तक निरालाजी के तीन निबन्ध-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-1. प्रबन्ध पद्म, 2. प्रबन्ध प्रतिमा तथा 3. चाबुक। समीक्षात्मक कृति 'रवीन्द्र कविता कानन' भी समय-समय पर लिखे गये लेखों का चौथा संकलन है। किन्तु कुछ निबन्ध एवं आलोचनाएँ तब भी ऐसी बच रही थीं जो पत्र-पत्रिकाओं में तो प्रकाशित हुईं किन्तु कालक्रमेण पाठकों की दृष्टि-परिधि से ओझल हो पुस्तकालयों की मोटी-मोटी गड्डियों में दब गयीं। इधर छः वर्षों से निरालाजी अनवरत रुग्ण रहे। अनुनय-विनयवश ही कुछ लिखते-लिखाते; फलतः ऐसी सम्भावना न रह गयी कि वे कोई विशिष्ट कृति हिन्दी संसार के समक्ष प्रस्तुत कर सकें यद्यपि काव्य में निरालाजी की वैसी ही रुचि अब भी है। अतः गत दो वर्षों से मेरी यह धारणा पुष्ट होती गयी कि यदि निरालाजी के प्रकाशित किन्तु असंग्रहीत लेखों को पुस्तकाकार न कर दिया गया तो वे कालान्तर में साहित्य के अगाध भण्डार में इस प्रकार घुल मिल जायेंगे कि उनको ढूँढ़ निकालना दुष्कर हो जावेगा। निरालाजी से उनके संग्रह की आशा व्यर्थ है। वे वीतरागी हैं। साहित्य का दान देकर उसकी परवाह भी करते रहें, यह उनके बूते का नहीं।

अतः जब मैं साहित्य-सम्मेलन के संग्रहालय से 'समन्वय,' 'सरस्वती, 'सुधा,' 'माधुरी,' 'हंस' तथा 'देशद्त' आदि पत्र-पत्रिकाओं से निरालाजी के अट्ठारह लेख निकालकर उनके पास पहुँचा तो उन्होंने हतोत्साहित करते हुए कहा, 'अपना बहुमूल्य समय इस प्रकार क्यों गँवाया ?' किन्तु दूसरे ही क्षण, जब मैंने उन लेखों के संग्रह के लिए एक नाम पूछा, उन्होंने हँसते हुए कहा, " 'चयन' या 'चयनिका' में जो भी तुम्हें जँचे, नामकरण कर लो।" उनकी आज्ञा पाकर मैं फूला न समाया।

प्रस्तुत 'चयन' निराला के उन तमाम लेखों एवं समालोचनाओं का संग्रह है जो सन् 1920 से सन् 1956 तक उनकी कलम से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए समय-समय पर लिखे गये थे। किन्तु मैं यह नहीं कह सकता कि उन तमाम लेखों को मैंने पा लिया है जो निरालाजी ने लिखे थे। सम्भवतः अब भी कुछ रचनाएँ शेष रह जावें। यदि कोई भी सज्जन मुझे उनकी जानकारी देंगे तो मैं उनको पुनः संग्रहीत करने का प्रयत्न करूँगा और उन सज्जनों का आभारी रहूँगा।

जिन 18 निबन्धों एवं पुस्तक-परिचयों को 'चयन' में संकलित किया है, उनमें से कतिपय निबन्धों पर ही यहाँ विचार किया जा रहा है। पुस्तक-परिचयों के सम्मिलित करने का उद्देश्य है पाठकों को निरालाजी के नवीन आलोचनामय दृष्टिकोण को दिखाना। 'चाबुक' में ऐसे अनेक परिचय हैं। सम्पादक होने के नाते निरालाजी को लेखकों द्वारा प्रेषित समालोचनार्थ पुस्तकों के विषय में कुछ-न-कुछ अवश्य लिखना पड़ता था। वे इस कार्य को बड़ी ही तत्परता एवं निष्पक्षतापूर्वक सम्पादित करते थे। पाठकों को समालोचित पुस्तकों से तद्विषयक जानकारी प्राप्त हो सकेगी।

'छत्रपुर में तीन सप्ताह,' 'मनसुखा को उत्तर,' 'पं. बनारसी दास का अंग्रेजी ज्ञान,' 'श्री भुवनेश्वर की तारीफ,' 'कवि अंचल,' 'तुलसी के प्रति श्रद्धाञ्जलि' तथा 'महादेवी के जन्म दिवस पर' शीर्षक निबन्ध महाकवि निराला के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण बड़े महत्त्व के हैं। इन निबन्धों की हम परिचयात्मक या वर्णनात्मक लेखों के अन्तर्गत गणना कर सकते हैं। इनकी कथावस्तु जौहरी की-सी परख के पश्चात् सभी के समक्ष रखी गयी है। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने निरालाजी के निबन्ध 'वर्तमान धर्म' को लेकर जो तूफान मचाया था वह हिन्दी गद्य साहित्य की एक अविस्मरणीय घटना है। फलतः निरालाजी के तत्सम्बन्धी लेख में कटुता का बीज मिलेगा। नवयुवक कवियों के निरालाजी सदैव प्रशंसक रहे हैं। 'कवि अंचल' का परिचय वैसा ही है। 'चाबुक' में नन्ददुलारे वाजपेयी के ऊपर भी ऐसा ही लेख है। 'प्रबन्ध प्रतिमा' के लेख निरालाजी की पुरुषोत्तमदास टण्डन, महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल के साथ मुठभेड़ों का चित्रण करते हैं। ऐसे लेख निराला के सामाजिक जीवन को समझने में सहायक हैं।

'अर्थ अर्थान्तर' नामक निबन्ध निरालाजी के अगाध पाण्डित्य का 'परिचायक है। 'बंग भाषा का उच्चारण' और 'महाकवि रवीन्द्र की कविता' नामक दो लेख निरालाजी की बंगभाषा के प्रति तथा उसके महानतम कवि के प्रति जो निष्ठा एवं आदर है, उसका दिग्दर्शन कराने में समर्थ हैं। 'ज्ञान और भक्ति पर तुलसीदास' नामक टिप्पणी सामयिक सुझाव था। तुलसी दासजी के निरालाजी प्रशंसक हैं। 'रामायण' के ही माध्यम से हिन्दी का ज्ञान सीखने का सौभाग्य उन्हें अपनी पत्नी मनोहरा द्वारा प्राप्त हुआ था। यही कारण है कि सन् 1920 में लिखी इस टिप्पणी में भी वे तुलसीदास जी द्वारा वर्णित भक्ति एवं ज्ञान की एकात्मकता पर विचार करते हैं। सन् 1947 में निरालाजी ने तुलसीकृत 'विनयखण्ड' (रामायण) का खड़ी बोली में अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। 'शक्ति परिचय' नामक निबन्ध उनके वेदान्तवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्बन्धी लेख सुना हुआ संस्मरण मात्र है।

शेष पाँच निबन्ध-भाषा की गति और हिन्दी की शैली,' 'साहित्य की समतल भूमि,' 'हिन्दी कविता-साहित्य की प्रगति,' 'खड़ी बोली के कवि और कविता' तथा 'काव्य साहित्य' विशिष्ट कोटि के हैं। उनके द्वारा नवोदित कवि ने अपने मनोभावों को जिस परिपक्वता के साथ प्रकट किया है, वह हिन्दी साहित्य की आलोचना-पद्धति तथा इतिहास-लेखन-कला में एक नवीन अध्याय जोड़ने में समर्थ है। प्राणों की पावनता के दर्शन यदि कहीं हमें होते हैं तो निरालाजी के गद्य में। उन्होंने सन् 1923 से 1930 की कालावधि में जो चिन्तन एवं मनन किया है, राष्ट्र भाषा के स्वरूप का जो स्वप्न देखा है और जो भविष्यवाणियाँ की हैं, वे आज अक्षरशः सत्य घटित होती दिखायी पड़ती हैं। अपने काल के लेखकों में सम्भवतया निरालाजी ही एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी के राष्ट्रभाषा पद पर आसीन होने के साकार स्वप्न देखे थे। उसके लिए उन्होंने गद्य एवं पद्य में प्रचुर साहित्य का सृजन भी किया था। हर्ष का विषय है कि भारत के स्वाधीन होते ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया गया है किन्तु उसके मार्ग में अब भी अनेक बाधाएँ हैं। महाकवि निराला ने बहुत पहले ऐसे अवरोधों की ओर संकेत किया था और उनकी प्रौषधि भी बतायी थी। नीचे ऐसे तमाम उद्धरण दिये जाते हैं जिनके द्वारा पाठकों को भिन्न-भिन्न निबन्धों के सार समझने में सरलता होगी।

भाषा की गति और हिन्दी की शैली (1923)

'शब्दों का ढलना-एक दूसरे रुप में बदलना अनिवार्य है यदि कोई भाषा अपना भण्डार पूर्ण रखने का इरादा रखे, तो।

जीव, जाति या भाषा के प्राणों (की प्रगति) पर जभी बाधा डाली गयी तभी हम उसे, इतिहास में, एक दूसरी ओर मुड़ते देखते हैं।" भाषा के पैरों में व्याकरण की बेड़ी पड़ी कि उसने झट अपना स्वरूप बदला और यों पूर्णता की ओर किसी नये रास्ते से चल पड़ी।

'वर्तमान भारत में व्यापकता के लिहाज से राष्ट्रभाषा का पद हिन्दी को मिल रहा है । कितने ही विद्वानों ने जाँच करके उसे संस्कृत की जेठी लड़की बताया है। .... हिन्दी को यह स्वरूप तो अभी उस दिन मिला है। हिन्दी और उर्दू की लड़ाई बन्द हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए। यह सभी जानते हैं कि अंग्रेजी विद्वानों के प्रभाव और कुछ विदेशी शिक्षितों की चेष्टा से संस्कृत और देहाती प्रचलित शब्दों द्वारा उर्दू का नवीन संस्कार करके हिन्दी का उद्धार किया गया है। हिन्दी के पत्रों या पुस्तकों में जो भाषा लिखी जाती है वह तो उनके सम्पादकों और लेखकों को भी बोलते हमने नहीं सुना, परन्तु दो-चार प्राचार्यों की बात हम नहीं कह सकते। अस्तु यह निर्विवाद है कि संस्कृत-प्रचुर हिन्दी न किसी के मुँह से निकली है और न वह किसी की मादरी जबान है ।..... कुछ लोग दिल्ली के पास-पास की भाषा को हिन्दी का यथार्थ रूप मानते हैं..... फिर भी हमें दिल्ली के इलाके में न तुलसी मिलते हैं न हरिश्चन्द्र। अस्तु , हमारे बिना जाने ही जबकि भाषा ने इतना विस्तार कर लिया तो उस पर प्रान्तीयता का इलजाम न लगाना चाहिए।...

'संसार की हर एक भाषा स्वाधीन चाल से ही चलकर और भिन्न भिन्न भाषाओं से ही शब्द लेकर अपना भण्डार भरती है। हिन्दी के पद-प्रकरण में अधिक प्रभाव बंगला और अंग्रेजी का पड़ा है, यद्यपि दो-एक आचार्यों ने संस्कृत का ही पक्ष-समर्थन किया है। अंग्रेजी का असर पड़ा उसके राज्य भाषा होने के कारण और बंगला ने अपना प्रभाव जमाया अपनी उन्नति की बदौलत।

'अंग्रेजी, बंगला, उर्दू या किसी भी उन्नत भाषा की ओर हिन्दी की रुचि का होना उसकी प्राथमिक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक था। इसके बिना उसके संकीर्ण शब्द-भण्डार की पूर्ति असम्भव थी ! 'विदेशियों की बनायी हुई ऐसी बहुत सी चीजें हैं-शिक्षा की बहुत-सी शाखाएँ हैं जिन्हें अपनाइए तो विदेशी शब्दों को ही साहित्य में जगह देनी पड़ेगी। बंगाल ने तो ऐसा ही किया। हिन्दी के लेखक भी अब इसी उपाय का आदर करने लगे हैं। यह उपाय स्तुत्य है। हमें भी जीवन को कर्ममय बनाने के लिए भाषा की गति को बढ़ाना चाहिए। भाषा की शिथिलता जीवन को भी शिथिल कर देती हैं। हिन्दी की मन्द गति का प्रधान कारण यह है कि गद्य का जमाना उसमें अभी कुछ समय से प्रारम्भ हुआ है। कविता की भाषा से मनोरंजन होता है परन्तु वह जीवन-संग्राम के काम की नहीं होती।

'जो हिन्दी राष्ट्रभाषा होगी, जो हिन्दी किसी प्रान्त की मातृभाषा नहीं, जिस हिन्दी को लेखक अभी गढ़ रहे हैं, जिस हिन्दी के सहारे भारत' की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक एवं साहित्यिक सभी शंकानों का समाधान किया जाना निश्चित है उसे उन्नत करने के 'लिए-भिन्न-भिन्न शब्द गढ़ने तथा उन्हें अपनाने के लिए, उन्हें व्याकरण- सम्मत स्थान देने के लिए, भाषा-प्रवाह को परिवद्धित करने के लिए- सभी प्रान्तवासियों का समानाधिकार है।'

साहित्य की समतल भूमि (1923)

'रीति-रिवाजों में हिन्दुओं से सम्पूर्णतः पृथक् जाति (मुसलमान) भी साहित्य और ज्ञान की भूमि में हिन्दुओं के समान है।'

निरालाजी ने इस कथन की पुष्टि के लिए नजीर एवं तुलसीदास के साहित्य को समान भूमि पर आधृत सिद्ध किया है। गालिब, इंशा एवं मीर की शायरी वेदान्तों के अत्यन्त निकट है। अन्त में वे साहित्य के भीतर से मैत्री-स्थापना को प्रशंसनीय प्रयास मानते हैं।

हिन्दी कविता-साहित्य की प्रगति (1928)

'जब हम अपने साहित्य के सुधार की चेष्टा करते हुए अपनी बनी-बनायी आँखों को रोगग्रस्त सोचते हैं, उन पर एक दूसरे देश के सुधार का चश्मा रख लेते हैं, उस समय हम भूलते हैं। वर्तमान शासन के प्रभाव का दोष भी हमारी शिक्षा के साथ सम्मिलित होकर हमें अपनी ओर खींचता है, हमें अपनी शक्ति से वशीभूत कर लेता है। हमारी आत्मा हमारे अज्ञात भाव से, हमारी नहीं रहती, उनकी हो जाती है। हम साहित्यिक पराधीनता स्वीकार कर लेते हैं। यदि देश का अर्थ मिट्टी है, यदि विश्व के माने मिट्टी का एक वृहत्पिण्ड है, यदि देश के उद्धार से मिट्टी के उद्धार का अर्थ सिद्ध होता है, यदि विश्वमैत्री का सिद्धान्त जड़ शरीर से प्रेम करने की शिक्षा है और यदि आजकल के कवि इन्हीं भावों की पुष्टि करेंगे तो निस्सन्देह इससे भाषा के साथ भाषा के बोलनेवालों की मुक्ति असम्भव होगी। इस जाति के प्राण जड़ से नहीं, चेतन से मिले हुए हैं। हमारी पराधीन हिन्दी पर पराधीनता के ही कारण फारसी का प्रभाव पड़ा , अंग्रेजी का पड़ रहा है और आश्चर्य है उसकी प्रान्तीय सहेलियाँ बंगला मराठी आदि भी उस पर रोब गाँठ रही हैं। दूसरी भाषाओं से रत्नों को अवश्य ग्रहण करना चाहिए परन्तु प्रभावित होकर नहीं-प्रीत होकर। '

खड़ी बोली के कवि और कविता (1929)

'ब्रजभाषा के कवि जो इस समय प्रसिद्ध-कीर्ति हो रहे हैं, गणेशजी की वन्दना से ही फुरसत नहीं पाते और उनके कद्रदाँ भी वही हैं-उन्नाव में मिष्टान्न बेचनेवाले। खड़ी बोली की कविता का उद्भव ऐसे समय बहुत ही सार्थक हुआ है।

'मत-प्राय ब्रजभाषा के भीतर से नवीन खड़ी बोली का यह जो रूप उर्दू के सम्मिश्रण से निकाला गया है वह निस्सन्देह भाषा के साथ ही जाति को चिरकाल सजीव रखेगा। यही वैज्ञानिक उपाय भी है।

'खड़ी बोली के गद्य में कर्म-जीवन के चिह्न और पद्य में हृदय की सुकुमार भावनाएँ व्यक्त कर हिन्दी के इस काल के प्राचीन स्तम्भ, साहित्यिकों ने अपूर्व दूरदर्शिता दिखलायी है।

'खड़ी बोली में जो कुछ भी कठिन, शुष्क तथा रूढ़ दिखलायी पड़ रहा है, वह केवल भाषा को अधिक काल तक स्थायी रखने के लिए है। खड़ी बोली की यह कठोरता ही अब आगे चलकर सरस कवियों की काव्य-साधना का कारण होगी। भाषा की गति के साथ ही हमारी मातृशक्ति का उत्थान होगा और उनके मुख से सुन-सुनकर खड़ी बोली के बालक क्रमशः अपनी भाषा , समाज और राष्ट्र का कल्याण साधन में करेंगे। इस भाषा के द्वारा इस जाति के जीवन ने एक दूसरा ही प्रवाह लिया है, जो अधिक-से-अधिक क्षिप्रगामी होता जा रहा है। और कभी ऐसा भी समय आवेगा जब समस्त भारतवर्ष एक ही भाषा-शक्ति के प्रवाह में बहने के लिए राजी हो जावेगा। '

- इसके पश्चात् निरालाजी ने खड़ी बोली कविता के स्थापकों का नाम गिनाते हुए पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी को पहला कवि माना है किन्तु उनकी कविता के गुण-दोषों की चर्चा करते हुए बड़ी निर्भीकता से व्यंग्य भी किया है -- 'दोष तो सिद्ध-छायावादियों के शब्द-विकार पर पकड़े जाते हैं। रबड़-छन्द को एक आँख न देख सकनेवाले द्विवेदीजी भी कभी-कभी रबड़-छन्द के लकड़दादा छन्द की सृष्टि कर बैठते हैं।'

मैथिलीशरण गुप्त, स्नेहीजी, रूपनारायण पाण्डे, रामचरित उपाध्याय, लोचनप्रसाद पाण्डे, गोपालशरण सिंह तथा सियारामशरण को निरालाजी 'सरस्वती स्टाइल' के कवि कहकर पुकारते हैं क्योंकि वे द्विवेदीजी से प्रभावित हैं। गुप्तजी को श्रेष्ठ कवि मानते हुए कहते हैं 'खड़ी बोली की कविता का सेहरा यदि किसी एक कवि को पहनाया जाय तो अब तक इसके अधिकारी केवल बाबू मैथिलीशरण गुप्त ठहरते हैं। खड़ी बोली की कविता के उत्कर्ष के लिए इनकी सेवा अमूल्य है।' प्रारम्भ के कवियों में अयोध्यासिंह उपाध्याय भी निराला की प्रशंसा के पात्र हैं। श्रीधर पाठक एवं पं. रामचन्द्र शुक्ल की तो उन्होंने डटकर निन्दा की : 'खड़ी बोली की कविता के प्राचार्य माने जाने पर भी श्रीधर पाठक की कविताओं में वह शुद्धि नहीं जो द्विवेदीजी की कविता में है। यों कवित्व के विचार से यह बहुत बड़े कवि थे किन्तु वे खड़ी बोली की कविता की अपेक्षा ग्राम्य-गीतों में अधिक सफल हुए हैं।

'इन लोगों की खड़ी बोली की कृतियों में गत 20-25 वर्ष के साहित्य की जो झलक मिलती है उसमें प्रतिभा का कहीं भी पूर्ण विकास नहीं देख पड़ता। केवल अयोध्यासिंह उपाध्याय की काव्य-साधना विशेष महत्त्व की है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह हिन्दी के सार्वभौमिक कवि हैं, खड़ी बोली, उर्दू, ब्रजभाषा कठिन-सरल सभी प्रकार की रचना कर सकते हैं और सबमें एक अच्छे उस्ताद की तरह।

'मेरे विचार से रामचन्द्र शुक्ल जैसे बहुपठित विद्वान् हैं वैसे कवि नहीं। शब्दों की तोल इन्हें मालूम नहीं, न अलंकार का निर्वाह इन्हें आया है। कवित्त छन्द में यह चूक ही जाते हैं-यही इनकी विशेषता है।'

काव्य-साहित्य (1930)

यद्यपि 'चाबुक' में यह लेख संग्रहीत है किन्तु प्रकाशकों ने उसमें कुछ ऐसे आमूल परिवर्तन ला दिये हैं कि सारा मजा किरकिरा हो गया है। अतः मूल-रूप में हम उसे पुनः 'चयन' में संकलित कर रहे हैं। निरालाजी ने खड़ी बोली के रूप, उसकी गति, शक्ति, कविता तथा उसके कवियों के पश्चात् इस लेख में हिन्दी के आलोचकों पर एक कड़ी दृष्टि फेरी है।

जिस तरह कवियों पर एकदेशीयता के दोष लगाये जाते हैं, उसी तरह प्रायः अधिकांश आलोचक भी अपने ही विवर के व्याघ्र बने बैठे रहते हैं, अपनी ही दिशा के ऊँट बनकर चलते हैं-ऐसे आलोचक प्रायः सभी देशों में रहते हैं। हिन्दी तो अभी बालिका है, इसकी इज्जत नहीं की जा सकती है तो न की जाय, समय उसके सेवकों को और बड़ा पुरस्कार देगा।

'सबसे बड़ी आफत ढहा रहे हैं कुछ साहित्यिक सुधार-पन्थी जो स्वयं तो कुछ लिख नहीं सकते, दूसरों की कृति पर हमला करके महालेखक बन जाना चाहते हैं। सुधार और प्रोपेगैण्डा से साहित्य मंजिलों दूर है। आलोचकों ने वरदान से 'प्रसाद' जी को शाप ही अधिक दिया है जो एक बहुत बड़े साहित्यिक-अन्याय में दाखिल है।

'साहित्य में अनेक दृष्टियों का एक साथ रहना आवश्यक है, नहीं सो दिग्भ्रम होने का डर है। इसलिए मैंने तमाम भावों की एक साथ पूजा का समर्थन किया है। हिन्दी के साहित्यिकों का अन्याय सीमा को पार कर जाता है, उन्हें अपनी सूझ के सामने दूसरे सूझते ही नहीं। हमें उनकी आँखों में उँगली कर-कर के समझाना है और बहुत शीघ्र वैसे संकीर्ण विचारवालों को साहित्य के उत्तरदायी पद से हटाकर अलग कर देना है तभी साहित्य का नवीन पौदा प्रकाश की ओर बढ़ सकेगा। राष्ट्र-भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप से सजाना और अलंकृत करना है। हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं।'

निरालाजी की अपनी एक निबन्ध शैली है। वह यथार्थवादिनी होने के कारण अत्यन्त कटु सत्य का उद्घाटन करती हुई कहीं-कहीं निरालाजी के अहं का भास करानेवाली है। किन्तु ऊपर उद्धत अंशों में ऐसे तथ्य हैं जिनका बड़ा भारी महत्त्व है क्योंकि लेखक होने के साथ ही निरालाजी कवि भी हैं। पहले से ही उन्होंने हिन्दी के, विशेषकर खड़ी बोली के, मार्जन में विशिष्ट हाथ बटाया है। कवि होने के कारण कविता-क्षेत्र में की गयी आलोचनाएँ अधिक मान्य समझी जानी चाहिए। भाषा की गति का प्रश्न, मेरी समझ में, निरालाजी को ही सर्वप्रथम खटका; . उन्होंने खड़ी बोली के संगीत-शास्त्र को अपने गीतों द्वारा जिस प्रकार पुष्ट किया वह सर्वविदित है। 'मुक्त छन्द' की सृष्टि द्वारा भाषा के बन्धनों को सदैव के लिए तोड़ देना उनकी अपनी विशेषता है। गद्य के विकास से कर्म-जीवन के चिह्नों का आभास पानेवाले निराला का गद्य साहित्य भी राष्ट्रीय मुक्ति की ओर हमें ले जाता है।

मेरा अनुरोध है कि भाषा के विविध अंगों पर जो निरालाजी की मान्यताएँ हैं उन्हें हिन्दी भाषा या साहित्य के इतिहास-लेखन के समय विद्वान् या शोध में रत छात्र अवश्य ही ध्यान में रखेंगे। छायावादी युग में निराला का निबन्ध-साहित्य एक अमूल्य निधि है।

25, नसीबपुर, बख्तियार, इलाहाबाद

30 अप्रैल 1957 शिवगोपाल मिश्र

चयन

भाषा की गति और हिन्दी की शैली

बालिका हिन्दी के चमकीले चिकने पात और भारत के सभी प्रान्तों में, सभी संस्थाओं में, यहाँ तक कि राष्ट्रीय महासभा में भी उसकी अबाध गति देखकर स्नेह-शब्दों से बिना यह कहे नहीं रहा जाता कि उसके होनहार होने में अब कोई सन्देह नहीं रहा; किन्तु फिर भी वर्तमान हिन्दी को अपनी खास सम्पत्ति के भ्रम से अपनाने के लिए प्रान्तीय विद्वानों की चमत्कारपूर्ण लेखन-कला को हाथ बढ़ाते हुए देखकर, दो-चार विनय-शब्द निरपेक्ष विचारकों के सामने रखना न अप्रासंगिक समझा जायगा और न अयौक्तिक।

हरएक भाषा का संसार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। वाणिज्य-व्यवसाय में, कला-कौशल में, साहित्य-विज्ञान-दर्शन-राजनीति, समाज-नीति-अर्थशास्त्र आदि ज्ञान-भण्डार के सभी विषयों में एक जाति से दूसरी जाति का सम्बन्ध जोड़ने का पहला साधन भाषा है। माल की तरह किसी भी भाव की रफ्तनी भाषा की थैली में भरकर की जाती है। जिस भाषा के तहखाने या मालखाने में पूँजी या रकम कम होती है या उसके मालिक चतुर नहीं होते या बनिये डाँडी मारना नहीं जानते-हाथ की सफाई नहीं दिखाते, वे अकसर घाटा ही उठाते हैं; वहाँ धर्म ढकोसला कहलाता है बुद्धिमान जन आँखों में धूल तो झोंक ही जाते हैं किन्तु एक नसीहत भी जिन्दगी-भर याद रखने के लिए छोड़ जाते हैं और वह यह कि घर का घर जला, बेशऊर नाम ऊपर से पड़ा।

अतएव जब तक जीवित रहने के लिए संसार के प्रत्येक कर्म-चतुर मनुष्य और उसकी भाषा से हमें नाता नहीं तोड़ना है तो हमें उसकी भाषा की प्रगति पर भी वही नजर रखनी चाहिए जो एक जौहरी हीरे पर रखता है। बाबा आदम के जमाने की तूती की आवाज आजकल के नक्काड़खाने में काम न देगी। इस बात को चरितार्थ होते हम हर समय देखते हैं। संसार की जाग्रत जातियाँ, भाषा की स्वच्छन्द गति में रुकावट डालना तो दूर रहा बल्कि उसके बाधक कंकड़-पत्थरों को दिन-पर-दिन चुनने के लिए किस तरह दत्तचित्त हैं, यह हम जब चाहें किसी कोष का नया संस्करण या कोई सामयिक पत्र उठाकर देख सकते हैं। कोई आगे बढ़ता है तो अरबी नस्ल के घोड़े पर सवार होकर या किसी अड़ियल टट्टू पर चढ़कर ? परन्तु यहाँ आलसी खरगोश और मिहनती कछुए की कथा अप्रासंगिक होगी। दूसरी भाषाओं का प्रसंग विद्वानों की समझ पर छोड़कर हम भाषा-प्रगति पर कुछ निवेदन करेंगे।

हमारे शब्दशास्त्र के पारदर्शी ऋषियों ने त्रिस्वरात्मक ओंकार के विन्दु को शब्दसृष्टि का मूल बताया है। इस विन्दु से उत्पन्न वैदिक शब्द-भण्डार पूर्ण माना जाता है। परन्तु शब्द और भण्डार का अस्तित्व जबकि आँखों के सामने है तो विचार की बाहरी दृष्टि से उसकी पूर्णता बाल्य और युवावस्था के बाद ही सिद्ध होती है। विन्दु से अक्षर की सृष्टि, अक्षरों से शब्दों की, शब्दों से वाक्यों की-छन्दों की-इसी तरह ग्रन्थादि की सृष्टि का क्रम रखना पड़ता है; और इसी से साबित होता है कि शब्दों का ढलना-एक दूसरे रूप में बदलना-अनिवार्य है यदि कोई भाषा अपना भण्डार पूर्ण रखने का इरादा रखे, तो।

दूसरे, मनुष्यों की भाँति भाषा में भी प्राण होते हैं। मनुष्य बोलता है या भाषा बोलती है, इसका निर्णय करना ज़रा कठिन काम है। जिन पाँच तत्त्वों से शरीर बनता है, उनमें भाषा को ही सबसे अधिक सूक्ष्म कहा जा सकता है क्योंकि इसका आकाश तत्त्व से सम्बन्ध है, और प्राण आकाश तत्त्व ही का आध्यात्मिक रूप है। उधर भाषा से ही प्राणों का परिचय मिलता है। भाषा या प्राणों का प्रवाह स्वभावतः पूर्णता की ओर होता है। जीव, जाति या भाषा के प्राणों (की प्रगति) पर जभी बाधा डाली गयी तभी हम उसे, इतिहास में, एक दूसरी ओर मुड़ते देखते हैं। जीव पर कोई असह्य दबाव पड़ा, उसने अपने विकास के लिए रास्ता लिया, जाति पर अन्याय का बोझा लादा गया कि उसने उसे झटककर नया पथ निकाला। भाषा के पैरों में व्याकरण की बेड़ी पड़ी कि उसने झट अपना स्वरूप बदला और यों पूर्णता की ओर किसी नये रास्ते से चल पड़ी।

वर्तमान भारत में व्यापकता के लिहाज से राष्ट्रभाषा का पद हिन्दी को मिल रहा है। कितने ही विद्वानों ने गहरी जाँच करके उसे संस्कृत की जेठी लड़की बताया है। यह कहाँ तक सत्य है, इस पर अनुमान ही मुख्य प्रमाण है। गम्भीर गवेषणा बहुधा कोरी कल्पना हो जाती है। पहाड़ खोदने पर रत्नों की एवज़ में कंकड़, पत्थर और कदाचित चूहे ही हाथ लगते हैं। हिन्दी को यह स्वरूप तो अभी उस दिन मिला है। हिन्दी और उर्दू की लड़ाई बन्द हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हो गये, बल्कि अच्छी तरह देखा जाय ता दोनों के अंगों में दो-चार घाव अब भी दिखायी देंगे। यह सभी जानते हैं कि अंग्रेज विद्वानों के प्रभाव और कुछ देशी शिक्षितों की चेष्टा से संस्कृत और देहाती प्रचलित शब्दों द्वारा उर्दू का नवीन संस्कार करके हिन्दी का उद्धार किया गया है। हिन्दी के पत्रों में या पुस्तकों में जो भाषा लिखी जाती है, वह तो हमने उनके सम्पादकों और लेखकों को भी बोलते नहीं सुना, परन्तु दो-चार आचार्यों की बात हम नहीं कह सकते। अस्तु, यह निर्विवाद है कि ऐसी संस्कृत-प्रचुर हिन्दी न किसी के मुँह से निकली है और न वह किसी की मादरी जबान है। कदाचित यही कारण है कि हर एक प्रान्तवाले हिन्दी लिखते समय अपनी मातृभाषा के दो-चार शब्द जो प्रयोग में आने योग्य हैं, लिख देते हैं। एक दूसरे प्रान्तवाले यदि इसे अपराध समझे तो वास्तव में यह दोष किसके सर पर लादना चाहिए ? कुछ लोग दिल्ली के आसपास की भाषा को हिन्दी का यथार्थ रूप मानते हैं, अन्यथा प्रान्तीयता की दुर्गन्ध उन्हें असह्य मालूम होती है। यद्यपि गुजराती की गन्ध और मराठी की गन्ध तो दूर रही, एक बंगला की बू की बदौलत ही लेखक कहाने का सौभाग्य मिला। उर्दू-फारसी के चिरकाल पड़ोस पर रहने की वजह, दिल्ली की सरहद की जबान पर असर पड़ा, उसे कोई दिल्ली निवासी या उसका पक्ष लेनेवाला भक्ति की सहज प्रेरणा से भविष्य राष्ट्रभाषा का सार्वभौमिक रूप भले ही दे डाले, परन्तु कोई साहित्यिक निगरानी के लिए जब हिन्दी का साहित्य-भण्डार टटोलता है तब ग्रन्थ-महोदधि के निकले हुए रत्नों में से एक-तिहाई वंगोपसागर के और एक-तिहाई अरब समुद्र के गुजरात और महाराष्ट्र उपकूल के चुने हुए दीखते हैं, और रहे-सहे एक-तिहाई रत्न आर्यों के आदिम प्रालय से आरम्भ करके युक्त वेणी और मुक्त वेणी के छोर तक उत्तर-दक्षिण सभी भू-भागों में बिखरे हुए। फिर भी हमें दिल्ली के इलाके में न तुलसी मिलते हैं और न हरिश्चन्द्र। अस्तु, हमारे बिना जाने ही जब कि हमारी भाषा ने इतना विस्तार कर लिया, तो उस पर प्रान्तीयता का इलजाम न लगना चाहिए और जब कि राष्ट्रभाषा से प्रान्तवासियों का अविच्छेद्य सम्बन्ध है।

जिस भाषा के लब्धप्रतिष्ठ पुरुष अशुद्ध वाक्य लिख मारें, और ऊपर से आम सड़क पर छाती अड़ाये दूसरों को रोकने की हिम्मत करें उस भाषा को न कोई भाषा कह सकता है और न इससे लोगों की स्वाधीन गति रुक सकती है। संसार की हरएक भाषा स्वाधीन चाल से ही चल कर और भिन्न-भिन्न भाषामों से ही शब्द लेकर अपना भण्डार भरती है।

अस्थिर प्रवृत्ति स्वभावतः एक जाति को दूसरी से जोड़ती और एक से दूसरी को प्रभावित करती है। उसके इसी सार्वकालिक नियम के कारण प्रभावित जाति प्रभावशालिनी के रहन-सहन, आहार-विहार, चाल-चलन, वेषभूषा, भाव-भाषा आदि सभी अंगों का अनुकरण करती है और इस तरह उसके पहले के स्वरूप में इतना अन्तर पड़ जाता है कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो जाता है। चन्द कवि के समय हिन्दी की जो शैली थी वह तुलसी-सूर-भूषण-मतिराम के समय नहीं रही। और इन ब्रज भाषा के कवियों ने उसे जिन भूषणों से सज्जित किया वे अब अतीत के साज समझे जाते हैं। वर्तमान युग के आचार्यों ने उसे और ही रूप दे डाला है। हिन्दी की आधुनिक शैली में शब्द-योजना और पद-प्रकरण अनेक प्रकार से किये गये हैं। पद-प्रकरण में अधिक प्रभाव बंगला और अंग्रेजी का पड़ा है, यद्यपि दो-एक प्राचार्यों ने संस्कृत का ही पक्ष-समर्थन किया है। अंग्रेजी का असर पड़ा उसके राजभाषा होने के कारण और बंगला ने अपना प्रभाव जमाया अपनी उन्नति की बदौलत। अंग्रेजी की तो बात ही नहीं, क्योंकि उस ताई ने तो आशीर्वादी हाथ भारत की सभी भाषाओं के सिर पर फेरा है किन्तु मराठी और मुख्यत: बंगला का पद-प्रकरण, भाषा, का स्वाभाविक प्रवाह, भाव आदि हिन्दी के अनुवादित ग्रन्थों में इस प्रकार डट गये हैं मानो वही हिन्दी की पुश्त-दर-पुश्त की मौरूसी जायदाद हैं। नाटकों में गिरीश, द्विजेन्द्र और उपन्यासों में बंकिम, रवीन्द्र आदि। कवि मैथिलीशरण का आक्षेप तो प्रसिद्ध ही है

आयी कहानी भी न कहनी और हम इतना बके।

जीवन-प्रभात न चन्द्रशेखर एक भी हम लिख सके।

अंग्रेजी, बंगला, उर्दू या किसी भी उन्नत भाषा की ओर हिन्दी की रुचि का होना उसकी प्राथमिक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक था। इसके बिना उसके संकीर्ण शब्द-भण्डार की पूर्ति असम्भव थी। उसका सामाजिक जीवन अभी इतना उन्नत नहीं कि उसका चित्र एक-दूसरे उन्नत सामाजिक चित्र की समता कर सके। उसमें अभी वे शब्द-रत्न भी नहीं आये जिनकी चमक भाषा-बाजार के खरीदारों को अपनी ओर खींच सके। यही कारण है कि उसने भिन्न-भिन्न भाषाओं के भावों और शब्दों को अपनाया। अगर धनुहीखेड़ा और मोहकमगंज के बाजारू सामान उसके लिए बाकी होते तो वह कलकत्ता, बम्बई, बनारस और इलाहाबाद के देशी-विदेशी मालों को अपनी पिटारी में न रखती। यदि नत्थाराम, छेदीलाल, छीटू और घसीटे आदि पात्रों से और इधर गुलबिया, रमजाना, मेडिया और मखोलिया आदि पात्रियों से उसके नाटकों और उपन्यासों में चमत्कार आता जान पड़ता तो वह न सुरेन्द्र, रमाकान्त, हेमचन्द्र और नरेन्द्र की खोज करती और न कुन्द, इन्दु, षोडशी और शैवलिनी आदि ललित लवंगलता जैसी पात्रियों के नामों ही से अपने साहित्य में रसाभास लाने का प्रयत्न करती। भावों में भी वर्णसंकरता की कमी नहीं। अंग्रेजी या बंगला की अनुवादित पुस्तकों की भाषा चाहे कितनी सावधानी से क्यों न लिखी जाय परन्तु मूल ग्रन्थों के जातीय भावों का निराकरण कभी किया नहीं जा सकता। अतएव इसमें सन्देह नहीं कि इन विजातीय भावों ने हिन्दी के कलेवर को हृष्ट-पुष्ट करने में बहुत कुछ सहायता दी है। विदेशियों की बनायी हुई ऐसी बहुत-सी चीजें हैं-शिक्षा की बहत-सी शाखाएँ हैं जिन्हें अपनाइये तो विदेशी शब्दों को ही साहित्य में जगह देनी पड़ेगी। बंगाल ने तो ऐसा ही किया है। हिन्दी के लेखक भी अब इस उपाय का आदर करने लगे हैं। यह उपाय स्तुत्य है। हर एक भाषा की उन्नति इसी प्रकार हुई है। सोंटे और लँगोटे के अतिरिक्त तीसरा शब्द सम्भव है संन्यास-जीवन के लिए हानिकारक हो परन्तु भोग की जन्मभूमि गृहस्थाश्रम के लोग काव्य, नाटक, उपन्यास आदि जिनके मनोविनोद की सामग्री हैं, यदि संसार के संग्रहणीय योग्य भावों तथा ज्ञातव्य विषयों का संचय न करके केवल सत्तू से ही सन्तुष्ट रह जायँ तो परमात्मा जाने, साहित्य के उन्नयन का दूसरा कौन-सा उपाय है। किसी का यह आक्षेप कि विजातीय भाव हर एक साहित्य में लिये जाते हैं किन्तु वे सदा विजातीय दृष्टि से ही देखे जाते हैं, अनेक अंशों में सत्य होने पर भी, साहित्य की रुचि बदलने के मुख्य कारण भी वही होते हैं। जभी किसी साहित्य की गति या विचार-परम्परा बदली है तब उसका सहायक अपर भावों का प्राबल्य ही हुआ है। फिर हमारे साहित्य में तो शब्दों और भावों की इतनी कमी है कि अभी वे नहीं के बराबर समझे जाते हैं। शायद यही कारण है कि हमारे साहित्य की रुचि केवल भाषा और भावों में ही नहीं किन्तु चित्रों में भी परिवर्तन-पट पलट रही है।

हमने विद्वानों को प्राय: यह आक्षेप करते सुना है कि हिन्दी की गति, उसका भाषा-प्रवाह मन्द है, इससे दूसरों को विशेषकर प्रान्तीय लोगों को पढ़ने में असुविधा होती है। यह आक्षेप निराधार नहीं। जिन लोगों की मातृ-भाषा भिन्न है वे बेचारे पहले तो हिन्दी के विराम-चिह्नों को देखकर ही चौंक पड़ते हैं। वे क्या जाने कि हिन्दी में कोई न कोई विराम चिह्न वहीं रखा जाता है जहाँ लेखक की लेखनी रुक जाय, किन्तु उसके खास नियम नहीं हैं। हम अवध प्रान्तवासियों को कोई हानि नहीं, हिन्दी का पुरातन संस्करण हमारी मातृ-भाषा है - फिर उसमें चाहे कोई क्यों के बाद कामा लगायें चाहे कर्तृकारक के बाद पूर्णविराम, किसी तरह तो हम पढ़ ही लेंगे और अर्थ भी समझ लेंगे; परन्तु जिस भाषा के प्राचार्यों ने विराम-चिह्नों का लगाना अंग्रेजी से सीखकर अपनी भाषा का नियन्त्रण किया है, उसके विद्यार्थी हिन्दी पढ़ते समय किस आफत में फँसते हैं, उसका विद्वज्जन सहज ही अनुमान कर सकते हैं। हिन्दी को साहित्यिक दृष्टि से पढ़नेवाले सभी यही चाहते हैं कि पढ़ते समय वहीं रुकें जहाँ कुछ शब्दों का समावेश एक अर्थ का स्पष्टीकरण करता हो और उन्हें जरा दम लेने की भी गुंजायश रहे, न कि वहाँ जहाँ अर्थों का बोध होना तो दूर, एक शब्द भी विरामचिह्नों की कृपा से अपनी अर्थ-विकास करनेवाली प्यारी विभक्ति से अलग रहता है। ऐसा प्रयोग व्यावसायिक दृष्टि से भी हिन्दी को हानि पहुँचाता है। मान लीजिए, कोई भिन्न भाषाभाषी महोदय आपसे मिलने गये। दो ही मिनट में उन्होंने अपने आगमन का सारा किस्सा कह सुनाया जिसका उत्तर देना तो दरकिनार; उसके स्वागत-शब्दों की दीर्घ स्वरों की सफलता दिखाते हुए- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित की (गद्य में ही) कार्यवाही पूरी करते हुए आपको कहीं तीन मिनट से अधिक समय लग गया। समय का मूल्य समझनेवाले अमेरिका जैसे देश किसी शब्द के उस अक्षर को जिसकी उच्चारण में आवश्यकता नहीं होती, निकाल देते हैं और इस प्रकार थोड़े ही समय में अधिक भाव प्रकट कर जाते हैं। हमें भी जीवन को कर्ममय करने के लिए भाषा की गति को बढ़ाना चाहिए। भाषा की शिथिलता जीवन को भी शिथिल कर देती है।

हिन्दी की मन्द गति का प्रधान कारण यह है कि गद्य का जमाना उसमें अभी कुछ समय से आरम्भ हुआ है। ब्रजभाषा की कविता लिखकर या पढ़कर लोग अब तक साहित्य-रस का स्वाद लेते थे। कविता की गति स्वभावतः मन्द होती है क्योंकि कविता में स्वरों और मात्राओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कविता की भाषा से मनोरंजन तो होता है परन्तु वह जीवन-संग्राम के काम की नहीं होती। दूसरे, कविता-प्रिय मनुष्य कल्पना-प्रिय हो जाता है। उससे काम नहीं होता। ललित कल्पना मनुष्य को कर्म के कठोर क्षेत्र पर उतरते भय दिखाती है। कविता की सुकुमार भावना लोगों को सौन्दर्योपासक बना देती है। इससे जाति के कर्म जीवन के शिथिल होने की सम्भावना है। हिन्दी का पिछला युग ऐसा ही था। एक तो मुसलमान बादशाहों के लिए देश में विलास का दौरदौरा था ही, दूसरे ब्रजभाषा के कवियों ने जाति को स्वरूप देखने के लिए शृंगार रस का दर्पण दिया। इस सौन्दर्योपासना के कारण जाति के साथ भाषा की शैली भी शिथिल पड़ गयी।

जो हिन्दी राष्ट्र भाषा होगी, जो हिन्दी किसी प्रान्त की मातृभाषा नहीं, जिस हिन्दी के लेखक अभी गढ़ रहे हैं, जिस हिन्दी के सहारे भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक सभी शंकाओं का समाधान किया जाना निश्चित है, उसे उन्नत करने के लिए-भिन्न-भिन्न शब्द गढ़ने तथा अपनाने के लिए-उन्हें व्याकरण सम्मत स्थान देने के लिए भाषा-प्रवाह को वद्धित करने के लिए-सभी प्रान्तवासियों का समानाधिकार है। हिन्दी के कोश में आज यदि दस हजार शब्द हैं तो कल पन्द्रह हजार होना तभी सम्भव है जबकि पूर्वोक्त उपायों से शब्द गढ़े जायेंगे, और भाषा-प्रवाह को तेज करने का यही तरीका है कि क्षिप्रगति भाषाओं के कन्धे से उसका कन्धा मिलाया जाय। कर्मक्षेत्र में हमारी विजय तभी सम्भव है, किसी भाव को जल्दी और आसानी से तभी हम व्यक्त कर सकेंगे जब भाषा पूर्ण स्वतन्त्र और भावों की सच्ची अनुगामिनी होगी।

'समन्वय'

वर्ष 2, अंक 9, सं. 1980

 

खड़ी बोली के कवि और कविता

इस समय देश की जैसी परिस्थिति हो रही है, उसे देखते हुए जब हम खड़ी बोली के प्रसंग पर पाते हैं, हमें उसकी सार्थकता के विचार से अपार आनन्द की प्राप्ति होती है। खड़ी बोली के घट को साहित्य के विस्तृत प्रांगण में स्थापित कर आचार्य महावीरप्रसादजी द्विवेदी ने मन्त्रपाठ द्वारा देश के नवयुवक समुदाय को एक अत्यन्त शुभ मुहूर्त में आमन्त्रित किया, और उस घट में कविता की प्राण-प्रतिष्ठा की। हिन्दी साहित्य की वर्तमान धारा पूर्ण ज्ञान के महासागर की ओर जितना ही बढ़ती जायेगी, लोग उतना ही उसके महत्त्व को समझेंगे। इस देश में उन दिनों उर्दू की जैसी अवस्था थी, शिक्षित लोग जिस प्रकार उसकी ओर खिचे हुए थे, जिस तरह वह हिन्दुस्थान की प्रचलित सजीव भाषा समझी जाती थी और बहुत कुछ श्रेय उसे आज भी प्राप्त है, उसके एक समय राजभाषा होने के कारण - तमाम पश्चिमोत्तर भारत के शिक्षित समुदाय की जबान पर फिरती हुई शिक्षा तथा नाजो-अन्दाज की मूर्ति हो रहने के कारण, यह निश्चय था कि आज हिन्दी की अपेक्षा उर्दू को ही लोग राष्ट्र भाषा के मयूरासन पर बैठने के लिए अधिकतर योग्य समझते, जबकि इधर के तमाम शिक्षित समुदाय की प्यारी भाषा उर्दू ही हो रही थी और मुसलमानों की भाषा का एक प्रश्न भी राष्ट्र-मैत्री के सामने आ जाता था। निस्सन्देह हिन्दी की खिचड़ी शैली ने इस सवाल को हल कर दिया है और उसी तरह खड़ी बोली की कविता ने शिक्षित समूह के हृदय में अपनी तरफ का एक प्रेमजन्य आकर्षण भी पैदा कर दिया है-शिक्षित लोग भी हिन्दी लिखने और पढ़ने लगते हैं। ब्रज-भाषा काल में जातिगत विचार जितने प्रबल थे, अपनी संस्कृति की जितनी कट्टरता थी, उतनी व्यापकता संसार की संस्कृति तथा शिक्षा-दीक्षा आदि के सम्बन्ध में नहीं थी, बल्कि संसार के साहित्य से लोग अनभिज्ञ ही थे। आज जिस तरह हम किसी भी प्रान्त की भाषा के द्वारा विश्व के प्रत्येक देश के विश्व विद्यालय की शिक्षा-दीक्षा तथा उत्कर्ष का विवेचन कर लेते हैं, ब्रजभाषा काल में यह बात न थी। मुसलमान बादशाह धार्मिक कट्टरता के कारण अरब से उधर की शिक्षा ग्रहण ही नहीं करते थे; जैसे कि मुसलमानों के चिरन्तन विचार हैं। जिसके फेर में उन्होंने रोमन तथा ग्रीक सभ्यता की विशाल लाइब्रेरी-शायद उस समय की संसार की सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरी जला दी, कुरान शरीफ में जो कुछ लिखा है, उससे बाहर की बातें व्यर्थ हैं-अनर्थकारी हैं, यह सोचकर इधर इतने प्रकाशमान सभ्य संसार में बच्चा-ए-सक्का की धार्मिक कट्टरता बारहवीं सदी के ही स्वप्न देख रही है, यह प्रायः सभी शिक्षित लोग समझ गये हैं। इसी तरह उस समय उस ब्रजभाषा-काल के हिन्दू भी थे। मुसलमानों में फिरके की जो वृत्ति थी, उसका हिन्दुओं में भी होना बहुत स्वाभाविक था। धार्मिक संघर्ष के उस Tug of war में यहाँ की हिन्दू-मुसलमान दोनों जातियाँ ब्रिटिश आधिपत्य से रस्से के टूटने के साथ ही जमीन देख गयीं। इधर वैज्ञानिक चमत्कार ने ज्यों-ज्यों संसार में अपनी ज्योति फैलायी, जीवन-संग्राम के लिए इस पराधीन देश को अधिक शक्ति-संचय की आवश्यकता आ पड़ी, इससे ब्राह्मणों के हाथों से जपवाली माला छूट गयी और इस प्रकार की सक्रियता द्वारा अर्थोद्गम का द्वार भी बन्द हो गया। 'राम बड़े या रहीम' वाला सवाल ही न रह गया। दुलारे पाण्डेय को पाँच हजार जप करते हुए देखकर भी कोई सेठजी नहीं पसीजे। लाचार, पाण्डेयजी को माला छोड़कर उन्नाव में मिठाई की दूकान खोलनी पड़ी, और जैसा कि प्रवाह है, हलवाई होकर भी वे ब्राह्मण बने रहे, और बड़े गौर से विलायत यात्रा का विरोध करते रहे। उन्हीं के वंश से छटकर जिन उच्छृखलों ने विलायत में अध्ययन किया और अपने उत्कर्ष के कारण देश में अच्छी स्थिति पायी, वे धर्म से पतित तथा नास्तिक करार दिये गये-इस तरह जहाँ सार्वभौमिक दासता आ गयी थी, वहीं पर जाति के बुद्धि-संस्कार के साथ-ही-साथ भाषा संस्कार भी आवश्यक था। यह प्रसार, यह उदारता ब्रजभाषा के द्वारा सम्भव न थी। वह जिस काल की भाषा थी, जाति को उसी काल के लिए अलंकृत करती है। जिस तरह ब्रजभाषा में कहीं भी केम्ब्रिज का उल्लेख नहीं, यद्यपि उस समय भी केम्ब्रिज सैकड़ों नररत्न पैदा कर चुका था, उसी तरह आज भी विश्व विज्ञान तथा राष्ट्र की मैत्री के लिए वह तैयार नहीं। उसके कवि जो इस समय प्रसिद्ध कीर्ति हो रहे हैं, गणेशजी की वन्दना से ही फुरसत नहीं पाते और उनके कद्रदाँ भी वही हैं-उन्नाव में मिष्ठान्न बेचनेवाले। खड़ी बोली की कविता का उद्भव ऐसे समय बहुत ही सार्थक हुआ है। कविता हृदय की सृष्टि है, जहाँ मातृजाति का स्थान है। महाकवि उपाध्यायजी ने लिखा भी क्या खूब है-

नर है पीवर, धीर, संयत, श्रमकारी;

है मृदुतन, उपराममयी, तरलित उर नारी।

नर जीवन है विपुल कार्यमय प्रान्तर न्यारा;

नाना सेवा निलय नारिता है सरि-धारा।

मस्तिष्क-मान-साहस-सदन वीर्यवान है पुरुष-दल;

है सहृदयता-ममतावती पयोमयी महिला सकल।

खड़ी बोली के गद्य में कर्मजीवन के चिह्न और पद्य में हृदय की सुकुमार भावनाएँ व्यक्त कर हिन्दी के इस काल के प्राचीन स्तम्भ, साहित्यिकों ने अपूर्व दूरदर्शिता दिखलायी है। मृतप्राय मनुष्य के रुकते हुए शोणित-प्रवाह को गतिशील करने के लिए वह जहर उसके खून से मिलाया जाता है, जो उसकी स्वाभाविक अवस्था के बिलकुल प्रतिकूल होता है। भाषा के लिए भी यही दवा है। मृतप्राय ब्रजभाषा के भीतर से नवीन खड़ी बोली का जो रूप उर्दू के सम्मिश्रण से निकाला गया है यह निस्सन्देह भाषा के साथ ही जाति को चिरकाल तक सजीव रक्खेगा। यही वैज्ञानिक उपाय भी है। विभिन्न गोत्रों का विवाह यहाँ इसी विचार से प्रचलित हुआ था। आज खड़ी बोली में जो कुछ भी कठिन, शुष्क तथा रूढ़ दिखलायी पड़ रहा है, वह केवल भाषा को अधिक काल तक स्थायी रखने के लिए है। ब्रजभाषा की कोमलता पर जितना विचार हो चुका है, अब उससे अधिक हो नहीं सकता। सच तो यह है कि आजकल के प्रख्यात कवि, जो ब्रजभाषा में कविताएँ लिखते हैं, प्राचीन ब्रजभाषा काल के तीसरे दरजे के कवियों का भी मुकाबला नहीं कर पाते, और यह सिर्फ इसलिए कि ब्रजभाषा काल में जाति के भीतर से भाषा की एक ही धारा बहती थी-खड़ी-पड़ी का कोई सवाल न था। यह अब खड़ी बोली पर विचार करके उसे ही कोमल से कोमलतर बनाने का समय है। और यह खड़ी बोली की कठोरता ही अब मागे चलकर सरस कवियों की काव्य-साधना का कारण होगी। भाषा की गति के साथ ही हमारी मातृशक्ति का उत्थान होगा, और उनके मुखों से सुन-सुनकर खड़ी बोली के बालक क्रमश: अपनी भाषा, समाज और राष्ट्र का कल्याण साधन करेंगे। इस भाषा के द्वारा इस जाति के जीवन ने एक दूसरा ही प्रवाह लिया है, जो अधिक-से-अधिक क्षिप्रगामी होता जा रहा है, और कभी ऐसा भी समय आवेगा, जब समस्त भारतवर्ष एक ही भाषा-शक्ति के प्रवाह में बहने के लिए राजी हो जायेगा।

खड़ी बोली की कविता में प्राण-प्रतिष्ठा सौभाग्यवान् प्राचार्य पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी ने की है। इनके प्रोत्साहन तथा स्नेह ने खड़ी बोली की कविता के प्रथम तथा दूसरे काल के कितने ही सुकवि साहित्य सेवक उत्पन्न किये। ब्रजभाषा के पक्षपातियों से इन्होंने लोहा लिया, और बड़ी योग्यता से अपने पक्ष को प्रबल करते गये। नवीन युवक शक्ति इन्हीं के साथ सम्मिलित हो गयी, और ईश्वर-दत्त इनका साधन भी उस काल में सबसे प्रबल रहा। आज 'सरस्वती' के जोड़ की हिन्दी में कई पत्र-पत्रिकाएँ हैं, पर उस समय 'सरस्वती' ही हिन्दी की सरस्वती थी। उस समय खड़ी बोली की कविता का श्रीगणेश इस प्रकार हुआ था-

क्या वस्तु मृत्यु ? जिसके भय से विचारे,

होते प्रकम्प-परिपूर्ण मनुष्य सारे।

क्या वाद्य है ? विशिष है ? अहि है विषारी ?

किंवा विशाल-तम-तोप दृढ़ाङ्ग - धारी ?

पृथ्वी-समुद्र-सरिता-नर-नाग-सृष्टि;

मांगल्य-मूल-मय वारिद-वारि-वृष्टि।

कर्तार कौन इनका ? किस हेतु नाना-

व्यापार-भार सहता रहता महाना ?

विस्तीर्ण विश्व रच लाभ न जो उठाता;

स्रष्टा समर्थ फिर क्यों उसको बनाता ?

जो हानि-लाभ कुछ भी उसके न होता;

तो मूल्यवान फिर क्यों निज काल खोता ?

- महावीर प्रसाद द्विवेदी

प्रथम काल की इस कविता में प्रांजलता काफी है। द्विवेदीजी संस्कृतज्ञ तथा संस्कृत के पक्षपाती थे, इसलिए इन्होंने संस्कृत वृत्त ही चुना है। इनकी कविता में हिन्दी-वृत्त भी है। आजकल के कवियों के 'प्रिय वीर छन्द में भी इन्होंने कविताएँ लिखी हैं। इस उद्धत दार्शनिक 'पद्य में दर्शन की तो दुर्दशा की गयी है, पर इसकी भाषा अवश्य बड़े महत्त्व की है। यह महत्त्व हम इसकी प्राथमिक दशा का विचार करके इसे देते हैं। इस पद्य की अन्तिम पंक्तियाँ कहती हैं, विश्व की रचना द्वारा स्रष्टा लाभ उठाता है। यदि ऐसा न होता, तो व्यर्थ ही वह अपना अमूल्य समय क्यों खोता ? इन पंक्तियों से सूचित है कि कवि अपनी ही तरह इस विश्व के स्रष्टा को भी कहीं बैठा हुआ समझ रहा है। हमें यहाँ सृष्टि-रहस्य में नहीं पड़ना है। हम इतना ही कहेंगे कि इस पद्य के लेखक के दार्शनिक विचार अधूरे हैं। 'महाना' जिस जगह पर आया है, वहाँ यह निश्चय हो जाता है कि अन्तिम वर्ण को दीर्घ बनाने के उद्देश्य ने कवि को ब्रजभाषा की शरण लेने के लिए विवश किया है। दूसरा कारण तुक का विचार है। यों तो संस्कृत का अन्तिम वर्ण दीर्घ माना जाता है, परन्तु यहाँ 'महान' का हलन्त 'न्' संस्कृत के पक्ष-समर्थक के सामने एक विकट समस्या खड़ी कर देता है, जिसके कारण 'न' को अकारान्त मानकर वे दीर्घत्व के विश्वास पर शुद्ध नहीं छोड़ सके, उसे 'महाना' - बना ही डाला। 'नाना' के अन्त्यानुप्रास खाना, कमाना, जमाना, चलाना, उठाना, गिराना, पाना, जाना, ताना, बाना, ठाना, आदि अनेक हैं। पर वहाँ पद्य की लड़ी कुछ ऐसी चल गयी कि निभाना ही कठिन हो गया, अन्त में 'महाना' ही की विजय रही। खैर 'महाजनो येन गतः स पन्थाः'। दोष तो सिर्फ छायावादियों के शब्द-विकार पर पकड़े जाते हैं। आचार्य द्विवेदीजी का एक उद्धरण और-

पाद-पीठ को शोभित करते हुए इन्द्र ने इतने पर;

जंघा से उतारकर अपना खिले कमल सम पद सुन्दर।

निज अभिलषित विषय में सुनकर मन्मथ का सामर्थ्य महा;

उससे अति आनन्दपूर्वक समयोचित इस भाँति कहा।

भाषा के सम्बन्ध में क्या कहना है ! परन्तु रबड़ छन्द को एक आँख न देख सकनेवाले द्विवेदीजी भी कभी-कभी रबड़ छन्द के लकड़दादा छन्द की सृष्टि कर बैठते हैं। यह हमें आज ही मालूम हुआ। जरा अन्तिम पंक्ति के 'आनन्दपूर्वक' को देखिए, मात्राएँ गिन जाइए, एक घटेगी। छन्दशास्त्र की पाबन्दी पर चलनेवाले द्विवेदीजी का 'आनन्दपूर्वक बड़ा मजेदार शब्द पाया है, 'आनन्द-पूरबक' हो तो छन्द के तैमूरलंग जरा संभल पावें, परन्तु खड़ी बोली के आचार्य का भाषा-विज्ञान बिगड़ जाता है, और जब उन्होंने भाषा को सँभाला, तब छन्द-शास्त्र के बागी ठहरते हैं। अब कहिए कि 'आनन्दपूर्वक' का निरानन्द कैसे मिटाया जाय।

निस्सन्देह गलतियाँ सबसे होती हैं, और इनके कारण किसी व्यक्तित्व वाले मनुष्य के महान प्रकाश पर आवरण नहीं पड़ सकता। द्विवेदीजी स्वयं भी स्वीकार करते हैं कि वह कवि नहीं। दूसरे लोग गद्य में उन्हें अप्रतिद्वन्द्वी लेखक मानते हैं। यह सर्वांशत: सत्य है। खड़ी बोली में 'प्राण-प्रतिष्ठा करने के पश्चात् दूसरों से ही द्विवेदीजी ने कविताएँ लिखवायी हैं। द्विवेदीजी के समय 'सरस्वती' में हिन्दी की जो कविताएँ निकलती थीं, उनमें द्विवेदीजी का कुछ-न-कुछ सम्पादन जरूर रहता था। पहले-पहल तो शुरू से आखीर तक उन्हें कविता की लाइनें दुरुस्त करनी पड़ती थीं। आजकल अपने ही प्रकाश से चमकते हुए उस समय के कितने ही कवियों की प्रतिभा की किरणें द्विवेदीजी के हृदय के सूर्य से मिली हुई ही निकली हैं। वे कविगण द्विवेदीजी की इस अपार कृपा के लिए सर्वांन्त:करण से उनके कृतज्ञ हैं। बाबू मैथिलीशरणजी, श्री सनेहीजी, पं. रूपनारायणजी पाण्डेय, पं. रामचरितजी उपाध्याय, पं. लोचनप्रसादजी पाण्डेय, ठाकुर श्री गोपालशरण सिंहजी, बाबू सियारामशरण गुप्त आदि सुकवियों की रचनाओं को द्विवेदीजी ने काफी प्रोत्साहन दिया, और ये सब उस काल की 'सरस्वती' ही की स्टाइल के सुकवि हैं।

पण्डित नाथूराम शंकरजी शर्मा 'शंकर' को कविता-कामिनी-कान्त हिन्दीवाले कहते हैं। समालोचक श्री नारायणप्रसादजी 'बेताब' ने 'शंकर' जी की कविता की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। बल्कि उनके विचार से हिन्दी की वर्तमान भूमि के एकच्छत्र सम्राट 'शंकर' जी ही हैं। पं. पद्मसिंह शर्मा जैसे संस्कृत तथा हिन्दी-फारसी के पाररंगत विद्वान् भी 'शंकर' जी की काफी कद्र करते हैं। ये सब 'शंकर' जी की योग्यता के प्रमाण हैं। उनकी कविताएँ पढ़ने पर किसी को उनके प्रतिभाशाली होने में सन्देह नहीं रह जाता। उनकी भाषा मँजी हुई होती है। मौलिक शब्द-न्यास भी प्रायः मिलता रहता है। कविता में मृदुलता भी रहती है, और कठोरता भी। जो लोग अधिकारी हैं तथा रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्दों में काव्य देखनेवाले, उनमें अधिकांश ही 'शंकर' जी के प्रशंसक हैं। एक बार पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदीजी ने इन्हें ही अपनी कवि-गोष्ठी का सर्वश्रेष्ठ कवि चुना था और 'पदक' तथा सम्मान भी हिन्दी में इन्हें कदाचित सबसे ज्यादा मिल चुका है। इनका अन्तिम जीवन पुत्रादिक वियोग से खिन्न रहता है।

यौवन-मान-सरोवर में कुच-हंस मनोहर खेलन आये,

मोतिन के गलहार निहार अहार विहार मिले मन भाये।

कंचुकी-कुंज पतान की प्रोट दुरे लट नागिन के डरपाये,

देखि छिपे छिपके पकड़े घर 'शंकर' बाल मराल के जाये।

-शंकर

स्वर्गीय पं. श्रीधर पाठक की भी हिन्दी में काफी प्रसिद्धि है, और खड़ी बोली के आचार्यों में इनका भी नाम बड़े आदर से लिया जाता है। अब उनका नश्वर शरीर इस संसार में नहीं रहा, पर उनका कीर्ति-शरीर निस्सन्देह हिन्दी के क्षेत्र में अमर है। इनकी कीर्तियों में 'भारत-गीत', 'ऊजड़-ग्राम' तथा 'काश्मीर-सुषमा' आदि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। खड़ी बोली की कविता के आचार्य माने जाने पर भी इनकी कविता में वह शुद्धि नहीं जो पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदीजी की कविता में है। यों कवित्व के विचार से यह बहुत बड़े कवि थे। इनकी कविता में, विशेषतया 'भारत-गीत' में समस्त पदों की बहुलता है।

ध्यान लगाकर जो तुम देखो सृष्टी की सुघराई को;

बात-बात में पावोगे उस ईश्वर की चतुराई को।

ये सब भाँति-भाँति के पक्षी ये सब रंग-रंग के फूल,

ये बन की लहलही लता नव-ललित-कलित शोभा के मूल।

ये नदियाँ, ये झील-सरोवर, कमलों पर भौंरों की गुंज;

बड़े सुरीले बोलों से अनमोल घने वृक्षों के कुंज।

ये पर्वत की रम्य शिखा औ' शोभा-सहित चढ़ाव-उतार;

निर्मल जल के सोते झरते सीमा-सहित महा विस्तार।

लरजन गरजन घनमण्डल की बिजली बरषा का संचार;

जिसमें देखा परमेश्वर की लीला अद्भुत अपरम्पार।

-श्रीधर पाठक

पाठकजी की कृतियों में कविता-कामिनी के कोमल हृदय का स्पन्दन मिलता है। वह खड़ी बोली की कविताओं की अपेक्षा ग्राम्य-गीतों में अधिक सफल हुए हैं। इन लोगों की खड़ी बोली की कृतियों में गत बीस पच्चीस साल के साहित्य की जो झलक मिलती है, उसमें प्रतिभा का कहीं भी पूर्ण विकास नहीं दीख पड़ता। वह मध्याह्न-काल के सूर्य की तीव्र रश्मियों की तरह स्थायी रूप से झुलसानेवाली नहीं, वह केवल एक बिजली की झलक है, जो कौंधकर फिर अन्धकार के गर्भ में विलीन हो जाती है।

खड़ी बोली के उस काल में पण्डित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय 'हरिऔध' की काव्य-साधना विशेष महत्त्व की ठहरती है। सहृदयता और कवित्व के विचार से भी वह अग्रगण्य हैं। परन्तु संस्कृत के वृत्तों तथा प्रचलित समस्त पदों के प्रयोग की प्रथा यह भी नहीं छोड़ सके। इनके समस्त पद औरों की तुलना में अधिक मधुर हैं, जो इनकी कवित्व-शक्ति के ही परिचायक हो जाते हैं। इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि यह हिन्दी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रज भाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं, और सबमें एक अच्छे उस्ताद की तरह। बहुत से लोग इनके प्रतिकूल हैं। पर इन्हें इसका विचार-विशेष नहीं। यह सरल चित्त से सबकी बातें सुन लेते हैं। इनके समय, स्थिति और जीवन पर विचार करने पर कवित्व का कहीं भी पता नहीं मिलता, पर यह महाकवि अवश्य हैं। हिन्दूकुल की प्रचलित ब्राह्मण-प्रथाओं पर विश्वास रखते हुए, अपने प्राचार-विचारों की रक्षा करते हुए तथा नौकरी पर रोज़ हाज़िर होते हुए भी सदैव यह सरस, सरल कवि ही बने रहे। कवि की उच्छृखलता उसकी प्रतिभा के उन्मेष का कारण होती है, वह इनमें नाम के लिए भी नहीं है। परन्तु नौकरी करते हुए भी यह प्रतिभाशाली कवि ही रहे। हिन्दी भाषा पर इनका अद्भुत अधिकार है। मुहावरों के प्रयोगों पर जो रचनाएँ इनकी हैं, वे कवित्व-विकास के विचार से कुछ भी नहीं, पर मुहावरे याद कराने की अनमोल लड़ियाँ हैं-

कमला लौं सब काल लोक-लालन-पालन रत;

गिरि-नन्दिनी-समान पूत-पति-प्रेम-भार-नत।

गौरव-गरिमामयी ज्ञानशालिना गिरा-सम;

काम-कामिनी तुल्य मृदुलतावती मनोरम।

आँख का आँसू ढलकता देखकर,

जी तड़प करके हमारा रह गया;

क्या गया मोती किसी का है बिखर,

या हुआ पैदा रतन कोई नया।

ओस की बूँदें कमल से हैं कढ़ी,

या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ;

या अनूठी गोलियाँ चाँदी-मढ़ी,

खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ।

-अयोध्यासिंह उपाध्याय

पण्डित रामचरितजी उपाध्याय सरल खड़ी बोली के अच्छे कवि हैं। इन्होंने भी अपनी कविताओं द्वारा हिन्दी साहित्य की दीर्घकाल-व्यापी सेवा की है। पं. महावीरप्रसादजी द्विवेदी तथा 'सरस्वती' के भूतपूर्व सम्पादक श्रीयुत बख्शीजी इनकी कविताओं की प्रशंसा कर चुके हैं। इधर कुछ वर्षों से यह दो अर्थ रखनेवाली कविताएँ लिखते हैं जिनका एक अर्थ राजनीतिक हुआ करता है। इन कविताओं में सहृदयता कम रहती है। पर उपाध्यायजी समय को देखते हुए खड़ी बोली के अच्छे कवियों में ही स्थान पायेंगे-

लड़ नहीं सकता मुझसे कभी,

तनिक भी नप-बालक स्वप्न में।

कब कहाँ, कह तो, किसने लखा;

कपि, लवा-रण वारण से भला।

-रामचरित उपाध्याय

रघुवंश के 'द्रुमवतीमवतीर्यवनस्थलीम्' की तरह इनकी रचना भी मधुर तथा सरल हुई है। सरलता ही इनकी विशेषता है-

सरसता सरिता-जामिनी जहाँ,

नवनवा नवनीत-पदावली।

तदपि हा! यह भाग्य-विहीन की;

सुकविता कवि-ताप-करी हुई।

जनम से पहले विधि ने दिये,

रजत, राज्य, रथादि तुम्हें स्त्रयं।

तदपि क्यों उसको न सराहते,

मचलते चलते हो तुम वृथा।

- रामचरित उपाध्याय

पं. कामताप्रसादजी 'गुरु', पं. गिरधरजी शर्मा 'नवरत्न', सैयद अमीर अली 'मीर' आदि कवियों ने भी खड़ी बोली में कविताएँ लिखी हैं। नवरत्नजी बड़े सरस हृदय कवि हैं। आपने रवीन्द्रनाथ के Gardener का 'वागवान' के नाम से सुन्दर अनुवाद किया है। आपकी भाषा भी सुललित होती है। कहीं-कहीं गुजराती बू जरूर आती है। इस मार्जन के विचार से 'गुरु' जी की भाषा अधिक परिपक्व है। 'गुरु' जी की भाषा की कई बार द्विवेदीजी ने भी प्रशंसा की है। 'गुरु' जी की भाषा में व्याकरण पर खूब ध्यान रहता है। इसलिए मार्जन के रहने पर भी रूखापन बहुत है। 'गुरु' जी कवि नहीं। व्याकरण का पुल बाँध खड़ी बोली के शब्द-जीवों को छन्दशास्त्र की पक्की सड़क से पार उतार लेते हैं, बस। 'मीर' साहब की कविता चुलबुली होती है, जैसा चुलबुलापन मुसलमान कवियों में रहा है।

पं. रामचन्द्र शुक्ल ने खड़ी बोली और ब्रजभाषा, दोनों में काव्य रचना की है। कोई-कोई कहते हैं, इनकी कविता में करुणा का परिपाक मिलता है। इनकी कविता में दूर की कौड़ी लाने का प्रयत्न जरूर है, पर मेरे विचार से यह जैसे बहुपठित विद्वान् हैं, वैसे कवि नहीं। इनकी कविता में इनके भाषा-ज्ञान तथा बहुदर्शिता का अच्छा प्रकाश है, पर कवित्व बहुत कम, कहीं-कहीं कविता अस्वाभाविक हो गयी है। इसके उदाहरण हम आगे चलकर देंगे। शब्दों की तोल इन्हें मालूम नहीं, न अलंकार का निर्वाह करना आता है। दार्शनिक कविताओं में जहाँ कहीं बीरबल की तरह इन्होंने अपने पढ़े हुए सिद्धान्त की खिचड़ी पकायी है, इनकी विद्वत्ता के वंश-दण्ड पर भावना की हण्डी में पड़े हुए इनके अपने ही ढाई चावल ज्यों-के-त्यों ही टॅगे हुए रह जाते हैं, इनकी प्रतिभा के पानी तक कविता की आँच पहुंचती ही नहीं। कवित्त-छन्द में यह चूक ही जाते हैं, यही इनकी विशेषता है। केवल 16-15 की गिनती से कवित्त छन्द पूरा कर देते हैं। 'गहरे पड़े गोपद के चिह्नों से अंकित जो' जब इस लड़ी में हम आठ-पाठ अक्षरों को अलग कर लेते हैं, तब 'दोय विषभनि बीच समपद् राखिए न' की शुक्लजी द्वारा अच्छी मरम्मत दीख पड़ती है, 'गहरे' और 'गोपद' के बीच में पड़े हुए शुक्लजी निकलते ही नहीं और हम लोग 'गोपद' तट पर खड़े हुए देखते ही रह जाते हैं-

अंकित नीलाभ रक्त और श्वेत सुमनों से,

मटर के फैले हुए घने हरे जाल में;

करती हैं कलियाँ संकेत जहाँ मुड़ते हैं,

और अधिकार का न ज्ञान उस काल में।

बैठते हैं प्रीति-भोज-हेतु आस-पास सब,

पक्षियों के साथ इस भरी हुई थाल में;

हाँक पर एक साथ पंखों ने सराटे भरे,

हम मेड़ पार हुए एक ही उछाल में।

-रामचन्द्र शुक्ल

पहले तीसरे बन्द का जरा मुलाहजा फरमाइए। 'बैठते हैं क्रिया का आधार 'थाल में' है, जिससे 'थाल में' सातवीं विभक्ति, अधिकरण कारक आया है, असंगति जाहिर है प्रीति-भोज के हेतु थाल में नहीं बैठते। यदि 'थाल में या थाल पर बैठना' इसे कोई मुहावरा माने, अर्थ 'भोजन करना' किया जाय, तो यह अर्थ लगता नहीं, कारण यहाँ मुहावरा प्रयोग तो है नहीं, 'थाल' का आलंकारिक प्रयोग आया है। 'थाल' के आगे का 'इस' जाहिर कर देता है कि यह प्रकृति का थाल है, जिसमें प्रीति-भोज हेतु पक्षियों के साथ सब बैठते हैं। अवश्य थाल में बैठने की पक्षियों की स्वाभाविक वृत्ति है पर वह नादानी ही है। प्रीति-भोज कराके उनके कुटुम्बों को भी, याने समुदाय-के-समुदाय को थाल में बैठाना आखिर उनकी नादानी का ही डंका पीटना ठहरा, न कि कविता करना। इधर जब कविता में प्रीति-भोज का कोई मनोहर चित्र आँखों से गुजरता है, उस समय कोई थाल में बैठा हुआ नहीं मिलता। मजा तो यह है कि उधर पक्षी थाल में बैठे, और इधर आपने हाँक चढ़ायी। पश्चात् क्या हुआ ? पंखों ने सर्राटे भरे !! -चिड़ियाँ गायब !! जान पड़ता है, दस-बीस पंख मँडला रहे हैं !!! कविता में पक्षियों के पंख आपने खूब नोचे !!! और अगर यही Nature को Personify करने का आपका तरीका है, तो निस्सन्देह यहाँ Wordsworth भी मात हैं। यह सब इतना अत्याचार करके आप एक ही उछाल में मेड़ पार कर जाते हैं। मेड़ जैसे कोई खाई हो! हम लोग तो चढ़कर ही मेड़ पार करते हैं, पर शुक्लजी 'एक ही उछाल में'। ऐसे हैं शुक्लजी हिन्दी के कवि! 'शक्ति-सिन्धु के बीच भुवन को खेनेवाले' में इनका शक्ति-सिन्धु कौन-सा है, पता नहीं। हम तो अब तक यही जानते थे कि भुवन के साथ शक्ति का अविच्छेद्य सम्बन्ध है, जैसे प्राग और उसकी गरमी। ऐसी मौलिक उद्भावना-शक्ति शुक्लजी में बहुत ज्यादा मिलती है।

पण्डित रूपनारायणजी पाण्डेय 'कमलाकर' हिन्दी की सेवा करते हुए अब प्रसिद्ध हो गये हैं। इन्होंने हिन्दी में कविताएँ भी लिखी हैं। 'बेताब' जी ने पाण्डेयजी की बन्दिशों की बड़ी तारीफ की है। वास्तव में इनकी लेखनी बड़ी साफ चलती है। यह नामी सम्पादक हिन्दी के शायद सर्वश्रेष्ठ अनुवादक तथा खड़ी बोली की कविता के कमलाकर कवि हैं। पाण्डेयजी की कविता हमें बहुत पसन्द है। भाषा में इन्होंने लखनऊ की नाक रख ली-

सुविशाल नभों के उड़े फिरते, अवलोकते प्राकृत-चित्र-छटा;

कहीं शस्य-से श्यामल खेत खड़े, जिन्हें देख घटा का भी मान घटा;

कहीं कोसों उजाड़ में झाड़ पड़े, कहीं आड़ में कोई पहाड़ सटा;

कहीं कुंज-लता के वितान तने, सब फूलों का सौरभ था सिमटा।

झरने झरने की कहीं झनकार, फुहार का हार विचित्र ही था;

हरियाली निराली, न माली लगा, फिर भी सब ढंग पवित्र ही था;

ऋषियों का तपोवन था, सुरभि का जहाँ पर सिंह भी मित्र ही था;

बस, जान लो, सात्विक सुन्दरता, सुख-सम्पत-शान्ति का चित्र ही था।

कहीं झील-किनारे बड़े-बड़े ग्राम, गृहस्थ-निवास बने हुए थे;

खपरैलों में कद्दू-करैलों की बेलर के खूब तनाव तने हुए थे,

जल शीतल, अन्न जहाँ पर पाकर, पक्षी घरों में थने हुए थे;

सब ओर स्वदेश-स्वजाति-समाज, भलाई के ठान ठने हुए थे।

-रूपनारायण पाण्डेय

पाण्डेयजी की भाषा देखते ही बनती है। हिन्दी में पाण्डेयजी की मौलिक कविताओं का एक संग्रह 'पराग' के नाम से, कोई दो-ढाई वर्ष हुए, निकल चुका है। इन्होंने बहुत ज्यादा मौलिक कविताएँ नहीं लिखीं। अब भी हिन्दी अपने सरस हृदय कवियों का भरण-पोषण नहीं कर सकती। कदाचित यही कारण है कि कविता के क्षेत्र में अधिक काम करने का हौसला नहीं रहा, वह बंगला की उत्तमोत्तम पुस्तकों का अनुवाद करने लग गये।

पण्डित मन्ननजी द्विवेदी गजपुरी भी अच्छे कवि थे। इनकी आशुमृत्यु के कारण हिन्दी के काव्य साहित्य को कुछ क्षति अवश्य हुई। इनकी भाषा मार्जित, सरल और शुद्ध होती थी। इनके छोटे भाई पं. रामअवध जी द्विवेदी भी बड़े होनहार कवि हैं। यह अभी विद्यार्थी-जीवन में हैं। बनारस हिन्दू-विश्वविद्यालय के छठे साल की पढ़ाई पढ़ते हैं, साथ ही कानून भी पढ़ रहे हैं। पं० मन्ननजी दूसरे ढंग के कवि थे, यह दूसरे ढंग के हैं। मन्ननजी की भाषा बे-फास होती थी, इनकी भाषा में शक्ति रहती है।

खड़ी बोली की कविता का सेहरा यदि किसी एक ही कवि को पहनाया जाय, तो अब तक इसके अधिकारी केवल बाबू मैथिलीशरणजी गुप्त ठहरते हैं। खड़ी बोली की कविता के उत्कर्ष के लिए इनकी सेवा अमूल्य है। इनकी पुस्तक 'भारत-भारती' ने राष्ट्र के सूखे हुए अनेक हृदयों को जीवन के अमृत से प्रसन्न तथा सक्रिय कर दिया है। अर्द्ध-शिक्षित मनुष्यों में भी जातीय अभिमान पैदा कर दिया है। अपने उत्कर्ष और अपकर्ष की कोई भी बात इन्होंने नहीं छोड़ी। और भी कई पुस्तकें इन्होंने लिखी हैं। इनकी भाषा हिन्दी में आदर्श मानी जाती है। खड़ी बोली के इनके प्रयोग शुद्ध होते हैं। दूसरे-दूसरे प्रान्त के लोग भी इनकी प्रसिद्धि के कारण इन्हें ही हिन्दी का श्रेष्ठ कवि मानते हैं। इनकी भाषा ने दूसरे काल में, बहुत शीघ्र ही, खड़ी बोली के काव्य शरीर का निर्माण किया। यह बंगला से खड़ी बोली में काव्यानुवाद भी करते हैं, और वह भी सफलतापूर्वक। रस और अलंकारों की बहार इनकी कविता में बहुत ज्यादा नहीं, पर भाषा का मार्जन देखने ही लायक होता है। यह शुद्ध भाषा का प्रयोग करते हैं। कहीं कहीं इनकी भाषा आलंकारिक भी होती है। कुछ पद्य इनके ऊँचे दरजे के। हैं। इनका भाषा-वैभव ही इन की विशेषता है।

संचित किये रक्खे हुए,

शुक वृंद के चक्खे हुए,

कुछ बेर जो थे दीन शवरी के दिये।

खाकर जिन्होंने प्रीति से,

शुभ मुक्ति दी भव-भीति से,

वे राम रक्षक हों धनुर्धारण किये।

भाषा की सफाई देखकर तबीयत प्रसन्न हो जाती है। जैसे शुद्ध भाव, वैसी ही माजित भाषा।

बैठी बहन के स्कन्ध पर,

रक्खे हुए निज वाम कर,

कुल दीप-सा बालक खड़ा था स्थिर वहाँ।

थी तोतली वाणी अहा,

उसने मधुर स्वर से कहा,

मालूँ अचुल को मैं वह है कहाँ ?

वीर बालक का कितना सुन्दर चित्र है। कहीं कोई अलंकार नहीं; पर चित्रण निहायत चोट करनेवाला है।

चुन ले चला हमारा साथी सुमन कहाँ तू?

माली, कठोर माली!

है, छोड़ता यहाँ पर केवल कराल कंटक,

यह रीति है निराली !

किसको सजायगा रे हमको उजाड़कर यों,

यह तो हमें बता तू !

झंखाड़ छोड़ता है इस वन्य झाड़ पर क्यों ?

हत देख यह लता तु !

मदु मन्द-मन्द गति से शीतल समीर आकर,

दल-द्वार खटखटाता,

पर सन्न हो विरति से जाता उसे न पाकर,

निर्गन्ध लटपटाता!

वह फूल जो मधुर फल समयानुकूल लाता,

तू सोच देख मन में;

भगवान के लिए क्या वह भोग में न आता,

बलि हो स्वयं भुवन में।

यह गुप्तजी की आलंकारिक रचना है। हिन्दी के हृदय पर अधिकार कर जिस समय 'मयंक' डूबा था, यह कविता गुप्तजी ने उसी के 10-15 दिन पश्चात् लिखी थी। इसमें जैसे मयंक की ही किरणें मिल गयी हों।

अच्छी आँख मिचौनी खेली,

बार-बार तुम छिपो और मैं

खोजूँ तुम्हें अकेली।

किसी शान्त एकान्त कुंज में,

तुम जाकर सो जाओ,

भटकूँ इधर-उधर मैं, इसमें

क्या रस है, बतलाओ,

या मैं छिपूँ और तुम खोजो।

अनायास ही पाओ,

कहाँ नहीं तुम, जहाँ छिपूँ मैं।

जाने भी दो, आओ-

करें बैठ रँगरेली,

अच्छी आँख मिचौनी खेली।

पर जब तुम हो सभी कहीं तब,

मैं ही क्यों यों भटकूँ।

चाहूँ जिधर उधर ही अपना,

भार पटककर सटकूँ।

इसकी भी क्या आवश्यकता,

जो बहार पर अटकूँ।

अन्तर के ही अन्धकार में,

क्यों न पीत-पट झटकूँ।

बन अपनी ही चेली,

अच्छी आँख मिचौनी खेली।

यह गुप्तजी की दार्शनिक कविता है। इन्होंने अनेक दार्शनिक कविताएँ लिखी हैं। यह भक्त हैं। इनका दर्शन भी भक्ति रसाश्रित है। पढ़ने में रस मिलता है। भावना में माधुर्य हैं। दर्शन अवश्य बहुत ऊँचे दरजे का नहीं। इनकी देश-जागृति पर भी फुटकर कविताएँ हैं। इनका सम्मान सभी दल वाले करते हैं। यह इनके सरल स्वभाव का गुण है। हिन्दी में शुद्ध साहित्य की सृष्टि करनेवालों में गुप्तजी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। खड़ी बोली के अन्य कवियों के विषय में किसी दूसरे लेख में शीघ्र प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा।

माधुरी

वर्ष 8, खण्ड 1, संख्या 1

सं. 1986, अगस्त 1929

काव्य-साहित्य

मनुष्य-मन की श्रेष्ठ रचना काव्य है। विचार की ऊँची दृष्टि से उसकी निष्कलुषता तक पहुँचकर शब्द ब्रह्म से उसका संयोग प्रत्यक्ष करने के पश्चात् यहाँ के लोगों ने उसे ब्राह्मी स्थिति करार दिया। अन्यान्य देश-वालों ने भी तरह-तरह के तरीके इख्तियार कर एक अप्रत्यक्ष दिव्य शक्ति को ही काव्य के कारण के रूप से सिद्ध किया। काव्य में यदि कोई कवि अपने व्यक्तित्व पर खास तौर से जोर देता हो, तो इसे उसका अक्षम्य अहंकार न समझ, मेरे विचार से, उसकी विशाल व्याप्ति का साधन समझना निरुपद्रव होगा। कारण, अहंकार को घटाकर मिटा देना जिस तरह पूर्ण व्याप्ति है-जैसा भक्त कवियों ने किया, उसी तरह बढ़ाकर भूमा में परिणत कर देना भी पूर्ण व्याप्ति है-जैसा ज्ञानियों ने किया। शंकर, कबीर, रवीन्द्रनाथ, गेटे बढ़नेवालों में हैं और तुलसीदास, सूरदास तथा अपर भक्त कवि आदि अहंकार की भूमि से हटनेवालों में; दोनों जैसे एक ही शक्ति की अणिमा और द्राधिमा विभूति हों। काव्य के विचार के लिए भाषा, भाव, रस, अलंकार आदि आलोचक के लिए यथेष्ठ शस्त्र हैं। विचार केवल काव्य का उचित है, न कि अन्य असंगत बातों का।

जिस तरह कवियों पर एकदेशीयता के दोष लगाये जाते हैं, उसी तरह प्रायः अधिकांश आलोचक भी अपने ही विवर के व्याघ्र बन बैठे रहते हैं, अपनी ही दिशा के ऊँट बनकर चलते हैं। जैसे हिन्दी-साहित्य की पृथ्वी पर अब ब्रजभाषा का प्रलय-पयोधि नहीं है, वह जलराशि बहुत दूर हट गयी, राष्ट्रभाषा के नाम से उससे जुदा एक दूसरी ही भाषा ने आँख खोल दी, पर 'धृतवान सिवेदम्' के भक्तों की नजर में अभी यहाँ वही सागर उमड़ रहा है। नहीं मालूम 'बेवक्त की शहनाई के और क्या अर्थ हैं। एक समस्या पर बावन जिले के कवि ढेर हो जाते हैं। प्रेमचन्दजी के उपन्यासों ने नयी जान डाल दी, भाषा का सरल संगत प्रवाह बहा दिया, प्रसादजी की प्रतिभा के सूर्य का मध्याह्न काल हो गया। पन्तजी के 'पल्लव' की परी सोलहवें साल पर कदम रख चुकी पर साहित्य का मंगलाप्रसाद पारितोषिक इन्हें मिला? क्यों नहीं मिला, कारण आप जानते हैं ? -आलोचकों की योग्यता !!! ..

ऐसे आलोचक प्रायः सभी देशों में रहते हैं। हिन्दी तो अभी बालिका है, इसकी इज्जत नहीं की जाती तो न की जाय; समय उसके सेवकों को और बड़ा पुरस्कार देगा। अंग्रेजी, जिसके प्रताप का सूर्य कभी अस्त होता ही नहीं, ऐसे सदाशयों से खाली नहीं। टामस हार्डी अभी उस दिन मरे हैं। तब भी साहित्य की पताका उसी तरह आकाश में फहरा रही थी। पर तिरस्कार के प्रति हार्डी कहते हैं-

"Mock-on! Mock on, yet I'll go, pray to some Great Heart, who happily may charm mental miseries away."

(हँसो, मज़ाक करो, फिर भी मैं किसी महान आत्मा से प्रार्थना करता जाऊँगा जो कदाचित मानसिक दुःखों को अभी प्रभा से चकित कर हटा सकती है।)

बंगाल में जब रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा की किरणें सत्साहित्यिकों के हृदय के कमलों को खोल रही थीं और सब लोग उनकी प्रशंसा करने लगे थे, उस समय कितना विरोध हुआ था ? रवीन्द्रनाथ ने एक पद्य में इसकी कैफियत दी थी। उसमें उनके कवि-हृदय का काव्य-स्रोत ही फूट पड़ा है-

अश्रु झलिझे शिशिरेर मत, पोहाइये दुख-रात !

[ये आँसू हैं, मित्र ! (शब्द नहीं) जो ओस कणों की तरह दुःख की रात पार कर अब चमक रहे हैं।

जान कि बन्धु, उठियाछे गीत कतो व्यथा भेद करि।

[हे मित्र ! क्या तुम जानते हो, ये गीत कितनी व्यथा पार कर निकले हैं।]

एक दिन सुमित्रानन्दन को भी आलोचकों से घबराकर भवभूति की तरह दृप्तभाषा में लिखना पड़ा था-

न पिक प्रतिभा का कर अभिमान,

मनन कर मनन, शकुनि नादान !

गोस्वामी तुलसीदास को इन आलोचकों से कम घबराहट न थी !

भाषा भनिति मोरि मति थोरी।

हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी॥

जरा सोचिए तो, समालोचकों की किस वृत्ति का इन पंक्तियों से परिचय मिलता है। श्री हर्ष के मामा ने कहा, मैंने काव्य के दोष-दर्शन के लिए व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया, तुम्हारे नैषध में सब दोष एकत्र मिल जाते हैं। और यह वह नैषध है, संस्कृत साहित्य में जिसकी जोड़ का दूसरा ग्रन्थ है ही नहीं, जिसके उदय से किरातार्जुनीय और शिशुपाल-वध जैसे महाकाव्यों की प्रतिभा मन्द पड़ गयी। आलोचकों की कृपा जिन पर नहीं हुई, ऐसे भाग्यवान कवि संसार में थोड़े ही होंगे।

जिन तीन साहित्य महारथियों का मैं जिक्र कर चुका हूँ, प्रेमचन्दजी, प्रसादजी, और पन्तजी, वे कृति तैयार करनेवाले हैं, उनकी आलोचनाएँ कैसी भी हों, वे आलोचनाओं से पहले हैं, पीछे नहीं। आज भी हिन्दी साहित्य के व्याकरण की निन्दा होती है, महात्मा गांधी जैसे श्रेष्ठ मनुष्य का कहना है कि यू. पी. वालों की भाषा ठीक नहीं होती-अगर कोई ऐसे हैं, तो महात्माजी को इसका ज्ञान नहीं, पर इससे हिन्दी साहित्य की प्रगति रुक नहीं रही, और भाषा के व्याकरण पर दोष देनेवालों की दिक्कतें भी बामुहाविरा हिन्दी लिखनेवाले यू. पी. के बड़े-बड़े साहित्यिकों को, जिन्हें अपर दो-एक साहित्यिकों के व्याकरण का भी ज्ञान है, मालूम हो जाती है। इसके कारण को लिखने की यहाँ जगह नहीं। मैं सिर्फ यही कहूँगा कि जिस तरह व्याकरण भाषा का अनुगामी है, समालोचक उसी तरह कृति का। कृति की दुर्दशा करके, यदि उस कृति के फूल खिले हैं और उनमें सुगन्ध है, समालोचक अपना जितना भी जबरदस्त ठाट खड़ा कर दे, वह कभी टिक नहीं सकता। इसलिए समालोचक को कृति के साथ ही रहना चाहिए। प्रसादजी की आजकल जैसी आलोचनाएँ निकल रही हैं, उनमें अस्सी फीसदी आलोचना सहानुभूति से रहित और आक्रमण है। पं. रामचन्द्र शुक्ल की 'काव्य में रहस्यवाद' पुस्तक उनकी समालोचना से पहले उनके अहंकार, हठ, मिथ्याभिमान, गुरुडम तथा रहस्यवादी या छायावादी कवि कहलानेवालों के प्रति उनकी अपार घृणा सूचित करती है। ऐसे दुर्वासा-समालोचक कभी भी किसी शकुन्तला का कुछ बिगाड़ नहीं सके, अपने शाप से उसे और चमका दिया है।

फूलों का मुख्य गुण है उनकी सुगन्ध; कृति का मुख्य गुण है उसकी रोचकता। पर जिस तरह चीनियों को घी से बदबू मिलती है और सोडे में डुबोकर जीते हुए तिलचट्टे खाने में स्वाद, उसी तरह यदि पूर्वोक्त जैसे कृतिकारों की रचनाएँ किसी को रुचिकर प्रतीत न हों और गुणों की गणना से दोषों की संख्या बढ़ रही हो, तो सन्देह उन्हीं की रुचि-योग्यता पर होगा, जो एक हिन्दुस्तानी चीज़ को अंग्रेजी 'चीज़' (Cheese=पनीर) बना डालते हैं। (कहते हैं जिस पनीर में कीड़े पड़ जाते हैं-सड़कर बदबू आने लगती है, वह खाने में ज्यादा स्वाददार सम्झी जाती है। कारण, कीड़े कुछ मीठे होते हैं)। दूसरा कारण यह भी है कि 'उग्र' जी की कृति पढ़कर समालोचक अपनी आलोचना की तोप में बर्नर्डशा, डी. एल. राय और रोमा-रोलाँ को भरकर दागते हैं। 'उग्र' जी भी बर्नर्डशा होते यदि आपका समाज अंग्रेजों की तरह शिक्षा तथा सभ्यता की उतनी ही सीढ़ियाँ तय किये होता। रही बात योग्यता की, सो 'उग्र' जी की योग्यता का पता लगाने के पहले बर्नर्डशा की ही योग्यता का पता लगाकर बतलाइये कि वह किस विश्वविद्यालय से Ph. D. होकर निकले हैं जो यह फिलासफी छाँट रहे हैं, और कहाँ वह साहित्य के डाक्टर हैं जो नोबुल पुरस्कार प्राप्त कर लिया। जैसे उनके लिए अंग्रेजी सुगम है वैसे ही 'उग्र' के लिए हिन्दी; उनके अंग्रेजी के चित्र, अंग्रेजी-समाज के परिचायक हैं; 'उग्र' जी के हिन्दी के चित्र हिन्दी-समाज के परिचायक। आप को अच्छा न लगे तो चीन या विलायत चले जाइए, यहाँ क्यों व्यर्थ की बदबू में सड़ रहे हैं ?

कृतिकार कहाँ से सौन्दर्य, सत्य और भावना पाता है, यह भारतीयों के स्वर से कण्ठ मिलाकर राबर्ट ब्रिजेज ने कहा है-

"Thy work with beauty Crown

Thy life with love Thy mind with truth uplift to God above;

For whom all is, from whom was all begun;

In whom all Beauty, Truth and Love are one." :

[तुम्हारी कृति सौन्दर्य-किरीटिनी हो; तुम्हारा जीवन सप्रेम; तुम्हारा मन सत्य के साथ ऊपर ईश्वर तक चढ़ा हुआ हो, जिसके लिए सब-कुछ है, जिससे सब शुरू हुआ है, जिसमें सब सौन्दर्य, सत्य और प्रेम एक है।]

सत्य या ईश्वर का ही वह रंग है, जो रस के रूप से कृतिकार की आत्मा के भावों की तरंग को पाठक की आत्मा से मिला देता है। अनेक प्राणों में एक ही प्रकार की सहानुभूति, एक ही मधुर राग बज उठता है। 'ब्रिजेज' के ये भाव भारत के हृदय में चिरन्तन सत्य की प्रतिष्ठा पा रहे हैं। इन पंक्तियों में सत्य का जो सूत्र है, उससे भारत और इंगलैण्ड बँधा हुआ है। दोनों आत्माएँ एक हैं, जातिगत कोई भी वैषम्य यहाँ नहीं। प्रिया के चित्र को कितनी खूबसूरती से कविवर विलियम शेक्सपियर खींचते हैं। देखिए-

"Mine eye hath Play'd the painter and hath Stall'd

Thy beauty's form in table of my heart;

My body is the frame wherein it is held.

And perspective it is best painter's art.

For through the painter must you see his skill.

To find where your true image pictur'd lies,

Which in my bosom's shop is hanging still,

That hath his windows glazed with thine eyes.

Now see what good turns eyes for eyes have done.

Mine eyes have drawn thy shape and thine for me

Are window to my breast

[मेरी आँखों ने चित्रकार का काम किया। तुम्हारे सौन्दर्य की तसवीर मेरे हृदय की मेज पर रख दी। मेरा शरीर उसका साँचा है, जिसके अन्दर वह रखी है। शीशे के अन्दर दीख पड़ती हुई-सी वह सर्वश्रेष्ठ कला कार की कला है; क्योंकि उस चित्रकार के भीतर से तुम अवश्य उसकी कुशलता प्रत्यक्ष कर लोगी। तुम समझ लोगी, कहाँ तुम्हारी सच्ची मूर्ति खींची हुई रखी है। वह तस्वीर मेरे हृदय की दुकान में निस्तब्ध लटक रही है, जिसे देखने के झरोखे तुम्हारी आँखें हैं। अब देखो कि आँखों ने आँखों को कैसा बदला दिया। मेरी आँखों ने तुम्हारी तस्वीर खींच ली, और तुम्हारी आँखें मेरे लिए हृदय की खिड़कियाँ हैं।] कितना कमाल है।

लोचन-मगु रामहिं उर आनी

दीन्हें पलक-कपाट सयानी।

में स्नेह का प्रकाश तो है, पर इतना बड़ा सौन्दर्य अवश्य नहीं। क्या इस तरह के भाव को, यदि इसके दो-एक कारण-जैसे मेज का उल्लेख - हटा दिये जायें तो, किसी भारतीय के लिए अपनी चीज़ कहने में कोई असुविधा हो सकती है ? इस प्रकार की एक उक्ति और याद आयी-

नैन झरोखे बैठि के, सबको मुजरा लेय,

जाकी जैसी चाकरी, ताको तसो देय।

भावों की उच्चता पर कुछ भी नहीं कहना, पर कला की जो खूब-सूरती शेक्सपियर में है, वह इसमें भी नहीं। इस तरह के भाव-

तेरे नैनन-झरोखे बीच झाँकता सो कौन है

अनेक लड़ियों में गुँथे हुए मिलते हैं। हिन्दी में कहीं मैंने शेक्सपियर की सी उक्ति पढ़ी है, मुझे स्मरण नहीं। प्रिया और प्रियतम के स्नेह कार आदान-प्रदान इस तरह की उक्तियों से बढ़ा दिया जाता है, इसलिए सांसारिक दृष्टि से इस कला को बहुत बड़ा महत्त्व प्राप्त है।

"I fear thy kisses, gentle maiden,"

Thou needest not fear mine,

My spirit is too deeply laden,

Ever to burden thine.

I fear thy mien, thy tones, thy motion,

Thou needest not fear mine;

Innocent is the heart's devotion,

with which I worship thine.''

-P. B. Shelley

[हे धीर कुमारी, मुझे तुम्हारे चुम्बनों से भय है, पर तुम्हें मेरे चुम्बनों से नहीं घबराना चाहिए। क्योंकि मेरी शक्ति इतनी दबी हुई है कि तुम्हारी शक्ति का भार नहीं सँभाल सकती। मैं तुम्हारी छवि, वाणी और गति से डरता हूँ, पर तुम्हें मेरी चेष्टाओं से नहीं डरना चाहिए, क्यों ? हृदय के जिस अर्घ्य से मैं तुम्हें पूजता हूँ, वह निर्दोष है।

शेली की इन पंक्तियों में, कविता-कुमारी की साधना कर वह कितना कोमल बन गया था, इसका प्रमाण मिल जाता है। प्राय: कवियों को हम कुमारियों की पूजार्चा करते हुए, अनेक प्रकार की स्तुतियों से उन्हें प्रसन्न करते हुए देखते हैं। पर शेली अपनी सुन्दरी कुमारी की छवि, शब्द तथा गति से भी डरता है, जैसे कुमारी की गति से उसी के सुकुमार प्राण काँप उठते हों-इतनी कोमलता !

कल्पनामय शब्दों में प्राञ्जल रवीन्द्रनाथ-

अलख निरंजन-महारव उठे बन्धन टूटे, करे भय भंजन।

वक्षेर पाशे घन उल्लासे असि बाजे झंझन।

पंजाब आजि उठिले गरजि-'अलख निरंजन'।

एसेछे से एक दिन, लक्ष्य पराणेशंका ना जाने, ना राखे काहारो ऋण

जीवन मृत्यु पायेर भृत्य, चित्त भावनाहीन।

पंचनदीर घिरि दश तीर एसेछे से एक दिन।

दिल्ली-प्रासाद कूटे होथा बार-बार बादशा जादार तंद्रा जेतेछे छूटे।

कादेर कण्ठे गगन मन्थे निविड निशीथ टुटे।

कादेर मशाले आकाशेर भाले, प्रागुन एसेछे फुटे।

['अलख निरंजन'-महान रव उठता, बन्धन टूट जाते, भय दूर हो जाता है। कटि में सोल्लास असि झन-झन बज रही है। आज पंजाब में "अलख निरंजन' गूँज उठा। वह भी एक दिन था जब लाखों प्राण शंका नहीं जानते थे। किसी का ऋण नहीं रखते थे। जीवन और मृत्यु पैरों के भृत्य-से थे, चित्त चिन्ता से रहित। पाँचों नदियों के दशों तट घेरकर वह भी एक दिन आया था। दिल्ली के प्रासाद कोट में बार-बार शाहजादे की आँख खुल रही है। आधी रात के स्तब्ध आकाश को मथता हुआ यह किसका कण्ठ है-आकाश के भाल पर फूटती हुई यह किनके मशालों की आग है।]

कल्पना, चित्रण तथा ओज एक ही पद्य में मिल जाता है। पढ़कर हृदय की काव्य-तृष्णा मिट जाती है। हिन्दी में यदि चारों ओर से परकोटा घेरकर अन्य देशों तथा अन्य जातियों की भावराशि रोक रखी गयी तो इस व्यापक साहित्य के युग में हिन्दी के भाग्य किसी तरह भी नहीं चमक सकते और उसके साहित्य में महाकवि तथा बड़े-बड़े साहित्यिकों के आने की जगह चिरकाल तक 'बनी रहे-ठनी रहे' होता रहेगा। पुराना साहित्य हिन्दी का बहुत अच्छा था, पर नया और अच्छा होगा, इस दृष्टि से उसकी साधना की जायेगी। पुराने साहित्य का जितना दायरा था, नये का उससे बहुत अधिक बढ़ गया है। जो लोग ब्रजभाषा के प्रेमी हैं, उनसे किसी को व्यक्तिगत द्वेष नहीं। पर जब वे अकारण हिन्दी की नवीन कृतियों को नीचा दिखाने पर तुल जाते हैं, प्रायः ब्रज भाषा की श्रेष्ठता जाहिर करने के लिए, तब उनकी इस रुचि की वजह से उन्हें प्रयत्न करके साहित्य के व्यापक मैदान से हटा देना चाहिए। उनके द्वारा साहित्य का उपकार नहीं हो सकता। वे तो सिर्फ मनोरंजन के लिए काव्य-साधना करते हैं, किसी उत्तरदायित्व को लेकर नहीं। उनकी आँखों में दूर तक फैली निगाह नहीं है। वे अपने ही घर को संसार की हद समझते हैं। साहित्यिक प्रतिस्पर्धा क्या है, अपर साहित्यों से भावों के आदान-प्रदान के लिए कैसी शिष्टता, कितनी उदारता होनी चाहिए, किस-किस प्रकार के भावों से अपना प्रकृतिगत स्वभाव बना लेना चाहिए, वे नहीं जानते। कौन-से भाव सार्वजनिक हैं और कौन-से एकदेशीय, उन्हें पता नहीं। चिरकाल से एक ही समाज के चित्र देखते-देखते उनकी रुचि उन्हीं के अनुसार बन गयी, वे उसे बदल नहीं सकते और जब बदली हुई कोई अच्छी भी रुचि उनके सामने रखी जाती है तब हत्या अपनी अपार भारतीय संस्कृति की दोहाई लेकर उसे देश से निकालने पर तुल जाते हैं। पर यदि उनसे पूछा जाता है कि वे किसी भी एक कायदे का बयान करें, जो उनकी चिरन्तन भारतीय संस्कृति हो और जिस ढंग की संस्कृति दूसरे देशों में न हो, तो महाशयगण उत्तर देने की जगह दुश्मन की तरह देखने लगते हैं। कोट के सामने आधुनिक मिर्जई की प्राचीनता-भक्ति की तरह उसके पहननेवाले यदि विचारपूर्वक देखेंगे, तो मिर्जई भी उनकी सनातन पोशाक ठहरेगी। एक बार बनारस में अपनी गुजरी पवित्रता की व्याख्या करते हुए मेरे एक मित्र ने कहा, हम लोग पीताम्बर पहनकर खाते हैं। इस बीसवीं सदी में उनका पीताम्बर-धर दिव्य-रूप आँखों के सामने आया तो बड़ी मुश्किल से हँसी रोकना पड़ा, जैसे आजकल के वकीलों का झब्बा देखकर अकस्मात् जटायु की याद आ जाती है। मैंने मन-ही-मन कहा, पहले के आदमी पीताम्बर पहन कर भोजन करते थे या दिगम्बर होकर, यह सब बतलाना बहुत कठिन है। पर अगर ज़रा अक्ल का सहारा लिया जाय तो दिगम्बर रहना ही विशेष रूप से सनातन धर्म जान पड़ता है, कारण सनातन पुरुष के बहुत बाद ही कपड़े का आविष्कार हुआ होगा और इस प्रथा को माननेवाले सिद्ध नागे महाराजों की इस समय भी कमी नहीं। अस्तु, अभिप्राय यह है कि भारतीयता के नाम पर जिस कट्टरता तथा सीमित भावों और कार्यों का प्रचार किया जाता है, रक्षा की जाती है, वह अस्तित्व को कायम रखने की जगह नष्ट ही करती है। अस्तित्व तो च्याप्ति ही से रह सकता है। यहाँ का सनातन धर्म व्याप्ति है भी!

देखने के लिए जो दो-चार उद्धरण दिये गये हैं, उनमें उच्चतम वेदान्त वाक्यों से लेकर शृंगार के अत्यन्त आधुनिक चित्र तक हैं; पर वे अभारतीय होकर भी भारतीय हैं। कारण, उनमें प्रकाश तथा जीवन है। जो भाव या चित्र किसी देश की विशेषता सूचित करते हैं, वे उतने अंश में एकदेशीय हैं। पर जहाँ मनुष्य-मन के आदान-प्रदान हैं, वहाँ वह व्यापक साहित्य ही है। सिर्फ उसके उपकरण अलग-अलग होते हैं। शेक्सपीयर की नायिकाओं के परिच्छद एकदेशीय हो सकते हैं, पर उनकी आत्मा, प्यार, भाव व्यापक हैं। पश्चिम के लिए जिस तरह यहाँ के भावों की गहनता, त्याग, सतीत्व की शिक्षा आवश्यक है; उसी तरह वहाँ के प्रेम की स्वच्छता, तरलता, उच्छ्वसित वेग यहाँ वालों के लिए जरूरी है। इस समय वहाँ वालों का खूनी प्रेम भी शक्ति-संचार के लिए यहाँ आवश्यक हो गया है। यह है आसुरी, राक्षसी गुण अवश्य, पर कभी-कभी दुर्बल देवताओं में राक्षस ही प्रबल होकर बल पहुँचाते हैं, और कभी देवताओं के नायक विष्णु भी सती असुर-पत्नी का सतीत्व नष्ट करते हुए नहीं हिचकते। हिन्दी के भारतीय लोगों ने 'तुलसी' की कथा पढ़ी होगी, पर वेदों में मादक सोमरस की जैसी महिमा है, प्रायः सभी लोग जानते हैं; और मद्य के प्रचार का कहना क्या ? जिस गुजरात में अब ताड़ी के पेड़ कट रहे हैं, वहीं पर द्वापर में अवतार-श्रेष्ठ श्रीकृष्णजी के वंशज यादवों ने शराब पीकर एक ही दिन में अपना संहार कर लिया था। शायद शराब का ऐसा रोचक इतिहास मध्य-योरप भी नहीं दे सकता। शराब अच्छी भी है और बुरी भी अवश्य। यहाँ मैं देशप्रेम की बात नहीं कर रहा हूँ। साहित्य की शराब मुझे तो अत्यन्त रुचिकर जान पड़ती है और बिना विचार के इसे भारतीय कर लेने की इच्छा होती है। किसी मुसलमान विद्वान् ने कहा था, योरप शराब से डूबा हुआ है, पर वहीं के धर्म से भी शराब की तारीफ न करनेवाले एशिया ने शराब की कविताओं से योरप को मात कर दिया। शराब से सख्त नफरत करनेवाले कितने ही पण्डितों को मैं जानता हूँ, जिन्हें दवा के रूप में ब्राण्डी दी गयी और वे बिना शिखा हिलाये पी गये। सुना है यदि दवा के तौर पर प्रतिदिन थोड़ी-सी शराब पी जाय, तो स्वास्थ्य को निहायत फायदा पहुँचाती है। यों तो मैं जानता हूँ, हर खाद्य पहले पेट में पहुँचकर शराब बनता है और नशा पहुँचाता है; उसी के अनेक रासायनिक रूप शरीर की जीवनी शक्ति बनते हैं। नशे की नींद के बाद ही जागरण का आनन्द मिलता है और जागरण की जरूरत के साथ नींद की भी आवश्यकता सिद्ध होती है। इसी तरह इन दिव्य भारतीयों को कुछ प्रसन्न करने के लिए असुर शराबी भाव भी आवश्यक हैं। पर देश के साहित्यिक सुधारपन्थी नेतागण अवश्य इसके खिलाफ विद्रोह खड़ा कर मेरी स्त्री की तरह दिव्यता का परिचय देंगे।

यहाँ जरा अपनी धर्मपत्नी की दिव्यता का परिचय दे लूँ। खेद है कि अपनी दिव्यता के कारण ही वह इस समय दिव्य-धामवासिनी हो रहीं। पण्डितों ने मेरा और उनका सम्बन्ध पत्रा देखकर जोड़ा था, मुझे और उन्हें देखकर नहीं, इसलिए विवाह के पश्चात् मेरी और उनकी प्रकृति वैसी ही मिली, जैसे पण्डितों की पोथियों के पत्र एक दूसरे से मिले रहते हैं। वह अखण्ड भारतीय थीं और मैं प्रत्यक्ष राक्षस-रोज मांस खाता था। उन्होंने मुझे 'विश्राम सागर', 'पद्म-पुराण', 'शिव-पुराण' और न जाने कौन-कौन से ग्रन्थ, गुटके और पादटिप्पणियाँ दिखलाकर कहा, इससे बड़ा पाप होता है। तुम मांस खाना छोड़ दो। तब मैं कुछ मूर्ख था, और वह मुझसे हिन्दी में ज्यादा पण्डित थीं। मांस खाने से कितनी भयंकर सजा मिलती है, उसके जो चित्र उन्होंने दिखलाये, उनके स्मरण-मात्र से मेरे प्राण सूख जाते। कुछ दिनों तक मैंने मांस खाना छोड़ दिया। तब मेरा स्वास्थ्य भी मुझे छोड़ने लगा। स्वास्थ्य की चिन्ता तो होती थी, पर यमदण्ड के भय के सामने स्वास्थ्य का विचार न चलता था। मेरी पत्नी को मेरे स्वास्थ्य का भय न था, जितनी प्रसन्नता मेरे मांस छोड़ कर भारतीय बन जाने की। धीरे-धीरे सूखकर काँटा हो गया। एक दिन नहाने के लिए जा रहा था, कुएँ पर मेरे एक पूज्य वृद्ध ब्राह्मण मिले। मुझे देखकर बड़े ताज्जुब में आये। पूछा, 'तुम क्या हो गये ?' मैंने कहा, 'मांस छोड़ दिया, इसलिए दुर्बल हो गया हूँ।' उन्होंने कहा, 'तो मांस क्यों छोड़ा ?' मैंने कहा, 'विश्राम-सागर में लिखा है, बड़ा पाप होता है, मरने पर मांसाहारी को यमदूत बड़ा दण्ड देते हैं।' उन्होंने पूछा, 'तुमने अपनी इच्छा से छोड़ा या किसी के कहने पर ?' मैंने सच-सच बतला दिया। उन्होंने कहा, 'तो तुम फिर खानो, कनवजियों को पाप नहीं होता, उनको वरदान है।' मैंने पूछा, 'कहीं लिखा भी है ?' उन्होंने ' कहा, 'हाँ है क्यों नहीं ! वंशावली में लिखा है।'

मुझे वैसी प्रसन्नता आज तक कभी नहीं हुई। पत्नी पर बड़ा गुस्सा आया। उनसे तो मैंने कुछ भी न कहा, शाम को बाजार से आधा सेर मांस तौला लाया। मकान में लाकर रखा, तो श्रीमतीजी दंग। उस समय मेरे घर के और लोग विदेश में थे। श्रीमती रूमाल में खून के धब्बे। देखकर समझ गयीं। पूछा, 'यह क्या है ?' मैंने कहा, 'मांस !' 'तो क्या फिर खानोगे ?' मैंने कहा, 'हाँ, हमें वरदान है।' श्रीमती हँसने लगीं। पूछा-'कहाँ मिला यह वरदान ?' 'हमारे पूर्वजों को मिला है, वंशावली में देख लो, तुम्हें विश्वास न हो।' श्रीमती ने कहा, 'खुद पकाते हो ही, अपने मांसवाले बरतन अलग कर लो, और जिस रोज मांस खायो, उस रोज़ न मुझे छुनो और न घर के बरतन, और तीन रोज़ तक कच्चे घड़े नहीं छूने पानोगे।' मैंने कहा, 'इस समय तो रोज खाने का विचार है, क्योंकि पिछली कसर पूरी कर लेनी है।' उन्होंने कहा, 'तो मुझे मेरे मायके छोड़ पायो।' मैंने कहा, 'लिख दो, कोई ले जाय; नहीं तो नाई भेज दो, किसी को बुला लावे; मैं जहाँ मांस पकाता हूँ, दो रोटियाँ भी ठोक लूंगा।' श्रीमतीजी चली गयीं। पत्रा-प्रेम इसी तरह तीन-चार साल कटा। चार महीना मेरे यहाँ रहतीं, आठ महीने मायके। अन्तिम बार मायके में इंफ्लुयेंजा के साल, उन्हें भी इंफ्लुयेंजा हुआ। तब मैं बंगाल में था। कस्बे के डाक्टर मेरे परिचित मित्र थे। उनसे मिला तो अफसोस करने लगे। कहा, 'फेफड़े कफ़ से जकड़ गये थे। प्यास ज्यादा थी, मैंने पानी की जगह अखनी पिलाने के लिए कहा, वैसे ही डाक्टरी दवा भी देने के लिए पूछा। उन्होंने इन्कार कर दिया। कहा, दस बार नहीं मरना है।' इस दिव्य भावना ने अगर कुछ भी मेरे साथ सहयोग किया होता, तो शायद यह अकाल मृत्यु न हुई होती और जीवन भी सुखमय रहता। इस तरह साहित्य को जीवित रखने के लिए उसमें अनेक भाव, अनेक चित्रों का रहना आवश्यक है, और जब कि अपने-अपने स्थान पर सभी भाव आनन्दप्रद हैं और जीवन पैदा करनेवाले हैं। व्यापक साहित्य किसी खास सम्प्रदाय का साहित्य नहीं। शराब, कबाब, नायिका, निर्जन, साज और संगीत के कवि उमर खैयाम की इज्जत साहित्य संसार के लोग जानते हैं। ग़ालिब मशहूर शराबी थे। पर उनकी कृति कितनी सुन्दर है। व्यापक भावों के कवि रवीन्द्रनाथ ने भी इससे फायदा उठाया है-

कालि मधु यामिनीते ज्योत्सना-निशीथे कुञ्ज कानने सुखे,

फेनिलोच्छल यौवन-सुरा धरेछि तोमार मुखे।

तुमी चेये मोर आँखी परे धीरे पात्र लयेछ करे,

हेसे करियाछ पान चुम्बन भरा सरस बिम्बाधरे।

कालि मधुयामिनीते ज्योत्स्ना-निशीथे मधुर आवेश भरे।

(कल बसन्त ज्योत्स्ना की अर्द्धरात्रि को सुख से बगीचे के कुञ्ज में छलकती हुई फेनिल यौवन की सुरा मैंने तुम्हारे मुख पर रखी थी। तुमने मेरी आँखों की ओर देखकर धीरे-से पात्र (प्याला) हाथ में ले लिया, और हँसकर चुम्बनों से खिले हुए सरस बिम्बाधरों से मधुर आवेश में आ, पी गयीं।)

यहाँ रवीन्द्रनाथ से एक बड़ी गलती हो गयी है। पहले उन्होंने 'यौवन-सुरा' लिखकर सुरा के यथार्थ भाव में परिवर्तन करना चाहा था। वहाँ उन्होंने तरंगित यौवन को ही सुरा बनाया है। पर अन्त तक नहीं पहुँच सके क्योंकि अन्त में उनकी प्रिया की जो क्रिया है, वह सुरा पीने की ही है, यौवन-सुरा पीने की नहीं। विदेशी भावों को लेते समय ज़रा होश दुरुस्त रखना चाहिए। मुसलमानी सभ्यता के कवि इस कला में एकछत्र सम्राट हैं। एक जगह रवीन्द्रनाथ ने और लिखा है-

दुःख सुखेर लक्ष धराय पात्र भरिया दियाछि तोमाय

निठुर पीडने निगाडि वक्ष दलित द्राक्षा सम।

(दुःख और सुख की लाखों धाराओं से मैंने तुम्हारा प्याला भर दिया है-अपने वक्ष को निष्ठुर पीड़नों से दलित द्राक्षा की तरह निचोड़-कर।)

'दलित-द्राक्षा' का भाव उमर खैयाम का है। सुरा की कविताओं में मुसलमानों ने कमाल कर दिया कि मयखाने को मसजिद से बढ़कर बतला दिया और पाठकों को पढ़कर आनन्द आता है।

दूर से आये थे साक़ी सुनके मयखाने को हम।

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम।

यहाँ मयखाना मन्दिर और पैमाना अमृत का कटोरा है।

मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साक़ी नहीं।

दिल में आता है लगा दें आग मयखाने में हम।

यहाँ साकी अमृत पिलानेवाला गुरु है। इस तरह शराब के लक्ष्य से बड़ी-बड़ी बातें कह दी गयी हैं। उर्दू साहित्य की काफ़ी निन्दा परवर्ती काल के सुधारकों ने की है। पर यह प्रायः सब लोग मानते हैं कि पहले की शायरी का आनन्द दुष्प्राप है।

किस्मत को देखिए कि कहाँ टूटी जा कमंद,

दो-चार हाथ जब कि लबे-बाम रह गया।

असफलता की कितने सुन्दर सरस ढंग से वर्णना की, सफलता तक पहुँचकर असफल कर दिया।

हमारे काव्य-साहित्य की दृष्टि बहुत व्यापक होनी चाहिए, तभी उसका कल्याण हो सकता है। पश्चिमी कवियों के हृदय में पूर्व के लिए अपार सहानुभूति उमड़ चली थी। उनका सही साहित्यिक पौरुष तथा प्रेम आज संसार-भर में फैला हुआ है। वर्डसवर्थ और उसके मित्र कालेरिज ने पूर्व का वर्णन किया है। इधर डेढ़-सौ वर्ष में पश्चिमी सभ्यता का वैज्ञानिक चमत्कार कहाँ तक पहुँचा है, इसका हिन्दी-भाषियों को भी यथेष्ट ज्ञान है-

".....the Great Moghul, when he ere

while went forth from Agra to Lahore,

Rajas and Omrahs in his train........."

-Wordsworth

लाहौर या आगरे से यात्रा में राजा और उमराओं को लेकर चलते हुए प्रतापी मुगल बादशाह का जिक्र है। इस समय के इंगलैण्ड के कुछ आगे-पीछे होनेवाले कवियों में पूर्व के साथ शेली का प्रगाढ़ प्रेम दीख पड़ता है। पूर्व के रहस्यवादियों तथा सन्तों को वह चाव से याद करता है। "Lines to on Indian air", "Revolt of Islam", "Queem Mab' आदि अनेक कविताएँ काव्य-नाटक, खण्डकाव्य हैं जिनमें शेली ने पूर्व की बड़ी इज्जत की है। ब्रह्म, शिव और बुद्ध भी उनकी कविता में हैं। कीट्स भी पूर्व की छवि से मुग्ध है। भारत का उल्लेख उसने भी किया है। भारत के अमर स्नेह में डूबा हुआ है। पूर्व देशों का इनमें सबसे ज्यादा ज्ञान बायरन को था। उसने तुर्किस्तान की सैर भी की थी और इस तरह काव्य में अपना प्रत्यक्ष अनुभव लिखा है, जिसकी उससे वे रचनाएँ और भी महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं। The Corsair,The Bride of Abydos, The siege of the Corinth आदि रचनाएँ उसके भ्रमण के ही कारण पहित्य को मिलीं। लीला, जुलेखा आदि उसकी प्रधान पात्रियाँ हैं। नैपोलियन की उसने तैमूर से तुलना की। और भी बहुत कुछ उसने लिखा। उनीसन ने भी पूर्व पर काव्य लिखे। टेनीसन फारस के सौन्दर्य पर मुग्ध था। परन्तु फिर भी पूर्व पर टेनीसन की बहुत श्रद्धा न थी।

कुछ हो, व्यापक साहित्य की इस प्रकार सृष्टि हुई। गद्य की बातें नहीं लिखी गयीं। यह सब पूर्व के लिए इंगलैण्ड का पद्य-प्रवाह है। पर हमारे साहित्य में क्या हो रहा है-यह भारतीय है, यह अभारतीय, असंस्कृत ! धन्य है, हे संस्कृति के बच्चो ! -नस-नस में शरारत भरी, हजार वर्ष से सलाम ठोंकते-ठोंकते नाक में दम हो गया, अभी संस्कृति लिये फिरते हैं।

सबसे बड़ी आफत ढहा रहे हैं कुछ साहित्यिक सुधारपन्थी, जो स्वयं तो कुछ लिख नहीं सकते, दूसरों की कृति पर हमला करके महालेखक बन जाना चाहते हैं। सुधार और प्रोपोगेंडा से साहित्य मंजिलों दूर है। प्रसादजी की जैसी समालोचना निकली है, जैसा दोष भाषा-क्लिष्टता का बनारसीदासजी ने उन पर लगाया है, वह यदि वास्तव में मनुष्योचित शौर्य तथा पर्यवेक्षण के साथ आलोचनाएँ करते हैं तो मैं उनसे कहूँगा, आप डी. एल. राय के ऐतिहासिक नाटकों को पढ़िए, फिर देखिए, नव साल की बच्ची और दो रुपिट्टी का नौकर गज-गज-भर के समस्त पद बोलते हैं या नहीं, और यह देखकर यदि अभी तक आप आँख मूँदकर ही राय महोदय के पीछे-पीछे चलते आये हों, एक वैसा ही नोट जैसा प्रसादजी की भाषा के सम्बन्ध में लिखा है, उसी लहजे में लिखकर 'माडर्न रिव्यू' में छपवा दें, तो मैं आपकी इस आलोचना को आपकी मर्यादा के योग्य समझूँगा। अवश्य यहाँ प्रत्यालोचना की जगह नहीं। समय मिला तो अन्यत्र लिखूँगा। आलोचकों ने, वरदान से प्रसादजी को शाप ही अधिक दिया है, जो एक बहुत बड़े साहित्यिक अन्याय में दाखिल है। आलोचकों ने अपने को जितना बड़ा समझदार समझ लिया है, यदि कुछ हद तक प्रसादजी को भी उसी कोटि में रखते, तो इतनी बड़ी त्रुटि न होती।

साहित्य में अनेक दृष्टियों का एक साथ रहना आवश्यक है, नहीं तो दिग्भ्रम होने का डर है। इसीलिए मैंने तमाम भावों की एक साथ पूजा करने का समर्थन किया। हिन्दी के साहित्यकों का अन्याय सीमा को पार कर जाता है। उन्हें अपनी सूझ के सामने दूसरे सूझते ही नहीं। हमें उनकी आँख में उँगली कर-करके समझाना है, और बहुत शीघ्र वैसे संकीर्ण विचारवालों को साहित्य के उत्तरदायी पद से हटाकर अलग कर देना है। तभी साहित्य का नवीन पौधा प्रकाश की ओर बढ़ सकेगा। हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं। राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप से सजाना और अलंकृत करना है।

माधुरी

वर्ष 9, खण्ड 1, सं.4

कार्तिक सं. 1987, दिसम्बर, 1930

हिन्दी कविता-साहित्य की प्रगति

अज्ञात अनादि काल से लेकर आज तक समय के परिवर्तन के साथ-ही-साथ हमारे भाषा-साहित्य का भी परिवर्तन होता गया है। जैसे साहित्य भी सृष्टि की नश्वरता के नियमों में बँधा हो- 'नवीनं गृहणाति' के अनुकूल चल रहा हो। जो सूक्ष्माति-सूक्ष्म कारण युग-धर्म के रूप से, साहित्य में इस प्रकार के परिवर्तन करते आये हैं, इस लेख में, उन पर विचार न किया जायेगा। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सुयोग्य सभापतियों द्वारा इस विषय पर बहुत कुछ विचार हो चुका है। कम-से-कम सन्तोष करने के लिए, कुछ अपभ्रष्ट शब्दों की सूची तो तैयार हो ही चुकी है। समय के प्रवाह में जिन अनेक शब्दों को पढ़ना पड़ा, लोक रुचि से घिसा हुआ एक परिवर्तित स्वरूप धारण करना पड़ा, प्रसंगवश, हम उन्हें ही ग्रहण करते हैं, और कहना चाहते हैं कि इतने प्रवर्तन के होने पर भी उनकी आत्मा में विकार नहीं हो पाया-उन अपभ्रष्ट शब्दों में अधिकांश शब्द ऐसे हैं, जिनके अर्थ में किसी प्रकार की विकृति नहीं हुई। इस तरह हम देखते हैं, वैदिक साहित्य की जो निर्मल आत्मा थी, अनादि काल से आते हुए प्रवर्तनों के प्रतिघातों से जाग्रत, सुप्त और मूर्च्छित, हमारे भाषा-साहित्य के वर्तमान क्रम हिन्दी में भी वही आत्मा मौजूद है। हम यहाँ उन शब्दों पर भी विचार नहीं करना चाहते, जिनकी आमदनी दूसरे भाषा-साहित्यों से हुई है। किन्तु यहाँ इतना कह देना अप्रासंगिक न होगा कि सूक्ष्म विचार करनेवाले वैदिक पण्डितों के प्रमाण से दूसरे भाषा-साहित्य की सृष्टि और पुष्टि वैदिक शब्द-राशि के विकृत रूपों से ही हुई है। किस तरह इधर आर्य भाषा में अनार्य भाव आये; इतिहास, विज्ञान, 'हाँ-न' वाली सृष्टि की विरोधी युक्तियाँ आदि इसकी प्रमाण हैं। हम इस उलझन में भी नहीं पड़ना चाहते। हम केवल देखेंगे कि भारतीयता क्या है-जो आज जातीयता के रूप में, एक विचित्र शिरश्चरण-विहीन छाया की तरह दृष्टिगोचर हो रही है - और हमारा वर्तमान कविता-साहित्य हमारी भारतीयता या वर्तमान जातीयता की ओर कहाँ तक अग्रसर है।

भारतीयता या जातीयता के प्रश्न पर विचार करने के समय जब ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड में विभाजित भारतवर्ष की अनुभूतियों और आचरणों की ओर हम देखते हैं तो हमें विश्वास हो जाता है-विश्वास ही नहीं, हमें सन्तोषप्रद प्रमाण भी मिल जाते हैं-कि हमारी ज्ञानभूमि की व्याख्या है 'पूर्णता', यदि एक शब्द में कही जाय, और हमारे तमाम प्राचरणों का सम्बन्ध उसी पूर्णता के साथ रक्खा गया है। 'समाज' की सम्यक् गतिशील रहनेवाली 'अज्' धातु इसका प्रमाण है। यह गति पूर्णता की ही ओर गयी है। हम यह नहीं कहते कि आदिम सृष्टि-काल में अनार्यता थी ही नहीं, जड़ था ही नहीं; अनार्यता थी, असत् का आश्रय जरूर था, परन्तु बहुत कम था। यह असत् उतना ही था, जितना छाया का अंश पेड़ के नीचे, और सत् उतना, जितना प्रकाश का अंश उसके ऊपर। बल्कि कहना चाहिए, सत् को सिद्ध करने के लिए ही हमारे जातीय शरीर में थोड़ा-सा असत् का अंश आया था। आज तक जितने आचरण बदले, कर्मकाण्ड में जो भेदातिभेद होते गये, वे ज्ञानकाण्ड की पुष्टि के लिए, ज्ञान भूमि पर स्थापित होने के लिए ही हुए।

उदाहरणार्थ ब्रजभाषा-साहित्य को लीजिए। कबीर उसके वेदान्त साहित्य के रचयिता, तुलसी उसके ज्ञान मिश्रित भक्ति-साहित्य के प्रणेता, सूर उसके अलौकिक प्रेम के प्रदर्शक और अन्यान्य भक्त-कवि उसके दिव्य भावों को पुष्ट करनेवाले, समाज के शिरोमणि, जाति के यथार्थ नेता होंगे। भूषण आदि ब्रजभाषा के ओज द्वारा उसकी शिथिल शिराओं में जातीयता का प्रवाह संचालित करनेवाले होंगे। मतिराम, बिहारी, पद्माकर, देव आदि उसके गृह-शरीर की वासनाओं को रूप देनेवाले, गृहस्थों के मनोविनोद की सृष्टि करनेवाले होंगे। इस तरह ब्रजभाषा की मूर्ति हमारे सामने आ जाती है-जातीय प्रगति का उज्ज्वल चित्र हमारे सामने आ जाता है। हम समझ लेते हैं, वेदान्त की सर्वव्यापक चेतन भूमि में विचरण करना ही हमारी मुक्ति है, साहित्य में-

सूर परकास तहँ रैन कहँ पाइये

रैन परकास नहिं सूर भासै

होय अज्ञान तहँ ज्ञान कहँ पाइये

होय जहाँ ज्ञान अज्ञान नासै।

-कबीर

जानिय तबहिं जीव जग जागा;

जब सब विषय-बिलास विरागा।

होय विवेक मोह भ्रम भागा;

तब दृढ़-चरण-कमल अनुरागा।

-तुलसी

यही भाव हमारी जातीय मुक्ति के सूत्र, हमें लोकोत्तरानन्द देनेवाले, हमारी जाति की आत्मा, हमारी बुद्धि में सर्वोत्तम संस्कृत, हमें मनुष्य से देवता और देवता से ब्रह्म कर देनेवाले हैं।

भारतवर्ष की किसी भी प्रान्तीय भाषा को लीजिए, उसके सम्पूर्ण शरीर का ऐसा ही संगठन होगा। उसमें दिव्य भाव और मानव भावों की ही अधिकता होगी। आसुर भाव बहुत कम होंगे। और, उस भाषा का परिवर्तन भी आसुर भावों के बाद ही हुआ होगा, जैसे उस भाषा-शरीर को नष्ट करने के लिए ही आसुर भावों या इतर प्रवृत्तियों का दौर-दौरा साहित्य में हुआ हो।

जब हम अपने साहित्य के सुधार की चेष्टा करते हुए अपनी बनी बनायी आँखों को रोग-ग्रस्त सोचते हैं, उन पर एक दूसरे देश के सुधार का चश्मा रख लेते हैं, उस समय हम भूलते हैं। वर्तमान शासन के 'प्रभाव' का दोष भी हमारी शिक्षा के साथ सम्मिलित होकर हमें अपनी ओर खींचता है। हमें अपनी शक्ति से वशीभूत कर लेता है। हमारी आत्मा, हमारे अज्ञात भाव से, हमारी नहीं रहती, उनकी हो जाती है। हम साहित्यिक पराधीनता स्वीकार कर लेते हैं।

भारतीय या जातीय, इन भावों को सामने रखकर हम देखेंगे, हमारी जातीय मुक्ति की ओर हमारा वर्तमान कविता-साहित्य कहाँ तक अग्रसर है।

चाहे जिन कारणों से हो, 'भगवान व्यास तुमको प्रणाम' की गहन श्रद्धा से कविता में खड़ी बोली की गिटकरियाँ और तान-मूर्च्छनाएँ भरी जाने लगीं। उधर ब्रजभाषा के भक्तों ने सम्बद्ध होकर रण-घोषणा की। किसके चीत्कार में लालित्य मिलता है, इसकी जाँच चलने लगी। उस समय खड़ी बोली की कविता में प्राण न थे। वह दास्य-वृत्तिवाली ही थी। किसी-न-किसी महापुरुष के पैरों पड़ती रही। अपनी प्रार्थना से लोगों को अपनी ओर बढ़ाती रही। कुछ कवि अपने पूर्व संस्कारों को जाग्रत कर खड़ी बोली की शिला पर अपने पुराने जंग लगे महास्त्रों को घिसकर शानदार करने की चेष्टा में रहे। कुछ ने सीताराम और कृष्ण भगवान की पुरानी तान छेड़ी। साहित्य के उस काल की पूजा वैसी ही रही, जिसके सम्बन्ध में कहा है-... 'अनख आलस हूँ, राम जपत मंगल दिसि दसहू।" महर्षि दयानन्द की वैदिक प्रतिष्ठा के कायल, अपनी जाग्रत प्रतिभा के ज्वर से जर्जर, निन्दोक्तियों द्वारा समाज को प्रबुद्ध करनेवाले कवि भी हुए, और सबसे अधिक खड़ी बोली को मधुर करने का श्रेय रहा राष्ट्र के उष्ट्र-मार्क कवियों को, जिनकी प्रतिभा के प्रखर प्रवाह से शब्दों के गले में 'त्राहिमाम' करने की शक्ति भी न रही।

खड़ी बोली के प्रथम कवियों में आर्य भावना पर सफलता पण्डित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय को हुई। इनकी 'आर्यबाला' शायद इनकी इधर की, ५० वर्ष के अन्दर की, रचना है, पर है अत्यन्त सुन्दर-

कलमा-लौं सब काल लोक-लालन-पालन-रत;

गिरि-नन्दिनी-समान पूत पति-प्रेम-भार-नत।

गौरव गरिमामयी ज्ञान शालिनी गिरा-सम;

काम-कामिनी-तुल्य मृदुलतावती मनोरम।

वह है पति-मन-मधुप के लिए लतिका कुसुमित;

वह है सुन्दर सरिस सरोजिनी सम्मति के हित।

वह है मन-मोहन-मुरलिका-मधुर-मुखी, मृदु-नादिनी;

पुरजन - परिजन - परिवारजन - गोप-समूह-प्रसादिनी।

पा जिनका विज्ञान बनी अति पावन अवनी;

उन ऋषि-गौतम-कपिल-व्यास की है वह जननी।

नर है पीवर, धीर, वीर, संयत श्रमकारी;

है मृदुतन, उपराममयी, तरलित-उर नारी।

नर जीवन है विपुल कार्यमय प्रान्तर न्यारा;

नाना-सेवा-निलय नारिता है सरि-धारा।

मस्तिष्क मान-साहस-सदन वीर्यवान है पुरुष-दल;

है सहृदयता-ममतावती पयोमयी महिला-सकल।

उपाध्यायजी उस काल के एक ऐसे रत्न हैं, जिन्हें दिव्य भावना की उपासना का श्रेय दिया जा सकता है। इनके चौपदों की सजीवता और भाषा के ऐश्वर्य से हिन्दी को मौलिक बहुत कुछ मिला।

शंकरजी की वेदान्त की कुछ कविताएँ मैंने देखी हैं। अन्य भावों की भी अनेक कविताएँ मैंने देखी हैं। इनकी तरह वर्णवृत्तों और मात्रिक छन्दों का कुशल कवि हिन्दी में हुआ ही नहीं। मुझे इनकी वर्णन-शक्ति से छन्दोधिकार जबरदस्त जान पड़ता है। हिन्दी के एक प्रसिद्ध समालोचक ने इनके सम्बन्ध में कभी लिखा था कि इनके उग्र शब्द जैसे अपनी उग्रता सहन न कर सकते हो। 'ढकेलू ढंग ढाँपने को' इस तरह शब्दों के गढ़ने की ओर इनकी रुचि तो मिलती है, परन्तु सफलता के विचार से हमें कहना पड़ता है, इनके शब्द-संगठन में कवि के हृदय की रसप्रियता का परिचय नहीं मिलता। इनके शब्द इन्हीं के साहित्य तक परिमित रहे। प्रतिभा में रस-ग्राहिता कम रहने के कारण लोगों पर केवल प्रतिभा का प्रभाव ही पड़ा। वे इनके शब्दों के रूपों को अपना कर लेने का साहस नहीं कर सके।

खड़ी बोली का साँचा दुरुस्त हुआ बाबू मैथिलीशरणजी गुप्त की कवितायों से। गुप्तजी की कविताओं में खड़ी बोली के मार्जन के साथ-ही-साथ सती भावना की एक निर्मल ज्योति भी मिलती है। कवि की भावुकता हृदय को बहुत कुछ शान्त करने की शक्ति लेकर प्रकट हुई-

चुन ले चला हमारा साथी सुमन कहाँ तू ?-

माली कठोर माली!

है छोड़ता यहाँ पर केवल कराल कंटक,

यह रीति है निराली !

किसको सजायगा रे हमको उजाड़कर यों,

यह तो हमें बता तू;

झंखाड़ छोड़ता है इस वन्य झाड़ पर क्यों,

हत देख यह लता तू!

मृदु, मन्द-मन्द गति से शीतल समीर आकर

दल-द्वार खटखटाता;

पर सन्न हो विरति से जाता उसे न पाकर

निर्गन्ध लटपटाता।

वह फूल, जो मधुर फल समयानुकूल लाता,

तू सोच देख मन में;

भगवान के लिए क्या वह भोग में न आता,

बलि हो स्वयं भुवन में।

गुप्तजी की इन पंक्तियों में सहृदयता का स्रोत उमड़ रहा है। कोई पंक्ति ऐसी नहीं, जिससे भावुकता न टपकती हो, और जिसे पढ़कर पाठक सुखानुभव न करें।

गुप्तजी के साथ अनेक कवि हैं। परन्तु उन सबमें गुप्तजी की ही कविताओं में आकर्षण की शक्ति विशेष रूप से दीख पड़ती है; एक सनेहीजी को छोड़कर। सहृदयता की मात्रा गुप्तजी की कविताओं से सनेहीजी की कविताओं में अधिक मिलती है। गुप्तजी संस्कृत के शुद्ध प्रयोगों के पक्ष में रहते हैं, सनेहीजी खिचड़ी शैली के पक्ष में; इतना ही अन्तर इनमें मिलता है। सनेहीजी की कविताएँ खिचड़ी शैली में होने के कारण स्वाभाविकता से विशेष सम्बन्ध रखकर चलती हैं। गुप्तजी की कविताएँ भाषा की एक नीति के आधार पर लिखी गयी-सी जान पड़ती हैं, परन्तु सनेहीजी की कृतियाँ नीति से रहित अथवा खिचड़ी शैली ही उनकी भाषा की नीति-भूमि रही, यह कहना पड़ता है। हिन्दी के, अपने समय के, ये दोनों ही कवि महान हैं। इनसे हिन्दी को बहुत कुछ मिला। सनेहीजी-

उदासी घोर निसि में छा रही थी;

पवन भी काँपती थर्रा रही थी।

विकल थी जाह्नवी की वारि धारा;

पटककर सिर गिराती थी कगारा।

घटा घनघोर नभ में घिर रही थी;

बिलखती चंचला भी फिर रही थी।

न थे वे बूँद, आँसू गिर रहे थे;

कलेजे बादलों के चिर रहे थे।

कहीं धक-धक चिताएँ जल रही थीं;

धुआँ मुँह से उगल बेकल रही थीं।

कहीं शव अधजला कोई पड़ा था;

निठुरता काल की दिखला रहा था,

खड़ी शैव्या वहीं पर रो रही थी;

फटी दो-टूक छाती हो रही थी।

प्रकृति में दुख का कितना सुन्दर चित्र है। बादलों से आँसुओं का झरना, रात्रि की स्याही में उदासी, पवन की भीरुता, कम्पन, जाह्नवी की जलधारा में विकलता।

जगत यह दुःख सुखमय है अगर यह हम समझते हैं,

समझिए तो कि इनका भेद ही हम कम समझते हैं।

समझवाले इसे बस, एक मन का भ्रम समझते हैं;

बुरा क्या वे समझते हैं, बहुत उत्तम समझते हैं।

वही सलिला सरस जिसमें हमारी सैर होती है;

महा निर्भय-हृदय बनके भरी नौका डुबोती है।

मनस्वी वीर अपने चिन्न पर अधिकार रखते हैं;

न दुख की भीति रखते हैं, न सुख का प्यार रखते हैं।

स्ववश निज इन्द्रियाँ ही क्या, सकल संसार रखते हैं;

इसी से दीन का उपकार, निज-उद्धार रखते हैं।

सनेहीजी की रचनाओं में पाठक देखें, किस खूबी से रसों और भावों का स्फुरण हुआ है।

पण्डित रामचरित उपाध्याय की भी कोई-कोई रचना सजीव हो गयी है। इधर कुछ दिनों से राजनीति और साहित्य के मिश्रण पर लिखते रहने के कारण अब यह कवियो की पंक्ति से उठकर उपदेशकों के स्वर में स्वर मिला रहे हैं। कवि की सहृदयता पर डिपुटी उपटसिंह का प्रभाव पड़ा है। इनकी-

लड़ नहीं सकता मुझसे कभी,

तनिक भी नृप-बालक स्वप्न में;

कब, कहाँ, कह तो, किसने लखा,

कपि, लवा-रण वारण से भला?

इस तरह की ललित रचनाएँ बहुत थोड़ी हैं। परन्तु हिन्दी के कविता-साहित्य में इन्होंने भी अपना एक सरल निराला ढंग रखा और उसकी श्रीवृद्धि की।

पं. रामनरेशजी त्रिपाठी, पं. रूपनारायणजी पाण्डेय, श्रीयुत् गोपालशरण सिंह, पं. लोचनप्रसादजी पाण्डेय आदि कवियों की कोई-कोई रचनाएँ उच्चकोटि की, हिन्दी की स्थायी सम्पत्ति; नारिकेल के फल की तरह अन्तःसलिल-सिक्त और मधुर हुई हैं। विस्तार-भय से उनके उदा हरण नहीं दिये जा सके। यहाँ तक हिन्दी के कवियों का यह जो प्रवाह रहा, इसमें दिव्य भावों के दीपक तो अनेक छोड़े गये, परन्तु वे जलते हुए जाति के जीवन-समुद्र तक नहीं जा सके। घृत का अभाव था। कवियों की प्रात्माएँ प्रभात के शिशिर-स्नात फूलों की तरह प्रसन्न होकर खिल नहीं सकी-भाषा की नवीन तन्त्रियों में झंकृत कोई जागृति की प्रभाती नहीं सुनायी पड़ी। अभाव की वेदना से पीड़ित करुणा की क्षीण रागिनी उठकर सन्ध्या के अन्ध वातावरण में विलीन होती रही। कुछ लोगों ने अपने गौरव के गीत भी गाये; परन्तु उस समय के प्राकृतिक अभाव को वे दबा नहीं सके, उनके स्वर से ऐश्वर्य की उज्ज्वल किरणों ने स्वर नहीं मिलाया। लोगों की दिव्य भावनाओं को उनकी कविताओं से एक प्रकार से प्रोत्साहन मात्र मिला। उस ऐश्वर्य की ध्वनि में 'क्या खाया ?' प्रश्न के 'चने की रोटियाँ और बैंगन का खुश्क कबाब'-जैसे उत्तर की तरह; स्पर्धा और कर्कशता ही रही, प्राणों की प्रसन्न पूर्णता नहीं। पं. रामनरेशजी त्रिपाठी ने खड़ी बोली की कविता का जो दूसरा युग स्वीकार किया है, यह वही है। इसमें सहृदयता कम और शक्ति का विकास अधिक मिलता है। गरियार बैल से हल चलवाने की चेष्टा की तरह ही खड़ी बोली के शब्दों से कविता की जमीन पर संसरण का गुरु कार्य कराया गया है।

शब्दों के अपभ्रष्ट रूपों में भी जिस तरह उनकी आत्मा की प्रथम ज्योति मिलती है, जिस तरह वैदिक संस्कृत से अवतीर्ण, भारतवर्ष की दूसरी भाषाएँ, वैदिक और संस्कृत की मुक्ति की तरह, अपने कर्मकाण्ड द्वारा अपनी ज्ञान राशि का प्रकाश विकीर्ण करती हुई, अबाध मुक्ति की ओर अग्रसर होती गयी हैं, और तब तक अभीप्सित विराम के आसन पर रहीं, जब तक उनके साहित्य-शरीर को जीर्णता ने ग्रस्त नहीं कर लिया, उसी तरह खड़ी बोली की प्रगति भी उसी मुक्ति की ओर होती जा रही है। यह मुक्ति इसे दिव्य भावना के बल से प्राप्त होगी। भारतवर्ष की जलवायु इसी के अनुकूल है। जड़ परमाणुओं के आघात-प्रतिघातों से, कविता में जड़त्व के प्रचार से, न भाषा की मुक्ति होगी, न उससे सम्बद्ध, इस जाति की ही मुक्ति हो सकती है। यदि देश का अर्थ मिट्टी है, यदि विश्व के माने मिट्टी का एक वृहत् पिण्ड है, यदि देश के उद्धार से मिट्टी के उद्धार का अर्थ सिद्ध होता है, यदि विश्व-मैत्री का सिद्धान्त जड़ शरीर से प्रेम करने की शिक्षा है और यदि आजकल के कवि इन्हीं भावनाओं की पुष्टि करेंगे, तो निस्सन्देह इससे भाषा के साथ भाषा के बोलनेवालों की मुक्ति असम्भव होगी। इस जाति के प्राण जड़ से नहीं, चेतन से मिले हुए हैं। यहाँ का कोई सुधार यूरोप की तरह प्रतिघात के बल से नहीं हुआ। कहा जा चुका है-यहाँ का कर्मकाण्ड दिव्य भावों से सम्बन्ध रखने वाला, चेतन की ओर ले चलनेवाला रहा है और इस समय भी है, चाहे कोई कविता लिखने का कर्म करे या सम्पादन का, या कुछ और ! राजनीति की दृष्टि से हमारा यह पतन हमीं से हुआ। हमारे इतर कर्मों के कारण, हमारी दिव्य भावना के अभाव से, हमारे जड़ाश्रय दुर्गुणों के प्रभाव से। हमी ने कमजोर होकर अपने शासन के लिए दूसरों को आमन्त्रित किया, और तब तक दूसरे हमारे शासक रहेंगे, जब तक हम अपनी जातीय प्रतिष्ठा, जातीय मुक्ति, दिव्य भावना के अनेकानेक महास्त्रों से प्राप्त न कर सकेंगे।

जिस तरह बाह्य भूमि में इस प्रकार के शासक और शासित रहते हैं, उसी तरह साहित्य की भूमि में भी रहते हैं। कारण, साहित्य किसी जाति का ही साहित्य हुआ करता है और यदि वह किसी दुर्बल जाति का हुआ तो दूसरी सबल जाति का उस पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक हो जाता है। हमारी पराधीन हिन्दी पर पराधीनता के ही कारण फ़ारसी का प्रभाव पड़ा, अंग्रेजी का पड़ रहा है, और आश्चर्य है, उसकी प्रान्तीय सहेलियाँ बंगला-मराठी आदि भी उस पर रोब गाँठ रही हैं। ब्रजभाषा-हिन्दी के समय फ़ारसी-को छोड़ कर दूसरी किसी भी प्रान्तीय भाषा को उस पर प्रभाव छोड़ने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ; बल्कि बंगला-जैसी प्रान्तीय भाषाओं पर उसी का प्रभाव पड़ता है। दूसरी भाषाओं से रत्नों को अवश्य ग्रहण करना चाहिए; परन्तु प्रभावित होकर नही-प्रीत होकर।

हिन्दी के उस युग की सृष्टि में, कहा जा चुका है, सहृदयता की मात्रा बहुत अधिक न थी। 'भाषा की प्रथम अवस्था में जितना हुआ, बहुत हुआ' के विचार से सन्तोष करने के लिए यह बहुत है।

सुधा

वर्ष 1, खण्ड 2, संख्या 2,

सं. 1984 वि., 2 मार्च 1928

हिन्दी के आदि प्रवर्तक

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

(एक लघु संस्मरण)

हिन्दी के आदि प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी पर यह अंक निकालने के लिए 'संगम' के सम्पादक तथा अधिकारी वर्ग को बधाई। भारतेन्दु का व्यक्तित्व ग्राहिका शक्ति से ओत-प्रोत है, साथ ही सरल और सुबोध। उसी तरह पद्य भी ऊँचे अंग से भरा पड़ा है।

उनके बारे में कही हुई एक उक्ति याद आयी। फारिग होकर कुएं की जगत पर बैठे थे। साथी नौकर पानी भर रहा था। चाँदी के गिलास में डालकर हाथ धोने और कुल्ली करने के लिए दे रहा था कि उनकी नजर आते हुए दो व्यक्तियों पर पड़ी; एक उस्ताद, दूसरा शागिर्द। उस्ताद कहता जा रहा था-'पाती है बाग से कुछ बूए कबाब।' कई दफे उसने प्रावृति की मगर दूसरी पंक्ति न उठी। अब तक भारतेन्दुजी हाथ मटिया-कर धो चुके थे। कुल्ले कर रहे थे। उस्ताद और शागिर्द बगल से जाते हुए रास्ते के पास आ पहुँचे। भारतेन्दु ने उस्ताद को दुहराते-तिहराते हुए सुना-

"आती है बाग से कुछ बूए कबाब।"

प्रतिभाशाली कवि ने छुटते ही जवाब दिया-

"किसी बुलबुल का दिल जला होगा।"

उस्ताद ने विस्मय से देखा, खड़ा हो गया। सुन्दर युवा को देखकर मुग्ध हुआ। भारतेन्दु उतरे। अपने भवन ले जाकर दोनों की आवभगत की और एक अच्छी रकम देकर विदा किया।

संगम

17 सितम्बर, सन् 1950

कवि अंचल

जैसे आधुनिक लड़ाई के अस्त्र बने, अंग्रेजी के रोमण्टिक युग के बाद से अब तक कविता के स्वरूप में अनेक परिवर्तन हुए, इसी तरह खड़ी बोली के काव्य में। पूरी गाथा के लिए एक छोटे निबन्ध में जगह नहीं। छायावाद युग की परिणति के साथ देश में राजनैतिक और सामाजिक चेतना ने पल्टा लिया। काव्य पर नया रंग चढ़ा। सभी प्रान्तीय साहित्य का स्वर बदला। नयी चीज़ अपने समय में लोगों को कम पसन्द आयी। बंगाल में रवीन्द्रनाथ और शरच्चन्द्र के रहते पोस्टवार और समाजवादी साहित्य का प्रवर्तन हुआ और विरोध के होते हुए वह तरुणों में प्रसार पाता रहा। इसके लम्बे विवेचन की आवश्यकता नहीं। संसार के साहित्य की छाया सभी साहित्यों पर पड़ती है। हमारी भी पड़ती होती, मगर पराधीनता घातक है, फिर भी कुछ आदान रहता है।

हमारे राजनीति के विद्वान कवियों ने देखा, देश में जैसे रहने की जगह नहीं, तरह-तरह के वाद-जैसे साम्राज्यवाद, पूँजीवाद आदि समाज को निगले जा रहे हैं, सुख के तराने सूखे जा रहे हैं; भजन व्यर्थ है, भोजन नहीं मिलता; मिहनत करने पर भी पेट नहीं भरता, विपन्नता बढ़ती जा रही है, भाषा में बड़ा शृंगार है, शृंगार करवट बदलना चाहता है; ललकार दूसरी ऐंठ लाना चाहती है; कवियों ने ठाट बदला। अंचल उनमें प्रमुख हैं। काम लगन से किया। अच्छा किया। विचार आज की सामाजिकता है। विद्वान अंचल इसके लिए भी अचंचल नहीं। उनकी मुखालफत होती है, बुद्धदेव की हुई, राशिद की हुई। काम जारी है। तीखी ललकार से अंचल ने कहा-

आज तो संघर्ष को मैं प्यार करता।

आज मैं विद्रोह की हुंकार भरता।

हो रहा प्रतिपल सजग,

पीड़ित न अब यह वक्ष होता।

अब न मैं चीत्कार सुनकर,

शून्य गृह में बैठ रोता।

चाल अरबी घोड़े की है, तलवार तेज़ चलने के लिए छोटे खाँढे में आ गयी है। प्रगतिशील अंचल की गति बहुत तेज़ है, शब्दों से फँसती-फँसाती नहीं-

बढ़ते आते,

हम देखो बढ़ते ही पाते।

पहचान सकोगे तुम कैसे,

हम महा शक्ति के विश्वासी।

हम घिसी व्यवस्था के दुश्मन,

हम नूतन जग के विन्यासी।

'हाल का हासिर जीबने कि एल फसलेर हाल ?'

विष्णु दे की सीधी रचनाओं-सी भी गौरव की सृष्टि अंचल में नहीं, वह लहराता और उड़ जाता है, जैसे बढ़कर बढ़ा लेता हो-

मग की पाषाणी बाधाएँ

चट्टानें पारद-सी गलतीं।

जब हम बनजारों की टोली,

जय के उपकरणों-सी चलती।

अंचल समर सेन की तरह आधुनिक हैं। एक ही उम्र प्रायः।

'मड़केर कलरोल, नूतन शिशुर कान्ना,

चिर काल बेला भूमिर, समुद्रे शेषहीन संगम।'

समर सेन की तरह अंचल का भी-

आज खुले कुंतल लेकर ही,

चलो प्रलय के गीत कहें।

चलो विपथगा के प्यासे,

हम महाकाल की आँच सहें।

बहुत सुन्दर है। समालोचक प्रोफेसर नन्ददुलारे बाजपेई को-छायावादी कवियों के पीछे, जैसे अंचल के पीछे-पाँच सहनी पड़ी।

राशिद की तरह-

'खारे युगीलाँ ही सही,

दोस्त से दस्तो गरेबाँ ही सही !

यह भी कुछ शबनम नहीं,

पीला नहीं, रेशम नहीं।'

या विष्णु दे की तरह-

'चोरा बालि डाकि दूरदिगन्ते,

कोथाय: पुरुषकार ?'

भाषा का लदाव अंचल ने छोड़ दिया है। स्वच्छ झरना है, उज्ज्वल, तेज। जैसे उधर जो गहरी है, इधर वह गतिशील।

शृंगार भी अंचल का ऐसा ही है-

ये जग-शतदल का सुकुमारी,

कलियाँ सोयीं प्यारी-प्यारी।

किरण शंकर का जैसा-

उतरोल निबिड रजनी।

खोलो रक्त लाज-आवरण

लज्जा-अपमान-शंका छाड़ो।

हे ललिता, फिराओ नयन।

क्लीफोर्ड डाइमेण्ट की भाषा-

'I cut quick circles with the stick;

A whistles in the April air

An eager song, a bugle call,

A signal for the running feet,

For rising flyes flashing sun,

And windy tree with singing crest.'

अंचल-

सुनकर निशि में सोता कोई, उठता चौंक प्रतीत किसी का।

वह व्याकुल संगीत किसी का जैसे पास दौड़ता पाता।

व्याकुल तीव्र तृषा उकसाता और शून्य का पथ भर पाता।

होता मन अपुनीत किसी का।

तोल की विषमता जाने दें। क्या तोड़ है अंचल में ? सीधा पकड़ना। हिन्दी को अंग्रेजी के मुकाबले रखा है।

अंचल की कविता में भी रोमांस है मगर आधुनिक ढंग का। सामाजिक चेतना संसार के भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से आयी है, पर पूँजीवाद और रूढ़िवाद के खिलाफ सभी हैं, अंचल की रचना में भी यह है। जो लोग प्रसाद, पन्त, महादेवी की भाषा की नाप लेकर अंचल आदि आधुनिक कवियों की जाँच करेंगे, वे धोखा खायेंगे, क्योंकि उनका हिसाब दूसरा है। बंगला के बड़े-बड़े आलोचक रवीन्द्रनाथ की कविता की छाँह में साँस लेकर आधुनिक कवियों की ऐक मुद्दत से उपेक्षा कर रहे हैं। फिर भी साहित्य गतिशील है। तरुण बड़ों की ऐसी आलोचना की ओर ध्यान नहीं देते। यह भी है कि पुराना नये का साथ नहीं कर सकता। उसकी तैयार हुई रुचि पुराने ढर्रे को लिये हुए बढ़ नहीं पाती। जाँच अधूरी होती है। कुछ कहते हैं, यह वाद कामयाब न होगा। पर वे भूल जाते हैं कि वाद के रूप में अधिक दिन तक साहित्य में कुछ भी नहीं रहा। महाकाव्य लिखने की धारा बहुत पहले से साहित्य के नये प्रगमनों में मन्द होकर लुप्त हो चुकी है, परन्तु प्रायः लोग पूछते हैं, आपने महाकाव्य लिखा ? हम गहरे नहीं पैठते।

देशभक्ति को लीजिए; पहले देश के नाम से उद्बोधन होता था, प्रोत्साहन चलता था; लोग उससे जीवन पाते थे; अब साहित्यिक उसको थोड़ा समझते हैं; वे वाद के नाम से जो कुछ लिखते हैं, वही देशभक्ति है, देश को उन्हीं की आवश्यकता है। अंचल में ऐसी देशभक्ति भरी है-

भूखे थे भूचाल युगों के

भूखे थे तूफान भयंकर

सर्वनाश की यह तसवीरें

जो भूखी अकुलातीं घर-घर।

ऐसा कवि, राजनीति या गांधीवाद छोड़ गया है। उसके मूल सिद्धान्तों की जैसी इसकी भाषा नहीं। भाव में तीखी चोट है। समझौता नहीं।

आधुनिकों की भाषा का सुधार भी अंचल में मिलता है। पहले के वाक्यों को सही समझनेवाले, उनके न्याय को स्थायी समझकर सदा के लिए अपनी आत्मा रख देनेवाले, ऐसी भाषा से ऊबेंगे, नाराज होंगे, क्योंकि मन में यह सीधे घर नहीं करती। छायावाद युग में जो रूप भाषा का था, वह बदल चुका है, यह साधारण पाठक को मालूम है जो कालिज हो आया है। बंगला में अंग्रेजी की तरह, ऐसा प्रवर्तन आधुनिक पद्य में और है। हिन्दी और उर्दू में भी आ गया है। हिन्दी ने इधर खासी निर्भीकता की। इसमें अंचल का भी हाथ है-

चिर नपुंसक बन्धनों में, बँध हुआ जीना असम्भव।'

और-

आँसुओं की स्याह महफिल, अब न गीली आँच करती।

भाषा की सफाई और कढ़ाई का एक और उदाहरण-

कुछ न पूछो हृदय के उन्माद की,

कुछ न पूछो गन्ध अन्ध प्रमाद की।

रूप की नव तरुण ज्वाला, जल उठी,

कुछ न पूछो प्रणय मधुर विषाद की।

काव्य के साथ सफाई खूब आयी है। भाषा का ढाँचा नया, बिलकुल आधुनिक-

आज जीवन मृत्युहीन अनन्त है,

आज पापिन वेदना का अन्त है।

किरण मुखर उषा-कदम्ब-पराग से,

हेम-विकसित मद-प्रगल्भ दिगन्त है।

यौवन की मादकता-

चीर दूँगा विश्व के तूफान को,

आज उन्मुख हूँ क्षितिज के पान को

बस न पूछो प्राण, सीमाहीन हूँ,

दलित कर दूँगा गगन के मान को।

इस कवि में गांधीवाद की बू नहीं। वह राजनीति, वह संस्कृति इस ऐसे कवि से छूट गयी है। 'परिमल' देखने पर इनकी वाक्कथा मालूम होगी।

है यही आज तन्मयता, टूट पड़ें सप्तर्षि सिरा से हम,

मानवता के मस्तक पर, जल-जल उठे चन्द्रलेखा-से हम।

डाइलन टामस् ने जैसे लिखा है-

The force that drives the water through the rocks

Drives my red blood.

इसी की जैसे दूसरी रेखा है-

आज फेंक दूँ सब आग्रह, प्रतिदान भँवर ने याद किया।

अंचल ने 'फ्री वर्स' (free verse) सफल लिखा है। पढ़ना भी अच्छा है, मुक्त छन्द का-

देखता हूँ जब मैं

मानव घिनौना और भूखा चला जा रहा।

फीका लाश की तरह, पत्थर

हाँ पत्थर

तब मेरे इस छिन्न-भिन्न टूटे साज से

जीवन का दहकता निकलता है, मारू राग।

कुछ लोग इस तरह की पंक्तियों का मजाक करते हैं। कल एक पत्र आया है। लिखा है, इस सम्मेलन में छिछोरापन और कोसनेवाली वीभत्स रचनाएँ न पढ़ी जावेंगी। जब कभी कम बन पड़ता है फिर भी मैं उपदेश नहीं देता, न किसी की मानता हूँ रूढ़ि की बन्दिश। प्रचार मेरे साहित्य में नहीं। आधुनिक धारा के सम्बन्ध में सुनकर खामोश रहा। पढ़ने से इतर मालूम होता है। वीभत्स सौन्दर्य की दूसरी तरफ है। इसको आधुनिक साहित्य में जगह मिली-

हड्डियों का निचोड़।

पाप की प्रतिमा-कुत्तों से बदतर।

समसामयिक ज्योतिरिन्द्रनाथ मैत्र ने बंगला में लिखा है-

कुष्टर सारि

अन्ध, खञ्ज, बधिरेरा गलागलि-

(कोढ़ की कतार, अन्धे, लँगड़े, बहरे, गले-गले।)

यह जन गीत नहीं, जनता से साहित्यिक सम्पर्क है। गहरी आलोचना की जा सकती है। किताबें दो-तीन युग के साहित्य पर लिखी जा सकती हैं ? आधुनिक युग का दान वैसा ही एसकेप (पलायन) कहा जा सकता है। मगर वैसी ही ऊँची निगाह भी उसकी कही जा सकती है। अंचल का काव्य ऐसा है। बाद की पीढ़ी से मुझको खुशी है।

देशदूत

सितम्बर, 1945 ई.

साहित्य की समतल भूमि

जब कोई एकदेशिक दृष्टि से किसी गम्भीर प्रश्न पर रायजनी करता है तब हृदय को बड़ी कड़ी चोट पहुँचती है। अधिकारी विद्वानों को इतना तो अवश्य ही मालूम होगा कि एकदेशीयता स्वरूपतः संकीर्णता है। उससे कुछ ही लोग, सन्तुष्टि....कर सकेंगे। अतः किसी अधिकारी विद्वान की राय आदर्शतः समष्टिगत लोगों के फायदे के लिए तभी पुरग्रसर हो सकेगी, अन्यथा जिस सीमा के अन्दर वह गूँज रही है, जिस सीमा के अन्दर वह बन्द है, उसी की हद तक के रहनेवालों के लिए वह बड़े काम की हो सकती है। उसके बाहर के रहनेवालों तक न तो उसकी आवाज ही पहुँचती है और न उसकी ओर उनका ध्यान ही जाता है।

सीमा के अन्दर घिरकर बन्द रहना जिस तरह मनुष्यों की प्रकृति है उसी तरह सीमा के संकीर्ण बन्धनों को पार कर जाना भी मनुष्यों की ही प्रकृति है, पहली एकदेशिक है, दूसरी व्यापक। इस बीसवीं सदी में, सभ्यता के विस्तार के साथ मनुष्यों की ज्ञान-लिप्सा भी सीमा-बन्धनों को उत्तरोत्तर पार करती जा रही है, साथ ही प्रत्येक भाषा के ऊँचे अंग के साहित्य का दूसरी भाषा से मिलान करके भाषा-संसार में समता-मैत्री की चेष्टा भी की जा रही है। विद्वानों की यह धारणा है कि इस तरह सुविस्तृत संसार सम्पूर्ण क्षुद्रताओं को लिये हुए भी विभिन्न भाषा भाषियों के लिए वृहत् मित्र-मण्डल हो जायेगा। बड़े-बड़े लोग उसकी क्षुद्रताओं की ओर ध्यान न देंगे-वे जानते हैं कि उन क्षुद्रताओं के भीतर से गुजरकर ही लोगों को असीमता तक पहुँचना है। और चूँकि सदा ही छोटों पर बड़ों का प्रभाव रहा है, इसलिए संसार के प्रबुद्ध मित्र-मण्डल का दबाव वे अवश्य मानेंगे और संसार के वर्तमान अधिकांश संकीर्ण भावों का लोप हो जावेगा। कम-से-कम उनका आतंक न जम सकेगा। अभी उस दिन बम्बई के किसी प्रेस रिपोर्टर के पूछने पर कविवर रवीन्द्रनाथ ने हिन्दू-मुसलमानों के झगड़े का कारण दोनों का अज्ञान बतलाया था। उन्हें आशा है कि शिक्षा-विस्तार दोनों में मैत्री ला सकेगा।

इस लेख में हम यह दिखाने की चेष्टा करेंगे कि साहित्य की समतल भूमि कैसी है और रीति-रिवाजों में हिन्दुओं से सम्पूर्णतः पृथक मुसलमान जाति भी साहित्य और ज्ञान की भूमि में हिन्दुओं के समान ही है।

ज्ञान का शिखर वेदान्त है। विश्वमैत्री इसकी शिक्षा है। पूर्णता इसका प्राण है और हिन्दुओं की शाखाएँ इसके अंग-प्रत्यंग। प्राचीनता का विचार रखकर हमें कहना पड़ता है कि आर्य ऋषियों द्वारा आविष्कृत होने के पश्चात संसार को वेदान्त का प्रकाश मिला है। सम्भव है कि उनके द्वारा इसका प्रचार भी हुआ हो। देशी जादूगरों की तरह मन्त्र छिपाने की आदत अवश्य ही ज्ञानियों में नहीं रहा करती।

उर्दू साहित्य में विश्व साहित्य की समतल भूमि प्रत्यक्ष कीजिए।

नज़ीर लिखते हैं-

कुछ जुल्म नहीं कुछ ज़ोर नहीं,

कुछ दाद नहीं फ़रियाद नहीं।

कुछ कैद नहीं कुछ बन्द नहीं

कुछ जब नहीं आजाद नहीं।

शागिर्द नहीं, उस्ताद नहीं

वीरान नहीं आबाद नहीं।

हैं जितनी बातें दुनियाँ की

सब भूल गये कुछ याद नहीं।

हर आन हँसी हर आन खुशी

हर वक्त-अमीरी है बाबा !

जब आशिक मस्त फकीर हुए।

फिर क्या दिलगीरी है बाबा !

यह आनन्ददायिनी अवस्था है। भावभूमि का पथिक, कवि नज़ीर, इस समय ज्ञानभूमि में है। उसकी एकदेशिकता नष्ट हो गयी है। बाधाओं के बाँध काटकर कल्पना की राह से बहती हुई भाषा-स्रोति-स्विनी आनन्द-सिन्धु से मिल रही है-ज्ञान की असीमता के साथ। इस समय नज़ीर मुसलमान नहीं हैं, इस समय वे मनुष्य भी नहीं हैं, इस समय वे किसी व्याख्या के द्वारा सीमा के अन्दर नहीं आ सकते। उनकी कविता उनकी खुद व्याख्या कर रही है। भारतीय साहित्य में इस भाव की बड़ी प्रबलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-

नहिं राग न रोष न मान मदा। तिनके सम वैभव वा विपदा।

दोनों के भाव में फर्क नहीं। अन्तरंग ध्वनि बिल्कुल मिल रही है।

साहित्य की इस समतल भूमि पर नज़ीर और तुलसीदास पारस्परिक भेद-भाव नहीं रखते। यदि भेद होगा तो इस भूमि में गिर जावेंगे। विश्व साहित्य के लिए यही समतल भूमि कही जा सकती है।

ज्ञान की सर्वोच्च दृष्टि से नज़ीर क्या देखते हैं, देखिए-

दुनियाँ में बादशा है सो है वह भी आदमी

और मुफ्लिसी गदा है सो है वह भी आदमी।

जरदार बेनबा है सो है वह भी आदमी

टुकड़े जो माँगता है सो है वह भी आदमी।

या आदमी ही कहर से लड़ते हैं घूर-चूर

और आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर।

चाकर गुलाम आदमी औ' आदमी मजूर

याँ तक कि आदमी ही उठाते हैं जा जरूर।

यहाँ नज़ीर आदमी के अन्दर एक ही सत्ता देखते हैं जो स्वरूपतः एक है किन्तु अनेक प्रकार के कार्य करती है; जो एक जगह हँसती है और दूसरी जगह रोती है, एक जगह शाहेंशा है दूसरी जगह फकीर। यह दृष्टिपात करने, भेद का सच्चा कारण प्रत्यक्ष करनेवाले में कभी भेद का क्रियात्मक प्रवाह रह नहीं सकता। कबीर भेद पर आक्षेप करते हैं-

हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुर्कन की तुर्काई।

कहें कबीर सुनौ हो साधौ कौन राह ह्वै जाई।

नज़ीर उसकी (हर चीज के इत्र की) पहचान कराते हैं-

तनहा न उसे अपने दिले-तंग में पहचान।

हर बाग में हर दश्त में हर संग में पहचान ॥

बेरंग में बारंग में नैरंग रंग में पहचान।

मंजिल में मुकामात में फरसंग में पहचान ॥

नित रूम में औ हिन्द में औ जंग में पहचान।

हर राह में हर साथ में हर संग में पहचान ॥

हर अज्म इरादे में हर आहंग में पहचान।

हर धूम में हर सुलह में हर जंग में पहचान ॥

हर आन में हर बात में हर ढंग में पहचान।

आशिक है तो दिलवर को हर रंग में पहचान ॥

नज़ीर के हृदय की आँख खुल गयी है। वे शाख-शाख और पत्ती-पत्ती में आत्मा की विभूति देखकर मुग्ध हो रहे हैं और लोगों को दिखाने के लिए वैसे ही व्याकुल। जो जंग लगा हुआ, दृष्टि का बाधक हो रहा था, वह छूट गया है। भगवान (रामचन्द्र) के विश्वरूप पर कही गयी गोस्वामी तुलसीदास की इस ढंग की उक्ति और साफ है-खूब निबाहा है-

अव्यक्त मूल मनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।

षटकन्ध शाखा पञ्चविंश अनेक पर्ण सुमन घने ॥

फल युगल-विधि कटु-मधुर बेलि अकेलि जिहि आश्रित रहे।

पल्लवित फूलित नवल नित संसार विटप नमामि है ॥

विजय और पराजय में, हर जगह, यथार्थ अस्तित्व के रूप से नजीर अद्वैत सत्ता को प्रत्यक्ष करते हैं और तुलसीदास कटु मधुर फलों को देने-वाली (माया) लता के आभ्रय संसार-विटप को एक ही अव्यक्त सत्ता का स्वरूप कहकर नमस्कार करते हैं। यहाँ नजीर और तुलसीदास साहित्य की समान भूमि पर हैं। दोनों के भाव एक हैं, इसलिए मन भी एक-सा है। भेद इनमें नहीं रहा। अभेद की सूझ इन्हें हो गयी है।

महाकवि गालिब कहते हैं-

न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा होता,

डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता।

गालिब युक्ति लड़ा रहे हैं और दो ही लाइन में कुल वेदान्त छाँटकर रख देते हैं। देखिए कैसी मजबूत युक्ति है। इस संसार का अस्तित्व, गालिब कहते हैं कि मैं हूँ चूँकि मैं ही उसे देख रहा हूँ। मुझी में वह है। मैं अगर न होता तो यह संसार भी न होता। व्यष्टि और समष्टि का 'मैं' संसार को प्रत्यक्ष करता है, और चूँकि व्यष्टि और समष्टि का 'मैं' स्वरूपत: ब्रह्म है, यथार्थ सत्ता है, इसलिए ब्रह्म ही न्यायत: अपने को अनेक रूपों में प्रत्यक्ष कर रहा है। यह वेदान्त का निचोड़ है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है, 'एका आमी होइ बहु देखिते आपन रूप।' यह 'मैं' जब निर्विकार है तब खुदा है और जब सविकार है तब संसार में है- स्वप्नों से लिपटा हुआ। गालिब चुटकियाँ लेते हैं। कहते हैं, एक खुदा ही था जब कुछ न था- जब 'मैं' निर्विकार था-जाहिर करने के लिए उसके ('मैं' के) पास उसी के सिवा और कुछ न था। लेकिन बुरा हो इस 'होने' का 'भव' का-संसार का-मैं की स्वप्निल प्रगति का-उसके बहुत-सी वस्तुओं के अपनाव का, जिसने मुझे डुबा दिया है-मेरा महत्त्व छीन लिया है-मुझे छोटा कर दिया है। फिर वे कहते हैं, लेकिन भई, साथ ही इतना यह भी तो समझो कि अगर मैं न होता तो क्या यह संसार, इसकी अनेक वस्तुएँ; यह चहल-पहल रहती ?- सब खो जाता 'मैं' के न रहने पर। गालिब की यह भूमि सार्वजनिक है। संसार के उन्नत और परिमार्जित विचारवाले मनुष्य उनके साथ सहमत हैं। यहाँ हिन्दू-मुसलमान और ईसाई का घेरा नहीं। सब साहित्यों के लिए इसे सम्मेलन-भूमि कह सकते हैं।

इंशा फरमाते हैं-

रखते हैं कहीं पाँव तो पड़ता है कहीं और।

साक़ी तू ज़रा हाथ तो ले थाम हमारा।

इस शेर का प्रत्यक्ष रूप न देखिए, आनन्द इसके परोक्ष रूप में है।

भारत के ऋषि कह रहे हैं कि हर वक्त सच्चिदानन्द की धारा जीवों के अन्दर बह रही है, वे बहिर्मुख हैं-बात से, विकारों से लिपटे हुए हैं, इसलिए उसे देखते नहीं, वह आनन्द उन्हें नहीं मिलता, लेकिन जब वे उसका आनन्द पा लेते हैं तब वे देखते हैं, समुद्र में गिरती हुई नदी की तरह आनन्द के साथ उनका चिरकालिक संयोग है। परमहंस देव के अमृतोपम उपदेशों में है, वे कहते थे कि सच्चिदानन्द-सागर से थोड़ा-सा ही जल पीकर शिव बेहोश हो गये हैं। उस आनन्द का नशा अज्ञानजन्य नहीं, वह ज्ञानजन्य है। लेकिन, चूँकि उस समय शरीर की याद नहीं रहती, इसलिए थोड़े आनन्द से पैरों का डिगना और अधिकता से शरीर का निश्चल हो जाना आश्चर्य की बात नहीं। इस सम्बन्ध की एक बात और। और पिता जिस तरह पुत्र को अच्छी-अच्छी चीजें खिलाता है और उसकी सहायता के लिए, वह हँसता हुआ मस्ती में लड़खड़ाकर कहीं गिर न जाय, इसलिए उसका हाथ भी कभी-कभी पकड़ लेता है, उसी तरह ईश्वर भी अपने भक्तों को ज्ञानामृत पिलाते और उन्हें सँभाले रहते हैं। इंशा ने दो ही पंक्तियों में बड़ी खूबी से इस उच्च भाव को प्रकाशित कर दिया है। उन्हें वह आनन्द कविता द्वारा ही मिल रहा है। वे मस्त हैं। लेकिन अभी बेहोश नहीं हुए, कुछ ज्ञान अभी है, इसलिए पहिले ही से साकी को अपनी हालत बताये देते हैं। साकी भी पास ही है। ईश्वर से नजदीक और कोई नहीं, भारत के कुल तत्त्ववेत्ताओं ने यही कहा है। इंशा भी, पिलानेवाले और सबसे नजदीक रहनेवाली साकी को हाथ थाम लेने के लिए आगाह कर रहे हैं। शेर की दूसरी पंक्ति का 'तो' शेर के पढ़नेवालों का हृदय खोल देता है और इंशा के हृदय से निकलकर आनन्द की धारा पाठकों के हृदय में आ जाती है। वाक्यन्यास और ध्वनि के विचार से 'तो' इंशा को सरलता की मूर्ति बना रही है।

मीर कहते हैं-

था मुल्क जिनके जेर नगीं साफ़ मिट गये।

तुम इस खयाल में हो कि नामो-निशाँ रहे।

अपने नाम के लिए मरनेवालों को मीर खासी नसीहत दे रहे हैं। भारत का साहित्य तो इसके लिए प्रसिद्ध ही है। भारत के उच्चसाहित्य निर्माता अपनी कृति बेनाम ही अपने उत्तराधिकारियों को दे गये हैं, वे ज्ञान तो दे गये हैं पर नाम नहीं दे गये। स्वामी विवेकानन्दजी से 'विलायत की किसी अंग्रेज महिला ने कहा था- तुम्हारे प्राचीन ग्रन्थों के रचयिताओं के नाम तक तुम्हें नहीं मालूम; यह कितने दुःख की बात है। स्वामीजी ने इसका उत्तर भारतीय ढंग का, हृदय तक धँस जानेवाला, शेर के भावों का बड़ा ही समयोचित दिया था। संसार की नश्वरता पर कुछ न कहनेवाला, शायद ही कोई भारतीय कवि होगा। लेकिन नामो-निशाँ के मिटाने का मतलब मीर का कुछ और ही है। मीर इस तरह अलख, अरूप, निरंजन की ओर इशारा कर रहे हैं। नामों-निशाँ को छुड़ाकर वे अरूप का अस्तित्व सिद्ध कर रहे हैं। और भी देखिए-

'व' क्या चीज़ है आह ! जिसके लिए।

हर एक चीज़ से दिल उठाकर चले ॥

दिखायी दिये यूँ कि बेखुद किया।

हमें आप से भी जुदा कर चले ॥

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत ! तुझे।

नज़र में सभों की खुदा कर चले ॥

वेदान्त के चुने हुए भाव हैं। हर एक चीज से उठकर मीर का दिल खुदा पर लगता है। उन्हें नश्वर और अविनश्वर की सूझ हो गयी है। अन्तिम शेर में तो कमाल कर दिया है। पूजा और अद्वैतवाद ! हर जगह ईश्वर का अस्तित्व मौजूद है, मीर साहब इस सिद्धान्त पर कहते हैं कि भूति की उन्होंने ऐसी पूजा की कि उस मूर्ति को भी उन्होंने सबकी दृष्टि में खुदा (अनाम और अरूप) कर दिया। भारतीय मूर्ति-पूजन सच्चे तत्त्व के साथ पा गया है। मीर की तरह सैकड़ों भारतीय साधक नाम और रूप की परिधि को पार कर अपनी इष्ट मूर्ति से मिल गये हैं। मीर इसी अवस्था को दृश्यकाव्य की तरह लोगों को प्रत्यक्ष करा रहे हैं। वे खुद तो अरूप होकर चले ही, किन्तु लोगों की दृष्टि में अपनी मूर्ति को भी उन्होंने अरूप कर दिया-मूर्ति में इतना ऊँचा-सर्वोच्च भाव भर दिया है। मीर अब मूर्ति को मूर्ति नहीं रखते। उनकी परायणता उसे खुदा कर देती-चलते समय उनकी नज़र में भी और रहनेवाले लोगों की नज़र में भी।

लेख बढ़ रहा है, अतः अब हम इसे समाप्त करते हैं। साहित्य के भीतर से देखिए कि साहित्य की भूमि में हिन्दू और मुसलमान बराबर हैं। दूसरे किसी साहित्य का विचार नहीं किया गया, केवल उर्दू के साथ, संक्षेप में, भारतीय भावों की परीक्षा की गयी है। साहित्य के भीतर से मैत्री की स्थापना प्रशंसनीय है। यदि विचार किया जाय तो साधारण भाव भी सब साहित्य के एक ही होंगे, जबकि सब साहित्य के निर्माता मनुष्य ही हैं और एक ही प्रकृति उनके अन्दर काम कर रही है।

समन्वय

वर्ष 5, अंक

सं. 1983

महाकवि रवीन्द्र की कविता

आज वाणी के विशाल मन्दिर में कविता-शिल्प के सर्वोत्तम कलाकार महाकवि रवीन्द्रनाथ ही समझे जाते हैं। संसार के बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वानों ने उनकी अनुवादित कविताओं के भाव देखे हैं, और मर्म समझकर एक स्वर से उनकी प्रतिभा की प्रशंसा की है। बंगाल में कुछ ऐसे भी विद्वान बंगालियों का एक समुदाय है, जो रवीन्द्रनाथ को भारत में अब तक पैदा हुए कवियों में सर्वश्रेष्ठ समझता है। देशबन्धु दास के समान ऐसे भी बंगाली बहुत-से हैं, जिनके कथनानुसार रवीन्द्रनाथ की ५० पंक्तियों में कहीं चार ही छ: पंक्तियाँ कवित्वपूर्ण तथा प्रांजल हैं। मैं इतनी छानबीन में यहाँ नहीं पड़ूँगा। मेरा उद्देश्य इस प्रबन्ध में रवीन्द्रनाथ की कविता का रसास्वादन कराना ही है, न कि उनकी निर्विवाद-सिद्ध प्रतिभा पर विचार करना। हाँ, उनके एक पाठक की हैसियत से मैं यह ज़रूर कहूँगा कि वह एक प्रतिभाशाली महाकवि अवश्य हैं।

मौन भाषा-

थाक, थाक, काज नाइ, बोलियो न कोनो कथा।

चेये देखी, चले जाइ, मने-मने गान गाइ,

बिरही पाखीरे प्राय अजाना कानन छाय।

उड़िया बेड़ाक सदा हृदयेर कातरता,

तारे बाँधियो ना धरे बोलियो न कोनो कथा।

'रहने दो, अब कोई जरूरत नहीं, कोई बात न बोलो। आँखें खोलकर देखता हूँ, मन-ही-मन गाना गाता हूँ, मन-ही-मन न जाने कितने सुख और कितने दुःख की रचना कर डालता हूँ। विरही पक्षी की तरह अज्ञात अरण्य की छाया में हृदय की कातरता उड़ती फिरे। उसे पकड़कर बाँधो मत, कुछ बोलो मत।'

रवीन्द्रनाथ को संसार की चहल-पहल बिलकुल पसन्द नहीं। वह मौन में ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते हैं। वहीं उन्हें भाषा, भाव तथा संसार के ज्ञान की तमाम बातें संचित हुई-सी देख पड़ती हैं। वह मौन में ही सहृदय मुखरता की सृष्टि प्रत्यक्ष करते हैं, इसीलिए उसका उल्लेख किया है। दूसरी भावना में जो विरही पक्षी की उपमा दी गयी है, वहाँ यह दिखलाया गया है कि हृदय की आकुलता यदि अन्धकार हृदय की छाया में वन के बिहंग की तरह अबाध उड़ती रहे, तो उसका इसी में कल्याण है, इसी में उसकी मुक्ति है, उस वेदना को किसी की सान्त्वना से बाँधने का प्रयत्न कोई न करे, वही उस वेदना की शक्ति है।

एकदा बोसे छिनु बिजने चाहि,

तोमार हात निये हाते।

दोहार कारो मुखे कथाटी नाही,

निमेष नाहीं आँखि-पाते।

से दिन बुझे छिनु प्राणे,

भाषार सीमा कोन् खाने,

विश्व हृदयेर माँझे

बाणीर बीणा कोथा बाजे।

किसेर बेदना से बनेर बुके।

कुसुमे फोटे दिन-यामी,

बुझिनु जबे दोहें व्याकुल सुखे

कांदि नु तुमि भार प्रामी।

'एक दिन जब एकान्त में हेरता हुआ तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर मैं बैठा था, और हम दोनों में किसी के मुँह से बात नहीं निकलती थी, पलक नहीं पड़ते थे, उस दिन मैंने अपने हृदय में अच्छी तरह अनुभव कर लिया था कि भाषा की सीमा कहाँ तक है, वाणी की वीणा झंकार विश्व के हृदय में कहाँ तक पहुँचती है। वह कौन-सी और कैसी वेदना है, जो दिन-रात अरण्य के हृदय में पुष्प के रूप से खुलती है। जब मैं यह समझा, तब तुम और मैं दोनों व्याकुल सुख से रो दिये थे।'

यह मूक भाषा की विशद वर्णना संसार की अन्य भाषाओं को निस्सार सिद्ध कर रही है। प्रियतम अपनी प्रिया से कहता है कि उस रोज जब मैंने एकान्त में तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले लिया था, मैंने देखा कि आप-ही-आप मेरी जबान बन्द हो गयी, अर्थात् सुख की अधिकता होने पर भाषा ने जवाब दे दिया; अथवा दूसरे शब्दों में यह मौन ही शिव और सुन्दर की उस समय यथार्थ भाषा ठहरी थी। उसी दिन, नायक कहता है, मेरी समझ में आ गया कि संसार के हृदय में वाणी की वीणा जो बजती है, उसकी पहुँच कहाँ तक है, यानी वह सत्य, शिव और सुन्दर को व्यक्त नहीं कर सकती, वहाँ वह अक्षम है। इधर दर्शनशास्त्र भी उस मौन-रूपी सत्य-शिव को 'अवाङ् मनसोऽगोचरम' कहते हैं। इस पद्य में मौन को ही व्यक्त करने में कवि ने इतने शब्दजाल की सृष्टि की है, यह उपमा दिखलायी है, फिर भी मौन मौन ही है।

'उच्छृंखलं' को चित्रित करते हुए महाकवि रवीन्द्रनाथ ने अपने ही हृदय का चित्र रक्खा है, अपने ही उच्छृंखल रूप में रंगीन कल्पना द्वारा जीवन की ज्योति भर दी है -

ए मुखेर पाने चाहिया रयेछ

केनो गो अम न कोरे ?

तुमी चिनिते नारिबे बुझिते नारिबे मोरे !

आमी केंदैछि हेसेछि भाला जे बेसछि

एसेछि जेतेछि सरे

कि जानि किसेर धोरे !

कोथा होते एता बेदना बहिया

एसेछे पराण मम,

विधातार एक अर्थ बिहीन

प्रलाप-बचन सम।,

जगत बेड़िया नियमेर पाश

अनियम शुधू आमी

बासा बेंधे आछे काछे काछे सबे

कतो काज करे कतो कलरबे,

चिरकाल धरे दिबस चलिछे

दिवसेर अनुगामी।

शुधू आमी निज बेग सामालिते नारि

छुटेछि दिबस-यामी।

प्रति दिन बहे मदु समीरण

प्रतिदिन फुटे फूल

झड़ शुधू आसे क्षणेकेर तरे

सृजनेर एक भूल

दुरंत साध कातर एक बेदना

फुकारिया उभराय,

आंधार होइते आंधारे छुटिया जाय।

ए आबेग निये कार काछे जाब,

निते के पारिबे मोरे !

के आमारे पारे आँकडि राखिते

दू खानि बाहुर डोरे !

आमी केबल कातर गीत।

केहबा सुनिया घुमाय निशीथे

केह जागे चमकित।

कतो जे बेदना से केह बोझे ना,

कतो जे प्राकुल प्राशा

कतो जे तीब्र पिपासा-कातर भाषा।

अधिक समय नाइ

झड़ेर जीबन छुटे चले जाय

शुधू केंदे 'चाइ' 'चाई।

चार काछे पासि तार काछे शुधू

हाहाकार रेखे जाइ !

कोथाकार एइ शृंखल-जेंडा

सृष्टिं छाड़ा ए व्यथा

कांदिया-कांदिया, गाहिया-गाहिया,

अजाना आंधार सागर बाहिया,

मिशाये जाइबे कोथा !

एक रजनीर प्रहरेर माझे

फुराबे सकल कथा !

क्यों जी, इस मुख की ओर क्यों इस तरह हेर रहे हो ? तुम मुझे पहचान नहीं सकोगे, समझ नहीं सकोगे। मैं रोया हूँ, हँसा हूँ और मैंने प्यार भी किया है। आया हूँ, और फिर चला जाऊँगा। न जाने किस एक आवेश में मैं इस तरह आया-जाया करता हूँ। नहीं मालूम, कहाँ से इतनी व्यथा का बोझ लादकर मेरे प्राण आये हैं-यह जैसे विधाता का एक बिना अर्थ का कोई प्रलाप हो।

'तमाम संसार को नियमों के पाश घेरे हुए हैं; सिर्फ मैं ही एक अनियम हूँ। पास-ही-पास सभी लोग तो अपना-अपना वासस्थल घेरे हुए हैं; कितने कलरव के साथ कितना काम वे कर सकते हैं; चिरकाल से दिवस दिवस का अनुगमन करता हुआ चला आ रहा है।

'प्रतिदिन मन्द-मन्द समीरण बहती है, फूल खिलते हैं। परन्तु आँधी एक क्षण के लिए ही आती है, जैसे सृष्टि की कोई एक भूल हो। दुस्तर साध, कातर वेदनाएँ रोती हुई उमड़ पड़तीं, अँधेरे से और अँधेरे की ओर चली जाती हैं। यह वेग लेकर मैं किसके पास जाऊँ, कौन मुझे सँभाल सकेगा। सिर्फ दो बाहुओं की डोर से कौन मुझे पकड़ सकेगा। मैं सिर्फ एक व्याकुल संगीत हूँ। कोई उसे सुनकर रात्रि को सो जाता है, कोई सुनकर चौंक उठता है। कितनी इसमें वेदना है, कितनी व्याकुल आशा भरी हुई है, यह कोई नहीं समझता, इसमें कितनी तीव्र प्यास से व्याकुल भाषा भरी हुई है।

'अब अधिक समय नहीं, आँधी की जिन्दगी दौड़ती हुई समाप्त होती है, 'चाहिए, चाहिए' सिर्फ रोती हुई। जिसके पास भी मैं जाता हूँ, उसके पास सिर्फ हाहाकार रख जाता हूँ। कहाँ की यह शृंखला तोड़नेवाली सृष्टि से अलग की एक वेदना है। रोती हुई, गाती हुई, अज्ञात अन्धकार सागर पार करती हुई, न-जाने कहाँ मिल जायेगी। रात के सिर्फ एक ही पहर में तमाम बातें समाप्त हो जायेंगी।'

इस पद्य में कवि के हृदय की सिर्फ व्याकुलता एक लक्ष्य करने का विषय है। उन्होंने उच्छृंखलता को जो रूप यहाँ दिया है, वह उनकी पंक्तियों में वेदना का इतना गुरु-भार लेकर पाठकों के सामने आता है कि कवि के साथ पाठकों की पूरी सहानुभूति हो जाती है, वे उस वेदना युक्त उच्छृंखलता को प्यार करने लगते हैं। कवि की वर्णना में ऐसी ही शक्ति प्रकट हुई है। बंगला के 'चाइ-चाई' शब्द में आँधी की 'साँय-साँय' की ध्वनि है, उधर 'चाइ-चाइ' की अर्थ-द्युति व्याकुल प्रार्थना को सजीव कर देती है। दूसरी ओर, जिसके पास भी वह आँधी जाती है, हाहाकार रख जाती है; इस 'हाहाकार' में भी आँधी का यथार्थ शब्द और उच्छृंखलता का अर्थ-गौरव भरा हुआ है। पद्य की तमाम लड़ियाँ उच्छृंखलता को जीवन दे रही हैं। यह ऐसी उच्छृंखलता है, जो सबको प्रिय है, सबकी सहानुभूति खींच लेती है। कारण, यहाँ शिव और सुन्दर का समावेश हो गया है।

शृंगार

ओगो, तुमि एमनि संध्यार मतो हो।

सुदूर पश्चिमाचले कनक आकाश तले

एमनि निस्तब्ध चेये रब।

एमनि सुन्दर शांत एमनि करुण कांत

एमनि नीरव उदासिनी,

ओइ मतो धीरे-धीरे आमार जीबन-तीरे

बारेक दॉड़ाब एकाकिनी।

जगतेर पर पारे निए जाब आपनारे

दिबस-निशार प्रान्त देशे।

थाक् हास्य-उत्सव, ना पासुक कलरव

संसारेर जनहीन शेषे।

ऐसो तुमी चुपे-चुपे श्रान्तिरूपे निद्रारूपे

ऐसो तुमी नयन आनत।

ऐसो तुमी म्लान हेसे दिवादग्ध आयु-शेषे

मरणेर आश्वासेर मत।

आमी शुधू चेये थाकी अश्रुहीन श्रान्त आँखी,

पड़े थाकी पृथिवीर परे;

खुले दाब केशभार, घन स्निग्ध अन्धकार

मोरे ढेके दिक स्तरे-स्तरे।

राखो ए कपाले मम निद्रार आबेश सम

हिम स्निग्ध करतल खानि।

वाक्यहीन स्नेहभरे अबश देहेर परे

अंचलेर प्रान्त दाब टानी।

तार परे पले-पले करुणार अश्रुजले

भरे जाक नयन पल्लव।

सेइ स्तब्ध आकुलता गभीर विदाय-व्यथा

कायमने करि अनुभव।

'सुनो, तुम इसी तरह सन्ध्या की तरह होओ ! दूर अस्ताचल में, सुनहले आकाश के नीचे, इसी तरह चुपचाप हेरती रहो। इसी तरह सुन्दर, शान्त, इसी तरह करुण, क्लान्त, इसी तरह नीरव, उदासिनी, इसी तरह धीरे-धीरे मेरे जीवन के तट पर एक बार अकेली खड़ी हो जानो। संसार के दूसरे पार, दिवस और रात्रि के प्रान्त देश में, अपने को ले जाओ। यह हास्य और उत्सव पड़े रहें, संसार के उस निर्जन अन्त में कोई कलरव भी न सुनायी दे। तुम म्लान हँसकर आओ-दिवादग्ध आयु के अन्त होने पर, मृत्यु के आश्वासन की तरह। मैं पृथ्वी पर पड़ा केवल अश्रुहीन शान्त आँखों से हेरता रहूँ। अपने केश-भार खोल दो, स्निग्ध घनान्धकार मुझे स्तर-स्तर से ढक दे। मेरे मस्तक पर निद्रा के आवेश की तरह अपना हिम-स्निग्ध करतल रख दो। नि:शब्द स्नेह से मेरे अवश अंगों पर अपने आंचल का प्रान्त खोलकर डाल दो। इसके बाद क्रमशः करुणा के अश्रु-बिन्दुनों से मेरी पलकें भी भर जायँ। उसी स्तब्ध व्याकुलता के साथ विदाई की गहन व्यथा का मैं काय-मन से अनुभव करूँ।'

सन्ध्या की प्रकृति के साथ ही कविवर रवीन्द्रनाथ ने इस करुण-शृंगार की सृष्टि की है, जो सब तरह से मौजूँ हुआ है। सन्ध्या की प्रकृति में जो संहार की भावना मिली हुई है, उसकी सार्थकता कवि ने बड़ी ही सफलता के साथ प्रदर्शित की है। सन्ध्या सुन्दरी के काल्पनिक चित्र में परिशान्त नायक की उक्ति और भावनाएँ बिल्कुल मिल जाती हैं।

तबे पराणे भालो बासा केनो गो, दिले

रूप ना दिले यदि विधि हे।

पूजार तरे हिया उठे जे व्याकुलिया

पूजिब तारे गिया कि दिये।

भालो बासिले जारे भालो देखिते हॉय

से जेनो पारे भालो बासिते।

मधुर हासी तार दिक से उपहार

माधुरी फोटे जार हासिते।

जार नवनि - कुसुम कपोल, तल

कि शोभा पाय प्रेम-लाजे गो!

जाहार ढल ढल नयन - शतदल

तारेइ आँखी जल साजे गो!

ताइ लुकाये थाकि सदा पाछे से देखे,

भालो बासिते मरी शरमे !

रुधिया मनोद्वार प्रेमेर कारागार

रचेछि प्रापनार मरमे।

आहा ए तनु-आवरण श्रीहीन म्लान

झरिया पड़े यदि शुकाये,

हृदय माझे मम देवता मनोरम

माधुरी निरुपम लुकाये

जतो गोपने भालो बासी पराण भरि,

पराण भरि उठे शोभाते।

जेमन कालो मेघे अरुण आलो लेगे

माधुरी उठे जेगे प्रभाते।

देख, बनेर भालबासा आँधारे बसि

कुसुमे आपनारे बिकासे।

तारका निजहिया तुलिद्दे उजलिया

आपन पालो दिया लिखा से।

आमी रूपसी नहीं तबू प्रामारो मने

प्रेमेर रूप से तो सुमधुर।

धन से जतनेर शयन - सपनेर

करे से जीबनेर तमो दूर।

'तो प्राणों को फिर प्यार ही क्यों दिया, हे विधि, यदि तुमने मुझे रूप ही नहीं दिया है। पूजा के लिए मेरा हृदय व्याकुल हो उठता है, परन्तु मैं क्या देकर उसे पूजूँ ?

'प्यार करने पर जिसे प्यार किया जाता है, वह भी जैसे प्यार कर सके-वह अपनी मधुर मन्द मुस्कान का उपहार दे, जिसकी हँसी में माधुरी खुल पड़ती है। जिसके वे कपोल मक्खन से सुकुमार हैं, अहा, प्रेम और लज्जा से उनकी कैसी शोभा बन जाती है। और, आँसू भी बस, उसे ही सजते हैं, जिसकी कमल-सी आँखें झुकी हुई डोल रही हों। इसलिए मैं सदा छिपी रहती हूँ कि कहीं वह देख न ले। प्यार करती हुई मारे शर्म के मरी रहती हूँ ! अपने मन के द्वार बन्द करके अपने ही मन में मैंने प्रेम का कारागार बना लिया है। आह ! इस शरीर का श्रीहीन, म्लान प्रावरण यदि सूखकर झड़ जाय, तो भी हृदय में मेरे मनोरम देवता उस अनुपम माधुरी को छिपाये रहेंगे। मैं एकान्त में जितना ही जी भरकर प्यार करती हूँ, उतना ही मेरे प्राण शोभा से भर जाते हैं, जैसे काले मेघ में प्रभात के अरुण-आलोक-स्पर्श से माधुरी जग जाती है। देखो, अरण्य मेंका प्यार अन्धकार में बैठा हुआ पुष्पों अपना विकास करता है। तारिकाएँ अपने हृदय को उज्ज्वल करती जा रही हैं। यह उन्हीं के आलोक से लिखा हुआ है।

'मैं रूपवती नहीं हूँ, किन्तु मेरे मन में जो प्रेम का रूप है, वह मधुर तो है। वह शयन और स्वप्न का सयत्न-संचित धन है, जीवन के अन्धकार को दूर कर देता है।'

यहाँ महाकवि रवीन्द्रनाथ ने एक कुरूपा नायिका के हृदयभावों का परिचय दिया है। प्रेम एक ऐसा अवलम्ब है, जो जीवमात्र के लिए आवश्यक है। नहीं तो उस जीवन का कोई अर्थ ही न हो। यहाँ कवि की नायिका प्यार करती है; पर अपने प्रिय के सामने नहीं जाती। कारण, जिस रूप को देखकर प्रेमिकाएँ अपने प्रिय-जनों की पूजा-अर्चा करती हैं, वह रूप उसमें नहीं। मनोभावों का कितना सुन्दर विकास दिखलाया है कि प्रेम करके नायिका अपने-ही-आप में सन्तुष्ट रहती है, वह आत्मा में प्रेम के कारण अपार सौन्दर्य प्रत्यक्ष करती है, जैसे साधक को इष्ट की प्राप्ति हो गयी हो, जैसे काले मेघ में प्रभात की स्वर्णाभा आ गयी हो।

व्यंग्य

रवीन्द्रनाथ व्यंग्य लिखने में भी बड़े पटु हैं। दूसरों के व्यंग्य में कटुता प्रायः रहती ही है, कितना ही कोई बचकर लिखे। पर रवीन्द्रनाथ में यह बात नहीं। ऐसी कुशल लेखनी है कि मन मुग्ध हो जाता है। जैसी सरल कवित्वपूर्ण उक्ति, वैसा ही प्रसन्न मर्मवेधी व्यंग्य। पाठकों के मनोरंजन के लिए मैं यहाँ 'नव बंग-दम्पति का प्रेमालाप' उद्धृत करता हूँ। यह व्यंग्य बाल-विवाह पर किया गया है। वर जवान है, वधू बालिका।

वर-

जीबने जीबने प्रथम मिलन,

से सुखेर पार तुला नाइ।

ऐसो सब भूले आजि आँखी तूले

शुधू दुँहूँ दोहाँ मुख चाइ।

मरमे मरमे शरमे भरमे

जोड़ा लागि याछे एक ठाँइ;

जेनो एक मोहे भूले प्राछि दोंहे

जेनो एक फूले मधु खाई।

जनम अवधि बिरहे दगधि

ए पराण होये छिल छाइ;

तोमार आमार प्रेम-पारावार

जुड़ाइते आमी एनु ताइ।

बलो एक बार 'आमिओ तोमार

तोमा छाडा कारे नाहिं चाइ।'

उठो, केन, ओकि, कोथा जाब सखि ?

वधू -(सरोदन) आइ मार काछे शुते जाई !

वर -आज जीवन के साथ जीवन का पहले-ही-पहल मिलन हुआ है, इस सुख की तुलना नहीं हो सकती। आज सब-कुछ भूलकर, आँखें उठा दोनों दोनों के मुख की ओर देखें। हम दोनों के मर्मस्थल अब एक दूसरे से जुड़ गये हैं, जैसे हम दोनों एक ही मोह में भूले हुए हों-जैसे एक ही फूल में मधुपान कर रहे हों। जन्म से लेकर अब तक विरह की आग से झुलस रहा था, मेरे प्राण खाक हो रहे थे, तुम्हारा प्रेम अपार पारावार है, मैं इसीलिए यहाँ शीतल होने के विचार से आया हूँ। एक बार तो कहो कि मैं तुम्हारी ही हूँ, तुम्हें छोड़ और किसी को भी नहीं चाहती। उठो सखि, यह क्या ? कहाँ जाती हो ?

वधू -दीदी के पास सोने जा रही हूँ !

वर -कि करिछ बने श्यामल शयने

आलो कोरे बसे तरुमूल ?

कोमल कपोले जेनो नाना छले।

उड़े एसे पड़े एलो चूल !

पदतल दिया कांदिया कांदिया

बहे जाय नदी कुलकुल।

सारा दिन मान सुनि सेइ गान

ताइ बुझि आँखी ढुलढुल।

कानन निराला आँखी हासी ढाला

मन सुख स्मृति समाकुल।

कि करिछे। बने कुंज भवने ?

वधू -खेतेछि बोंसिया टोपाकुल।

वर -वन्यश्यामल शयन में बैठी, तरुमूल को प्रकाश से भरती हुई क्या कर रही हो? कोमल कपोल पर मानो अनेकानेक छल से खुले हुए तुम्हारे बाल आ-आकर गिर रहे हैं। पैरों के नीचे कुल-कुल रोती हुई नदी बही जा रही है। तमाम दिन लगातार यह संगीत सुन रही हो, शायद इसीलिए तुम्हारी आँखों में निद्रा का आवेश छा गया है ? एकान्त वाटिका में तुम्हारी ये हँसती हुई आँखें, सुख की स्मृतियों से भरा हुआ मन कितना सुन्दर है ! वाटिका के इस लता-वितान के नीचे क्या कर रही हो?

वधू -बैठी हुई बेर खा रही हूँ।

वर -आजि प्राण खुले मालती-मुकुले

बायु करे जाय अनुनय।

जेनो आँखी टुटी मोर पाने फुटी

आशा भरा दुटी कथा कय।

जगत छानिया कि दिब आनिया

जीवन यौवन करि क्षय ?

तोमा तरे सखि बोलो कारबे कि ?

वधू -आरो कुल पाड़ी गोटा छय !

वर -आज प्राणों को मुक्त कर मालती के मुकुलों से वायु विनय कर रही है, जैसे दोनों आँखें मेरी ओर खुलकर प्राशा से भरी हुई बातें कर रही हैं। संसार छानकर मैं तुम्हें क्या ला दूँ, अपने जीवन और यौवन का क्षय करके, कहो, सखि, तुम्हारे लिए मैं क्या करूँ ?

वधू -और भी चार-छ: बेर झोर दो!

बालिका को बहुत कुछ प्रेम समझाया गया पर उसकी समझ में वे बातें नहीं आयीं। वह अपने ही काम की बातें कहती गयी। इससे नायक निराश होकर प्रेम की प्राग भड़काये हुए चले जाते हैं।

प्रतिमा

आमी ढालिब करुणा-धारा,

आमी माँगिब पाषाण-कारा,

आमी जगत प्लाबिया बेडाव गाहिया

आकूल पागल परा।

केश एलाइया, फूल कुड़ाइया,

रामधनु-आँका पाखा उड़ाइया,

रबिर किरणे हासी छड़ाइया,

दिबरे पराण ढाली।

शिखर होइते शिखरे छुटिब,

भूधर होइते भूधरे लुटिब,

हेसे खल खल गेये कलकल,

ताले-ताले दिब ताली।

तटिनी होइया जाइब बहिया-

जाइब बहिया-जाइब बहिया-

हृदयेर कथा कहिया-कहिया

गाहिया-गाहिया गान,

जतो देबो प्राण बहे जाबै प्राण,

पुराबे ना पार प्राण।

एतो कथा आछे, एतो गान आछे,

एतो प्रान आछे मोर,

एतो सुख आछे, एतो साध आछे,

प्राण होये आछे भोर।

रबि-शशि भाँगि गाँथिब हार,

आकाश आँकिया परिब बास।

साँझेर आकाशे करे गला गली,

अलस कनक जलद राश,

अभिभूत होए कनक - किरणे

राखिते पारे ना देहेरे भार

जेनरे विवशा होयेछे गोधूली;

पूरेब आंधार वेणीं पड़े खुली,

पश्चिमेते पड़े खसिया-खसिया

सोनार आँचल तार।

एतो सुख कोथा, एतो रूप कोथा,

एतो खेला कोथा आछे;

यौवनेर बेगे जाइब बहिया

के जाने काहार काछे।

(ओरे) अगाध बासना असीम आशा;

जगत देखिते चाइ।

जागियाछे साध चराचर मय

प्लाविया बहिथा जाइ !

जतो प्राण आछे ढालिते पारी,

जतो काल आछे बहिते पारी,

जतो देश आछे डुबाते पारी,

तबे आर किबा चाइ,

प्राणेर साध ताई!

-कि जानि कि होलो आजि जागिया उठिल प्राण,

दूर होते सुनि जेनो महासागरेर गान।

सेइ सागरेर पाने हृदय छुटिते चाय,

तारी पद-प्रान्ते गिये जीवन लुटिते चाय।

अहो ! कि महान सुख अनन्त होइते हारा,

मिशाते अनन्त प्राणे अनन्त प्राणेर धारा!

'मैं करुणा की धारा ढालूँगा। पाषाण-खण्डों की बनी कारा तोड़ दूँगा। मैं व्याकुल पागल की तरह संसार को प्लावित कर गाता हुआ घुमूँगा। अपने बड़े-बड़े बालों को खोलकर, फूल चुनता हुआ, इन्द्रधनुष जैसे रंगीन पंखों से उड़कर, रवि की किरणों में अपनी हँसी बिखेरकर अपने प्राणों को ढाल दूँगा। एक शिखर से दूसरे शिखर पर दौड़ूँगा;

एक भूधर से दूसरे भूधर पर लोटूँगा खल-खल हँसता हुआ, कल-कल गाता हुना ताल-ताल पर तालियों के ताल दूँगा। तटिनी होकर हृदय की बातें कह-कहकर गाने गाता हुआ बह जाऊँगा। जितना ही मैं प्राण दूँगा मेरे प्राण बहते जायेंगे, प्राणों का फिर अन्त न होगा। इतनी बातें हैं, इतना गान है, इतना प्राण मुझमें है, इतना सुख है, इतनी साधे हैं कि प्राण मत वाले हो रहे हैं। सूर्य और चन्द्र को चूरकर मैं हार गूथूँगा। आकाश खींचकर वास पहनूँगा। सन्ध्या के आकाश में राशि-राशि अलस कनक वर्ण जलद परस्पर आलिंगन करेंगे, जैसे स्वर्ण-किरणों से अभिभूत होकर वे अपने देह का भार न सँभाल सकते हों मानो गोधूलि विवश हो गयी है, पूर्व की ओर उसका अन्धकार वेणी-सा खुलकर गिर रहा हो और पश्चिम में उसका सोने का अंचल।

'इतना सुख, इतना रूप, इतनी क्रीड़ाएँ और कहाँ हैं ? यौवन के वेग से न जाने किसके पास बह जाऊँगा। अन्दर अगाध वासना, असीम आशा उमड़ आयी है। मैं तमाम संसार देखना चाहता हूँ। ऐसी साध जग गयी है कि इस चराचर को प्लावित कर मैं बह जाऊँ। मेरे अन्दर जितना प्राण है, मैं पूर्णत: ढाल सकूँ। जितना काल है सब व्याप्त कर वहन कर सकूँ। जितने देश हैं, डुबा सकूँ, तो और मुझे क्या चाहिए ? -मेरे प्राणों की यही साध है।'

यह तरुण रवीन्द्रनाथ की रचना है। जिस समय उनकी किशोरता धीरे-धीरे उनके पुष्ट यौवन के साथ मिल रही थी, जब पहले-पहल उनके अन्दर प्रतिभा का प्रवाह आया था। बंग भाषा के मर्मज्ञों ने इस कविता की सहस्रों कण्ठ से प्रशंसा की है। इसमें इतनी शक्ति है, जो महाकवि के भविष्य रूप को स्पष्ट कर देती है। इतना अच्छा निर्वाह, इतना प्रखर प्रवाह, इतनी दमदार भाषा आज तक बहुत कम कवियों में देख पड़ी है। इस दुर्जेय शक्ति का स्फुरण कवि प्रत्यक्ष करता है, तभी वह इतनी बड़ी बड़ी बातें, इतनी बड़ी-बड़ी आशाओं को लेकर, कह डालता है। भाषा में बनावट कहीं भी नहीं मिलती जैसे कोई मुक्त प्रवाह हो। इस शक्ति का ही प्रवाह है कि आज रवीन्द्रनाथ कविता के शीर्षस्थान के अधिकारी हो सके हैं।

संगीत

महाकवि रवीन्द्रनाथ ने अब तक दो हजार से अधिक संगीत लिखे हैं। पहले-पहल इनके संगीतों में हिन्दोस्तानी यानी हिन्दी के संगीतों का असर ज्यादा रहा। अब, इधर बंगाल के प्रचलित 'बाउल' के स्वर में यह बिलकुल बंगला के ही उच्चारण और लय के विचार से संगीतों की रचना कर रहे हैं। रवीन्द्रनाथ के अपर समालोचकों की जो यह सम्मति है कि यदि रवीन्द्रनाथ अपर कविताओं की रचना न करके केवल इतने ये संगीत ही छोड़ जाते, तो भी यह संसार के एक श्रेष्ठ कवि रहते, इस कथन के साथ मैं पूर्णतया सहमत हूँ। संगीत काव्य में भी रवीन्द्रनाथ की अद्भुत कवि-प्रतिभा दृष्टिगोचर होती है-

अयि भुबन मनोमोहिनी।

निर्मल सूर्य-करोज्ज्वल धरणी

जनक-जननि-जननी।

नील सिन्धु-जल-धौत चरण-तल,

अनिल विकम्पित श्यामल अंचल,

अम्बर-चुम्बित-भाल हिमाचल,

शुभ्र-तुषार-किरीटिनी।

चिर-कल्याणमयी तुमि धन्य,

देश-विदेशे वितरिछ अन्न,

जाह्नवी-यमुना विगलित-करुणा,

पुण्य-पीयूष-स्तन्य-दायिनी।

प्रथम प्रभात उदय तब गगने,

प्रथम साम-रब तब तपोबने,

प्रथम प्रचारित तब बन-भबने

ज्ञान-धर्म कत पुण्य काहिनी।

यह रवीन्द्रनाथ का प्रसिद्ध संगीत है। इसकी रचना हिन्दी के अनुसार हुई है। भाव स्पष्ट हैं और उनकी व्याप्ति और सौन्दर्य का कहना ही क्या ?

यामिनी ना जेते जागाले ना केन

बेला होलो मरि लाजे।

शरमे जडित चरणे केमने

चलिब पथेर माझे।।

आलोक-परसे मरमे मरिया,

हेरो लो शेफाली परिये झरिया,

कोनो मते पाछे पराण धरिया,

कामिनी-शिथिल साजे।

निबिया बाँचिल निशार प्रदीप

ऊषार बतास लागी;

रजनीर शशि गगनेर कोने

लुकाय शरण माँगी !

पाखी डाकि बोले, गेलो विभावरी,

बधू चले जले लइया गागरी

आमियो प्राकुल कवरी आवरी

केमने जाइबो काजे।

'रात बीतने से पहले ही तुमने मुझे क्यों नहीं जगा दिया ? दिन चढ़ आया है, मुझे लाज लग रही है ? लाज से जकड़े हुए पैर, मैं राह कैसे चलूँगी? आलोक के स्पर्श से अपने-ही-आप में मुरझायी हुई, देखो शेफालिकाएँ झड़ी जा रही हैं। कामिनी इस शिथिल सज्जा में किसी तरह अपने प्राणों को सँभाले हुए है। उषा की वायु के लगने पर निशा का प्रदीप गुल होकर बचा, रात का चन्द्र आकाश के कोने में शरण लेकर छिप रहा है। चिड़ियाँ पुकारकर कहती हैं-रात गयी; बधुएँ घड़े लेकर जल भरने जा रही हैं; मैं भी खुली हुई अपनी वेणी सँभाल रही हूँ; अब काम पर कैसे जाऊँ?'

यह एक युवती गृहस्थ वधू की वाणी है। प्रभात हो गया है, सूर्य निकल आया है, वह अपने प्रिय की सेज पर सोती ही रह गयी, रात को शायद उसे देर तक जगना पड़ा था। अब उठकर वह अपने प्रियतम से कहती है कि तुमने मुझे रात रहते ही क्यों नहीं जगा दिया, अब मुझे बाहर निकलते हुए लाज लगती है। यह वर्णना अलंकारों के साथ ऐसी सुन्दर हुई है जो रवीन्द्रनाथ की ही लेखनी कर सकती थी। भाषा की विभूति तो वही समझ सकते हैं, जिन्हें बंग-भाषा का थोड़ा-बहुत ज्ञान है।

कविता में जिस किसी विषय पर रवीन्द्रनाथ ने लेखनी चलायी है, वहीं उन्होंने अद्भुत चमत्कार पैदा कर दिया।

सुधा

वर्ष 3, खण्ड 1, संख्या 1

सं. 1986, अगस्त सन् 1929

 

 

ज्ञान और भक्ति पर

गोस्वामी तुलसीदास

अधिकांश मनुष्यों के विचार ये हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने उत्तरकाण्ड में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ बतलाया है। परन्तु बात ऐसी नहीं। गुसाईंजी ने तात्कालिक समाज की रुचि के ख्याल से शब्दों के बाहरी अर्थ द्वारा भक्ति की प्रधानता भले ही दिखलायी हो परन्तु उनका भीतरी भाव ज्ञान और भक्ति का ऐक्य है। यह भाव उन्हीं के शब्दों से प्रकट हो जाता है, इसका उल्लेख हम दस-पाँच पंक्तियों में करते हैं।

गोस्वामीजी सिद्ध पुरुष थे। इसके समर्थन के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं, यह सर्वमान्य है। साथ ही, यह भी स्वीकार्य है कि सिद्ध वही होता है या वही कहलाता है जिसने मनुष्य-जीवन के वेद-सिद्ध सिद्धान्त को अपनी साधना और प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा प्राप्त कर लिया है, जिसने जीवन और मृत्यु के प्रश्न को हल कर लिया है, जिसे मानव-जीवन की जटिल-से-जटिल हर एक समस्या का सामना करना पड़ा और अपने साधन-सामर्थ्य से उसके रहस्य का भेद समझना पड़ा है; कदाचित यही कारण है कि संसार के सभी सभ्य समाज सिद्ध महात्माओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनके प्रदर्शित लक्ष्य को ही अपना लक्ष्य मानते हैं। इस दृष्टि से हम भारत के तीन सौ वर्ष पीछे के समाज का हाल किसी इतिहासकार के ग्रन्थ की अपेक्षा महात्माओं द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में और भी विशद् रूप से समझ सकते हैं। गोस्वामीजी ने कलियुग-वर्णन में जो चित्र खींचा है वह उन्हीं के समय का चित्र है। उस समय उन्होंने समाज के मनुष्यों की जैसी योग्यता देखी थी, तदनुसार ही उन्हें धार्मिक उपदेश दिया, उनके मस्तिष्क पर कोई गुरु-भार उपदेश नहीं रख दिया कि वे दब जायें या न समझ सकें अथवा अपने मस्तिष्क में उसकी धारणा या रक्षा न कर सकें।

यही कारण है कि गुसाईंजी ने रामायण के उत्तरकाण्ड में और अन्यत्र भी भक्ति को प्रधान माना है। परन्तु वही भक्ति का यह सूत्र-

विरति-चर्म असि-ज्ञान-मद, लोभ-मोह-रिपु मारि।

जय पायी सोइ हरि भगति, मुनिवर कहहिं विचारि ॥

लिखते हुए ज्ञान की आवश्यकता को नहीं छोड़ सके। और भी-

जाने बिन न होय परतीती।

बिन परतीति होय नहिं प्रीती

प्रीति बिना नहिं भक्ति दृढ़ाई।

यहाँ तो ज्ञान ही भक्ति-पथ का प्रथम साधन हो रहा है। जहाँ आपने यह लिखा है-

सुकृती चारिउ अनघ उदारा

ज्ञानी प्रभुहिं विशेष पियारा।

वहाँ ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इस सर्वधर्म-समन्वय के युग में गुसाईं जी की यह उक्ति-'ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा' मान्य है। दोनों का एकीकरण करके भी प्रापने जो यह लिखकर कि 'नाथ मुनीश कहिं कछु अन्तर' प्रसंग बढ़ाया है वह केवल उस समय के समाज के लोगों को शिक्षा देने के लिए, अन्यथा गुसाईंजी में यह भेद-भाव कब रह सकता है जब कि वे सिद्ध महात्मा थे ?

समन्वय

वर्ष 2, अंक 5,

सौर ज्येष्ठ, सं. 1980

तुलसी के प्रति श्रद्धाञ्जलि

गोस्वामी पुण्यश्लोक तुलसीदासजी के स्मारक रूप वृहदायतन होते हुए संसार की आँखों में वही आलोक और श्रद्धा ला दें जो उनकी कृतियों से है, हिन्दीभाषी सभापति, सभ्य, महिला और सज्जन वृन्द, ईश्वर से मेरी आन्तरिक प्रार्थना है।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव-जैसे श्रेष्ठ सूक्त कथन से समझ में आता है-

तथातवामी नर लोक वीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिवि जलीन्त - सब कुछ भगन्मिलित होता है। जाँच एक आदमी के स्वभाव के कारण रह जाती है। जिससे वह देखता है-गंगा का पानी जैसा निर्मल है और स्वास्थ्यप्रद वैसा दूसरी नदी का नहीं, इस तरह गोस्वामीजी के रामचरित मानस का मजा दूसरे विश्व साहित्य-समुत्सार में नहीं मिलता। कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, होमर, गेटे, शेक्सपियर आदि को गोस्वामीजी के समपर्याय पर रक्खा है मगर हिन्दी-प्राण समतोल विद्वानों ने गोस्वामीजी को वही संसार-साहित्य का श्रेष्ठ रत्न माना है-कलि कठिन जीव उद्धार हित बाल्मीकि तुलसी भयो। आश्चर्य की बात है कि जिस समय तुलसी, सूर का हिन्दी साहित्य में अभ्युदय काल है उसी समय अंग्रेजी भाषा में, महाकवि शेक्सपियर द्वारा, संसार को मोह लेनेवाले पर उग आते हैं। इसी का आनुकूल्य हो या कुछ और, उत्तर प्रदेश की यूनिवर्सिटियों में महाकवि महानाटककार शेक्सपियर का बराबर पंजा जम जाता है। अंग्रेजी की अत्युच्चकोटि की कला भारतीयजनों को हृदयसात कर लेती है। इस पर भी रामचरितमानस की महाप्राणता अल्पता में परिणत नहीं होती बल्कि सूर और कबीर के साथ आरक्षित संस्कृत और पल्लविता बँगला की बहार के योग से अंग्रेजी से उच्चासनासीनता विघोषित करती है। मैं व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक कुछ भी बन्धानुबन्ध के प्रचलित होते हुए भी, इस अभ्यास को संसार के पाश्चर्यों से श्रेष्ठतर समझता हूँ। विनयपत्रिका साधारण विद्वत्तापूर्ण नहीं। कवितावली वैसी ही ललित और सरल है। गीतावली वैसी ही सहयोगिनी। इतर ग्रन्थ-समूह सामाजिक चारुता के लाने में कम सक्षम नहीं। इस तरह पूर्व सामाजिक पक्ष को बल पहुँचाते हुए मुझको कहना पड़ता है कि काव्यजन्य भी तुलसीदासजी की सामाजिक कल्पना नियमानुशासनान्यास बलवत्तर है। हिन्दी का यह क्षुद्र सेवक इसी आधार से साधारण मनोरम गृह निर्वाह की पुष्टि साहित्य-रचना और विद्वत्ता के माध्यम से कर चुका है, बहुत कुछ हाथ संसार के भिन्न-भिन्न सभी साथियों का होगा जैसा दर्शनशास्त्र का निर्णय है। साहित्य के आधुनिक विपर्यय का कारण समाज की अनुकूलता होगी। यौन, जननादि अन्य विज्ञान विधान-संविधान के अनन्तर भले-भले कार्यान्वित किये जा सकते हैं, उनका विशेष उल्लेख अनावश्यक है। ऐसे अन्तरों के कारण विश्वविद्यालय के उच्च शिक्षित छात्र अकृतकार्य रह गये अर्थात् उनका ज्ञान-सागर रत्न-प्रसून न हो सका, इसीलिए उनकी विद्वत्ता अनुकूल ज्योतिर्मयी न हो सकी। अधिकारियों को सबसे पहिले देश और विश्व के कल्याण के लिए इसका निराकरण करना चाहिए और अगर पूर्व-पन्थ ही धार्य है तो एक प्रतिनिधि के विरोध के जवाब के लिए तुलसीदासजी के बाद किनारे खड़ा हुआ एक हिन्दी का प्रतिनिधि निम्न नामांकित विरोध कर रहा है और पूछता है कि इस प्रहसन का क्या जवाब तुम दोगे, तुम क्या मुझसे बड़ा निर्माण कर करा सकते हो ? इति।

6-8-56

 

अर्थ-अर्थान्तर

यों कोष में हम देखते हैं, एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। ये अर्थ भिन्नार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। उनका समीकरण कोष में किया गया है। परन्तु यह अर्थ की विशद व्याख्या नहीं। इसके ज्ञान के लिए अर्थशास्त्र (धनशास्त्र नहीं, शब्दार्थ-शास्त्र जिसमें 'धन' भी एक अलग शब्द होकर अनेक शाखा प्रशाखाओं से विश्वव्याप्त है ) साद्यन्त समझना जरूरी है। यदि इसका सम्यक् ज्ञान हो तो तुलसीदास तथा अन्यान्य महाज्ञान-पारंगत तपस्वियों की उक्तियों की व्याख्या समझ में आ सकती है, अन्यथा नहीं। क्योंकि, 'विश्व-वदर-कर' जैसे विशेषण पद की सार्थकता तभी हो सकती है। मैं यहाँ शब्द-दर्शन पर न उलझूँगा। समझने के लिए केवल इशारा किया है। मुझे दूसरा काम करना है, वह है 'दुलारे-दोहावली' के एक दोहे के कुछ अर्थ करना। मेरा विचार है, इसी दोहे से कुल रस और अलंकारों की भिन्नता को ही माननेवाले हँसेंगे, मैं जानता हूँ। पर ये वही होंगे, जो आग को पानी और पानी को आग बनते हुए देखकर भी नहीं मानते। जो मानते और जानते हैं, वे 'एक सद्विप्रा बहुधा वदंति' की व्यावहारिक सार्थकता के पण्डित मेरे अभिप्राय को साध्य ही समझेंगे। वह मन एक ही है जहाँ से रस-अलंकारों की भिन्नता निकली है, इसलिए वह मन एक ही होगा, जो भिन्न रस और अलंकारों को प्राचीन रीतियों के अनुसार, एक ही दोहे में सिद्ध करेगा।

मुझे ऐसा करने के लिए वह शक्ति प्रेरणा दे रही है, जो नवीन युग की रहस्यमयी धारा को प्राचीन रीतियों के भीतर से चलकर सिद्ध करना चाहती है। जिसने छन्दों को तोड़ा है, वह, सरस अलंकारों के हार के अलग-अलग फूलों में भी साम्य है, दिखलाना चाहती है। इससे प्राचीन रस अलंकारवादी हम लोगों पर जो आक्षेप करते हैं उसका यथार्थ उत्तर हमारी तरफ से उन्हें प्राप्त होगा। रस और अलंकारों की प्राचीन प्रथा हम लोग नहीं मानते ऐसी बात नहीं, एक विशेषता उसे मानने में और ज्यादा है, वह यह कि हम भिन्नता भी मानते हैं और एकता भी, जिस एकता का प्रमाण पराधीन, छन्दशास्त्र तथा रस-अलंकार आदि की बेड़ियों में फँसा हुआ ब्रज साहित्य आज तक दे सका है-हमें देखने को नहीं मिला।

इस समय केवल कुछ अर्थ पाठकों के सामने 'दुलारे-दोहावली' के मंगलाचरण से पेश करता हूँ। एक मन्त्र या श्लोक के भिन्न-भिन्न अधिकारियों द्वारा हुए भिन्न अर्थों को देखकर, उनके सत्य पर शंका न करने वाले यहाँ भी शंका से पहले सत्य की जाँच करेंगे,

दोहा -सुमिरहुँ वा विघनेस कौ, तेज-सदन मुख-सोम,

जासु रदन-दुति-किरन इक, हरत विघन-तम-तोम।

-श्रीदुलारेलाल भार्गव

अर्थ : १

उन विघ्नों के ईश गणेशजी का स्मरण करो, जो प्रकाश-राशि होकर भी चन्द्र-तुल्य स्निग्ध मुखवाले हैं, जिनकी दन्त-प्रभा की एक किरण विघ्नों के अंधकार-पुंज का नाश कर देती है।

यह साधारण भाव है कि एक-दन्त गजानन गणेशजी तेज के निधान होने पर भी चन्द की तरह शीतल मुख कान्तिवाले हैं, और उनके चमकीले दाँत की एक किरण विघ्नान्धकार-राशि को दूर करने के लिए समर्थ है। यह द्वैतवाद है।

अर्थ : २

अपनी शान्ति के कारण गणेशजी विघ्नों की उग्रता को प्रशमित करते हैं, इसलिए कवि ने वही रूप प्रकट किया है, जिसमें शान्ति-रूप बाहर है, उग्ररूप, गणेशजी के भीतर-उसे उन्होंने अपने में मिला लिया है। इसलिए कहा-

विघ्नों को अपने में मिलाकर उनके जो ईश कहलाते हैं, उन गणेश जी की वन्दना करो; वह सारी ज्वाला को अपने भीतर डालकर स्निग्ध मुख हो रहे हैं। उनकी रदन-द्युति (रदन तोड़ने-फोड़ने के अर्थ में आता है) अर्थात् संघर्ष के ऊपर फैले हुए प्रकाश को (प्रकाश का ज्ञान संघर्ष को अपने भीतर डालता जा रहा है-मिला रहा है) एक किरण अरिष्ट रूप अन्धकार-समूह को हर लेती है (अपने में मिला लेती है)। यह विशिष्टाद्वैतवाद है।

अर्थ : ३

गणेशजी के एक दाँत में अद्वैतवाद का रूप रखा गया है। और भी अनेक उपायों से उनका ज्ञान-काण्ड सिद्ध किया गया है। मैंने अपने 'वर्तमान धर्म' लेख की सिद्धि में इस विषय पर कुछ लिखा है। यहाँ इस दोहे का अद्वैतवाद-अर्थ दिखलाने का प्रयत्न करूँगा-

विघ्न और ईश दोनों में एक-स्वरूप जो हैं, उन विघ्नेश को स्मरण करो। वह तेज के निधान सोम (आकाश) मुखशून्य हैं। इसलिए उनका रदन (संघात) और द्युति (प्रकाश) दोनों एक ही किरण-एक रूप हैं। वह विघ्न, जो भेदात्मक है-अन्धकार-पुंज है, उसे दूर कर देती है-अपनी एक ही स्थिति में रहती है।

अर्थ : ४

(विधन-हथौड़ा, विघनेश-हथौड़े का मालिक, लोहार)

हे किसानों ! उस हथौड़े के मालिक लोहार की याद करो, जो आग के घर में बैठा हुआ है और जिसके मुख से जल रूप पसीना बह रहा है, जिसके रदन- (हथौड़ा चलाने के वक्त, तपाये हुए फाल से चटककर निकलती हुई) प्रकाश की एक किरण (कृषि-सम्बन्धी) विघ्नों के अन्धकार-पुंज का नाश कर देती है।

बरसात शुरू हुई तो किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए कवि ने उनसे ऐसा कहा। किसान गर्मी के कारण आलसी हो रहे थे। कवि की सूझ तो; लोहार को उसने देखा कि आग के सामने बैठा हुया, पसीने से तर होकर भी काम कर रहा है। पुनः किसानों से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध भी है। इसलिए उसके पास आलस छोड़कर जाने का उपदेश दिया, कि तुम आराम कर रहे हो, उधर उन विघनेश को नहीं देखते, वे कैसी हालत में रहकर काम करते जा रहे हैं। उनके इस कार्य को प्रादर्श मानकर कहा- उनकी याद करो, जागो, उनसे उपदेश लो। पुनः यह भी सुझाया कि तुम्हारे जलते हुए फाल पर जब वह हथौड़ा चलायगे तब उसकी एक किरण तुम्हारे विघ्नों को दूर कर सकती है। हल चलाकर अनाज पैदा करके तुम सुखी होगे, इस भाव पर अतिशयोक्ति की।

अर्थ : ५

कवि ने द्वैतभाववालों को उपदेश दिया है, जो विषकुम्भ पयो-मुख हैं-'मुँह में राम बगल में छुरी' वाले कहा है

हे तेज के सदन (भीतर आग भरे हुए ) और मुखसोम (मुख पर चन्द की शीतलता रखनेवाले ) (दुनिया के) लोगों ! (इस प्रकार दूसरों को धोखा न देते फिरो।) उस विघ्नेश रुद्र की याद कर लो। (विघ्न खण्ड है, बिना खण्ड भाव के विघ्न की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। जो लोग पूर्व प्रकार का द्वैत अपने भीतर रखते हैं, वे खण्ड भाववाले हैं। इस प्रकार खण्ड भावों का नाश करनेवाले रुद्र का स्मरण कराके कवि ने द्वैतभाव दूर करने की सलाह दी। रुद्र की भयंकरता दिखाना भी कवि का उद्देश्य है क्योंकि इससे डरकर लोग द्वैतभाव छोड़ देंगे। इसलिए कहा-वह हमेशा अपने कराल दाँतों से विघ्नों को चबाकर आहार कर रहे हैं, सो उनके मुख की ओर देखो, उस कराल मुख के भीतर तो यह भेद-भाव दूर हो ही जायगा, अरे-) उनके दाँतों के प्रकाश की एक किरण भी विघ्नों की अन्धकार-राशि को दूर कर सकती है। (मारे डर के जीवों का विघ्न-भाव दूर हो सकता है।)

अर्थ : ६

खेती अच्छी थी। किसान खुश हो रहे थे। कवि ने सोचा, ये खुशी में भूल गये तो बाद को इन्हें दुख उठाना पड़ेगा। इसलिए इन्हें कुछ ऐसा उपदेश दें जिससे आनेवाली विपत्ति को ये यथाशक्ति दूर कर सकें। इसलिए कहा-

किसानों ! तुम लोग भूल कर रहे हो ! उन विघ्नेश महाशयों की तो याद करो (जो बात की बात में गजब ढा देते हैं, वे विघ्नों के देवता चूहे अब खेतों में लगने ही वाले हैं।)। उनके पेट में बड़ी आग है, पर मुँह देखो तो बड़े ठण्ढे। अरे, उनके चमकीले दाँतों की एक किरन में विघ्नों का अन्धकार-ही-अन्धकार है। (किरन इक हरति ले आती है, हर लाती है, विधन तम-तोम।)

इस दोहे के यहाँ ६ अर्थ मैंने किये हैं। और भी अनेक होते हैं। अभी यहाँ इतने ही दिये।

विचारशील पाठक अर्थों की सार्थकता देखें। पुन: मैंने जैसा लिखा है, इस पर सभी रस और अलंकारों की सिद्धि करूँगा। उस समय अपने कथन की व्याख्या भी विस्तारपूर्वक दूँगा।

वीणा

ज्येष्ठ, सं. 1991

मई, सन् 1934

 

 

महादेवीजी के जन्म-दिवस पर

मुझे खुशी है कि इलाहाबाद के श्रेष्ठ साहित्यिकों की गोष्ठी से 'साहित्यकार' में युग-प्रवर्त्तिका वक्त्री प्रोफेसर 'महा' देवीजी पर लिखने का अनुरोध किया गया। देवीजी से मेरा उनके तारुण्य से परिचय है। उस वक्त भी हिन्दी की अद्भुत वाणी बालकेलियों से कला विकसित कर रही थी। मुझको तरुणी देवी के बोलचाल से अचम्भा हुआ। मेरे घर की श्रीमतीजी सुपठिता थीं। यह उनके एक दूसरे रूप के विकास की ओर स्वभावतः मैं खिंचा। तब भी हिन्दी खड़ी बोली का बहुत अच्छा जानकार मैं न था, अंग्रेजी ही मेरा सहारा थी। और भी कई जुबाने मैं लिख-बोल लेता था फिर भी हिन्दी ही में चरित-चर्चा पूरी करने का व्रत मैंने ठान लिया। इतना स्वगत के रूप में आया, बाहर बहकावे या समझावे के तौर पर मैंने तरुणी से कहा, 'तुम नामवरी हासिल करो।' तब तक अंग्रेजी में छिपे तौर पर मैंने किताबत शुरू कर दी थी। उर्दू-फारसी मुझको आती थी। संस्कृत भी मजे में लिख-बोल लेता था। माघ-श्रीहर्ष और कालिदास को कम-ओबेश पढ़ चुका था। उसकी लड़कियों से भी रब्त-जब्त कम न थी। फिर भी खड़ी बोली से जी कतराता था। श्रीमतीजी का आधार कम न था, मगर विद्या का घमण्ड मामूली रुकावट न डालता था कि चेले की तरह खड़ी बोली का ज्ञान प्राप्त करूँ। उनके गुरु और ज्ञाता पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी नामध्येय महानुभाव के यहाँ आमद-व-रफ्त मैंने भी शुरू की और मिल (Mill) की लिबर्टी (Liberty) का हिन्दी अनुवाद पढ़ने लगा।

यों कुछ ही अर्से में उर्दू की बन्दिश की मार्फत खासे-अच्छे जानकार की तरह खड़ी बोली के अखाड़े में (आ) उतरा। धीरे-धीरे कामयाबी होती गयी और देवीजी की बाहरी खबरें सुझावे या डुचावे के तौर पर मिलती रहीं। खड़ी बोली के जीवन की जवानी ढलने पर मैं खुद उनसे मिला, बातचीत की, मुझको बड़ी खुशी हुई। हिन्दी बड़ी सजी-बजी थी। अब समझता हूँ कि उनकी बातों में फिसलन भरी थी; इरादा था, समझनेवाला रपटकर गिर जाय। बाद की चर्चा से मालूम हुआ। मुझको हिन्दी की वाग्मी से सन्तोष था; दूसरा सहारा जरूरी न था।

इलाहाबाद में मेरी निगाह बचानेवाले दर्जनों साहित्यिक महादेवी की तारीफ का नारा बुलन्द करते थे। मैं मतलब समझ लेता था। सम्भव है, उन लोगों ने बहुत निकट से देवीजी का ज्ञान पाया हो, भाषण सुना हो। फिर भी, लतीफ़-जिन्दगी से हाथ धोना होता, अगर गहरे पहुँचकर राम बाग समझने की मैंने कोशिश की होती। ऐसे नशे की चहल-पहल दूसरे अनुपानों के साथ इलाहाबाद और इधर-उधर के शहरों के रहनेवालों की खास जिन्दगी थी। देवीजी अब अपनी वाग्मिता और कृतियों से हिन्दी भाषा, आदमी-आदमी की आँख का तारा हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी की उक्ति लागू होती है-

सुरसरि कोउ न अपावन कहहीं।

सभी मनुष्य अपनी विशेषता से महान हैं। कहा गया है, 'उनका रुख समझकर रास्ता साफ कर दीजिए।' आपका काम यह है और उनका मंजिले-मक्सूद तक पहुँचना। स्वभाव उनको वहाँ तक ले जायेगा; विषय विशेष यों अपनी रौनक से संसार को सजीव बनाये रहेगा। देवीजी की 'पाठन-प्रक्रिया से मैं परिचित नहीं, मगर भाषण-विभूति का जानकार हूँ। अब तक उनसे हजारों महिला छात्राओं का उपकार और मर्यादीकरण हुआ है। इससे, तुलनात्मक दृष्टि से आधी सदी पहले से अब की महिलाओं का अन्तर समझा जा सकता है। जो प्राथमिक जानकारियाँ उच्च शिक्षा से असम्बन्धीकृत रही हैं उनके लिए अनेक बार आवाज उठायी जा चुकी है कि विशेषज्ञों से लेकर शिक्षा विभाग में सम्मिलित कर दी जायँ, आँख से ओझल रखने का कारण मन से ओझल नहीं रह सका। सम्बद्ध धार्मिकता से विद्या का उस तरह संश्रय छुट जाता है, स्नातिकाएँ और स्नातक अखीर तक पातक के भागी होते हैं-इधर साबित-कदम नहीं रह पाते। इस स्थिति में बहुत पहले ही बचाव हो जाना चाहिए था। तुलनात्मक दृष्टि से तारतम्य समझना और समझाते रहना आवश्यक था, और न होने के कारण अब भी है। देश के दुहिता और दौहित्र तब किस आँख से कौन-सी ज्योति दुनिया पर बिखेरते होते, इसका अनुमान साधारण जनों के लिए आयास-साध्य भी नहीं। मैं बार-बार इस सहकारिता की ओर हिन्दीभाषियों का ध्यान खींचता हूँ।

सब तरह संस्तुत होकर भी पूर्वा पर शिकंजों से बँधी हुई होने के कारण देवीजी संसार की प्रवरा न हो सकीं। मैं लिख चुका हूँ कि भुक्तभोगी हूँ इसलिए साथ लिये और लगा फिरा। मेरी आँख यह पर्दा पार कर जाती है। दूसरे आवाज के जादू से मोह जाते हैं। सच्चा ज्ञान जैसे अलग रह जाता है, जिसमें सब कुछ एक साथ देख पड़ता है। मैंने देवीजी को और-और संगिनियों को भी वहीं आते-जाते देखा। कोई-कोई मेरी समधर्मिणी हैं, समवयस्का। उनके बारे में ऊँच-नीच बेकार है-जो मैं हूँ वही होंगी, मेरी श्रीमतीजी का उल्लेख आप पढ़ चुके हैं।

देवीजी की वाग्मिता की जो प्यास है, वह दुनिया भर से न बुझेगी। मैं उस गले को न सींच पाऊँगा, 'भिन्न रुचिर्हि लोक':-इसका प्रमाण है। लेकिन-'To me the meanest flower that blows, can give thoughts that do often lie too deep for tears' इसका बचाव था। 'से आसे धीरे, जाये लाजे फिरे' बहुत आधुनिका के चरण और गति होने पर भी प्रोफेसर देवीजी के तुल्य नहीं। वह एक रवीन्द्रनाथ की बूट और अद्धी की बिन किनारी लगी साड़ीवाली पढ़ी-लिखी सरला देवी या सरोजिनी नायडू जैसी महिला हैं, 'भारती' की सम्पादिका या कांग्रेस-प्लेट फार्म की वक्त्री। लगातार शिक्षा विभाग में रहने के कारण महादेवी सरोजिनी नायडू से कुछ बढ़कर हैं, हिन्दी में उनका आदर्श बड़े-से-बड़े बोलनेवालों के मुकाबिले का है, इसमें सन्देह नहीं। अंग्रेजी आदि भिन्न और जिस-जिस भाषा में उनके आलाप होते हों, मेरे लिए कथान्तर है। अभी उस दिन कायस्थ पाठशाला (प्रयाग) के एक प्रथम श्रेणीवाले छात्र ने वहाँ उनको अंग्रेजी में बोलते-सुनते की चर्चा की।

दो-एक साथ के बयानों का जिक्र करके, महादेवीजी के जयन्ती समा रोह में हिन्दी-भाषी मात्र के दीक्षित-शिक्षित होने की आवाज लगाकर मैं लेख का सार-समाहार करता हूँ। वन्दित की वन्दना अकार्यकरी भी कार्यकरी है, क्योंकि उसका घर विद्या ही का मन्दिर है। सक्षम साहित्यिक का वहाँ अनादर नहीं होता। आप पढ़ चुके हैं, सक्षमता वेत्तिमात्र के जीवन का उद्देश्य है। अस्तु, मेरी जयन्ती के भान में कलकत्ता महादेवीजी का साथ अभियान हुआ। यह अभिनन्दन प्रत्यावर्तित मेरे लिए कम अचम्भे का न था, मगर एक दूसरी तैयारी से शिरकत मैंने मंजूर कर ली। मैं गया। पहले रोज जलसे में रवि बाबू के खान्दानवाले स्वागत के सभापति थे। मजे में गाना-बजाना, मन्त्र-पाठोच्चार होता रहा। बारी आने पर मैं भी बोला। रवि बाबू के खान्दानी, मेरे वयोवृद्ध पूज्य प्रवर, प्राचार्य क्षिति मोहन सेन, प्रयाग में मेरा अंग्रेजी का भाषण सुन चुके थे। 'प्रथम चुम्बने नासिका भंगः' की उनको देखते मुझको याद आयी। मैंने सोचा, हो न हो, यह भी एक इतनी बड़ी चिलकन और बड़प्पन की ताकत हो !! मैंने रुख बदल दिया। न अंग्रेजी में बोला, न हिन्दी में। आखिर चलते वक्त महादेवीजी के दर्शन मुझको वहाँ न हुए। दूसरा हेलीडे पार्क में पाला पड़ा। पं. इलाचन्द्र जोशी, वाचस्पति पाठक, गंगाप्रसाद पाण्डे आदि विद्वानों के भाषण हुए। मैं भी उसी राह पूरा पार उतरा। महादेवीजी यहाँ भी न थीं। तीसरे रोज विशुद्धानन्द विद्यालय की तैयारी हुई। पं. जय गोपाल मिश्र, डॉ. शिवगोपाल मिश्र, संगीतज्ञ पं. रामकृष्ण त्रिपाठी आदि के मध्य मैंने महादेवीजी को देखा। पाया कि यह विद्यालय की वाहिनी हैं। भाषण बड़ा ही उत्तम हुआ। मैं ज्यों-का-त्यों अपने पहले दिनवाले ढरे से खरा उतरा। हेलीडे पार्क में ताव से कह गया कि इलाहाबाद के उधर अंग्रेजी में बोलने का मौका मेरे हाथ आना चाहिए, जब इतना दबाव डाला है। सुनवाई हो गयी। कुछ ही अर्से में मैनपुरी का बुलावा आया। प्रान्तीय सम्मेलन था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा सभापति थे। महादेवीजी का जाना होगा, समझकर मैं चला था। शाम को मंच पर उनको देखा। साहित्य-रत्न पं. जयगोपालजी मेरे साथ थे। साहित्य पर महादेवीजी का अपूर्व प्रभुत्व के साथ भाषण हुआ। मैंने अपना श्रम अपनोदक समझा। समझदार को इशारा काफी होता है, इस गरज और-और बातों से खामोश होकर महादेवीजी के वैयक्तिक विषय पर अधिकाधिक सुनने का अवसर हिन्दभाषी विद्वान् प्राप्त करेंगे। विश्वास है। संविधान उत्सव मनाकर ही किया जाना उचित है। ईश्वर बार-बार ऐसी सम्बद्ध विच्छरित वक्तृत्व शक्ति के सुनने का अवसर दे। इति।

भारत

26 मार्च, 1956

के अंक में अंशतः प्रकाशित

 

शक्ति परिचय

आजकल शिक्षित मनुष्य, जिन पर पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव आवश्यकता से कहीं अधिक पड़ गया है, प्रायः पूछ बैठते हैं - 'भारत के महापुरुष या सिद्ध महात्मा यदि सब-कुछ कर डालने की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं तो वे देश को दासता के शृंखलों से बँधा हुआ देखकर उसे क्यों नहीं छुड़ा लेते ?' सच तो यह है कि इसी आध्यात्मिकता के पीछे पड़कर देश की ऐसी दुर्दशा हुई। जब तक इससे देश का पिण्ड नहीं छूटता तब तक देशोद्धार की कोई आशा नहीं। गत अर्द्धशताब्दी के भीतर कई महापुरुष आये, और अब भी देश महापुरुषों से खाली नहीं, परन्तु उनसे भारत के भाग्य का परिवर्तन न हुआ, वह ज्यों-का-त्यों ही बना हुआ है; और यदि वह कुछ उन्नत भी हुआ तो इसका श्रेय साधारण जनता को है, उन्हें नहीं।

ऐसे बे-सिर-पैर की शंका का शास्त्रोक्त उत्तर चित्त पर न चढ़ने के कारण हो अथवा अजित शिक्षा के स्वाभाविक आकर्षण के निमित्त, वे पश्चिमी राजनीतिक, विज्ञान-समरनीति, सामाजिक सुधार या बहिर्जगत में विरोधी भावों से लड़कर विजय प्राप्त करने वाले किसी नवीन भाव को, देश में शक्ति संचय करने के लिए अपना लक्ष्य बना लेते हैं और यदि उनसे हो सका तो तदनुसार ही काम करने में लग जाते हैं। इस तरह वे भिन्न-भिन्न विषयों के आदर्शों से देश की परिस्थिति को पलट देने का विचार रखते हैं। इसमें सन्देह नहीं, इस समय की स्वाधीन वृत्ति कह लाने के कारण अधिकांश मनुष्यों की स्वाधीनता की चिन्ता, राजनीति की परिधि के भीतर ही चक्कर काट रही है।

पूर्वोक्त शंका को और भी मजबूत जड़ मिल जाती है जब वह देश में अनेक धर्म और अनेक सम्प्रदायों का जमाव देखती है। इन धर्मों में एक दूसरे का प्रकृतिगत विरोध दिखाकर वह शिक्षित समुदाय को एक अपर भूमि पर ठहरकर देश में एकता-स्थापन का उपदेश करती है और इस तरह बहिःशक्ति के संचय से देश को पतन के गर्त से उठाने की कोशिश करती है।

परन्तु जीवन के भीतरी भाग का जिन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं, शिक्षा प्राप्ति के आरम्भ से क्यों-जीवन के प्रथम प्रवाह से ही जिन्हें बाहर मुड़ने की वृत्ति के अधीन हो जाना पड़ा, वे यदि भीतरी उलझनों का निपटारा न कर सके तो यह उनका दोष नहीं कहा जा सकता और भारत के महापुरुष इसे भी परमात्मा की लीला का एक आवश्यक अंग समझ कर, इसका विरोध नहीं करते। हम इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द को प्रायः यह कहते हुए पाते हैं-'मेरे बच्चो, बहककर तुम चाहे जहाँ चले जाओ-कुछ काल के लिए चाहे जिसे अपना आदर्श मान लो परन्तु अन्त में तुम्हें अपने पूर्वाचार्यों के अनुशासनों को-उनके सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा, इसके सिवा दूसरा उपाय कोई नहीं।'

अब विचारणीय यह है कि इस देश में टक्करें लेनेवाली इन इतनी शक्ति-तरंगों में कोई साधारण (Common) शक्ति है या नहीं, यदि है तो वह कौन-सी है ? उसी के द्वारा देश का उत्थान होगा, इसके कोई अनुकूल प्रमाण भी हैं या यह युक्ति जाल मात्र हैं।

इसका विचार करने के पहले हमें तराजू के एक पलड़े पर संसार के अपर भागों को और एक पर भारत को रखकर, दोनों को तौलना चाहिए। हमें देखना चाहिए, संसार के अपर लक्ष्यों से भारत का साम्य हैं या वैषम्य। इतिहास भले ही इसके चार-छः शताब्दियों के आगे अपना भेद खोलने में असमर्थ हो-और चिरकाल की जीर्णता प्राप्त वस्तुओं का नाश में विलीन हो जाना स्वाभाविक है, मानवीय बुद्धि से पृथ्वी तक की आयु भले ही परिमित हो चुकी हो-और इस विषय पर की गयी विभिन्न कल्पनाओं का पारस्परिक विरोधाभास कल्पना ही के स्वभाव का परिचायक है, हम देखते हैं, हमारे जीवन की भूमिका उस भूमि से लिखी गयी है जिसका पता बताते हुए स्वामी विवेकानन्दजी ने उपनिषदों के एकार्थसूचक मन्त्रों का ही उल्लेख किया है। 'समन्वय' के पाठक स्वामीजी के व्याख्यानों में उन्हें पढ़ते होंगे। उस वेदान्तवेद्य एकता के निकट संसार के अपर भाव, जिनकी बुनियाद पर दूसरे देशों की इमारतें उठायी गयीं, भेद-भाव का दृश्यपट खोलते दीख पड़ते हैं, क्योंकि स्वामी जी के कथनानुसार वे एकता का ढिंढोरा पीटते हुए भी व्यक्ति विशेष के मत पर अवलम्बित रह जाने के कारण, व्यष्टि की सीमा में आ जाते, अत: सार्वभौमिक वेदान्तसिद्ध एकता की दृष्टि से संकीर्ण हो जाते हैं। इस संग में हम अन्य देशों के केवल धार्मिक सिद्धान्तों को ही लाना चाहते हैं। दूसरे सिद्धान्त, यद्यपि वर्तमान संसार में, उनका सिक्का-सा जम गया है, इनके आगे अभी न गिने जाने योग्य ही हैं।

वेदान्त का यह सिद्धान्त काल्पनिक नहीं, किन्तु यही एकमात्र सत्य है। बहिर्जगत में भ्रम के भीतर किसी वस्तु की सत्यता का जितना उज्ज्वल प्रमाण हमें मिलता है, वेदान्त का सत्य उससे भी उज्ज्वल है और उसी तरह प्रत्यक्ष अनुभव पर अवलम्बित है। इसका प्रमाण हमें, इस बीसवीं सदी में, युगावतार भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस ने क्षण क्षण में होनेवाली अपनी निर्जीव समाधि से दे दिया। मृत्युञ्जय महापुरुषों द्वारा आविष्कृत इस सत्य की परीक्षा लेते हुए, भौतिक सिद्धान्तों के पक्के अनुयायी कलकत्तावासियों ने परमहंस देव को उसमें उत्तीर्ण पाया। भारत की आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र यही अवतार और महापुरुष हैं जिनके लिए गीता में अर्जुन कहते हैं-

त्वमव्ययः शाश्वत धर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।

धर्म की कुंजी सदा ही इन्हीं के निकट रहती है।

जब तक ये बन्द कोठरी का ताला नहीं खोलते-माया का पर्दा नहीं उठाते तब तक लाखों प्रयत्न करने पर भी मनुष्य धर्मधाम में प्रवेश नहीं कर सकता।, बहिर्जगत में जैसे अधिकारियों की आज्ञा के बिना कार्य में सिद्धि नहीं होती वैसे ही अन्तर्जगत में भी है। भारत ने अपने जीवनकाल से ही (यद्यपि भारत अपनी सत्ता को अनादि मानता है) अन्तर्जगत को प्रधानता दी, अतः उसके सुधार-संशोधन आन्तरिक हैं। परन्तु इससे हम यह नहीं कहना चाहते कि बाहरी संसार से उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा; नहीं, बहिर्जगत का भी अस्तित्व वह मानता है, परन्तु उसका तत्त्व समझने के लिए उसने बाहरी प्रयत्नों की अपेक्षा आन्तरिक अध्यवसाय को ही श्रेष्ठ समझा। किसी-किसी क्रिया के दो कर्म होते हैं परन्तु उनमें से एक मुख्य कहाता है और एक गौण। इसी प्रकार बाहरी संसार को भारत अपनी सिद्धि का गौण उपाय मानता है। यही संसार के अन्यान्य देशों से भारत की विचित्रता है।

रही शक्ति की बात और उसके द्वारा प्राप्त स्वाधीनता का विषय, सो शक्ति-परिचय पर लिखी हुई अपनी श्रुतिसम्मत समालोचना में पूज्यपाद श्रीमत् स्वामी शारदानन्दजी महाराज ने जो कुछ कहा है; उसी का कुछ अंश हम यहाँ लिखते हैं-

प्राचीन होने पर भी शक्ति नवीन है। गुप्त भाव से व्यक्त होने पर किसी नवीन रूप में ही उसके दर्शन होते हैं। परन्तु शक्ति का न तो ह्रास ही है और न वृद्धि, लोप का तो नाम भी न लीजिए। यह हमारी दृष्टि का आवरण है जो हम कभी तो उसका ह्रास, कभी वृद्धि और कभी-कभी उसका लोप तक अपने कल्पना के नेत्रों से देख डालते हैं। एक ही शक्ति न जाने कितने दफे गुप्त होकर व्यक्त रूप को प्राप्त हो रही है। जब-जब व्यक्त हुई तब-तब इसका नया ही आकार देखने को मिला, जब-जब गुप्त हुई तब-तब इसके लुप्त हो जाने का अनुभव हुआ। संसार की कितनी ही जातियों, महादेशों, समाजों और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के जनन, उन्नयन और अवपात में शक्ति का यही खेल जारी है। जगद्धात्री महामाया के स्वरूप तत्त्व के दर्शनाभिलाषी भगवान श्रीरामकृष्ण को महामाया ने दिखलाया-एक परम रूपवती स्त्री को सर्वांग सुन्दर पुत्र का प्रसव और उसका पालपोष करते हुए बड़ा ही आनन्द मिल रहा है, फिर कुछ समय में हँसते हुए उसने पुत्र का संहार कर डाला। शक्ति-तत्त्व की समालोचना करने पर, उसके लिए एक ही आधार में प्रसव और प्रलयकारी विरोधी गुणों का समावेश हो जाता है। आजकल के दार्शनिकों का भी यही सिद्धान्त है कि शक्ति का न नाश है और न ह्रास। हाँ, गुप्त और व्यक्त भाव अवश्य होता है।

यही बात भावराज्य में भी देख पड़ती है। भावराज्य या सूक्ष्म मनोराज्य में शक्ति का यही खेल रहा है। जिस भाव में किसी एक जाति का भाव-अंकुर वद्धित हुआ है, उसका उन्मेष, उसका नाश हो जाने पर, किसी दूसरी जाति या समाज में होता है। चिरकाल तक गुप्त रूप से अवस्थित शक्ति का विनाश जिस शरीर और मन के अवलम्ब से होता है, या जिन्होंने अपनी अन्तरात्मा में प्रकाशित शक्ति का पर्यवेक्षण किया, उन्हें हम श्रद्धा की अंजलि बाँधकर उच्चासन पर बैठाते हैं। वे जड़राज्य के आविष्कारक, मनोराज्य के दार्शनिक और धर्म राज्य के मुक्त स्वभाव ऋषि अथवा शुद्ध सत्वविग्रह अवतार कहलाते हैं।

पंचेन्द्रियों द्वारा किसी वस्तु का स्पर्श या मन द्वारा किसी विषय की कल्पना शक्ति ही की सहायता से की जा सकती है। शक्ति के अधि कार के भीतर ही कर्ता, कर्म और क्रिया अपने दांव-पेंच दिखा सकते हैं। उसके बाहर किसी की पहुँच नहीं। वेदों में देवी की ये उक्तियाँ दृष्टि गोचर होती हैं-

मया सोऽन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितिय ई शृणोत्युक्तम्।

अमन्तवोमांत उपक्षीयन्ति श्रुधिश्रुत ते वदामि।

अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषेशखे हन्तवा उ।

अहं जनाय समदं कृष्णोम्यहं द्यावापृथिवी आविवेश।

ऋक् -देवीसूक्त

'मेरे ही अस्तित्व के कारण प्राणियों में जीवन है। भोजन, पान तथा श्रवणादि कार्य करने में वे समर्थ हैं। मुझे जो नहीं मानते वे विनाश को प्राप्त होते हैं। तुम श्रद्धावान हो, अतएव यह तत्त्व तुम्हें बतलाती हूँ। ब्रह्मशक्ति के हिंसकों के लिए धनुर्धारी रुद्र के बाहुओं में मैं ही शक्ति रूप में अवस्थित थी। लोकरक्षण के लिए मैं ही लड़ती हूँ। आकाश और पृथ्वी में मेरा ही अवस्थान है।'

यद्यपि शक्ति ही शक्ति से लड़ती है और शक्ति ही शक्ति से हारती है, और कभी-कभी दैवी शक्ति को भी आसुरी शक्ति से नीचा देखना पड़ता है-जाग्रत के ज्ञान को सुषुप्ति के मोह से दब जाना पड़ता है, तथापि आध्यात्मिक शक्ति के पूर्णाधार महापुरुष और भारत के अवतार शक्ति के अहाते के बाहर भी चले गये हैं और अपने उसी केन्द्र को उन्होंने सारी शक्तियों पर विजय प्राप्ति का फल बताया है। क्रिया और प्रतिक्रिया का इलाका पार करके यह उक्ति निकलो-

नींद नारि भोजन शत कोटी, तजत तासु महिमा अति छोटी।

शक्ति की सीमा को पार करने के लिए महापुरुषों ने कितने ही उपाय बताये हैं। हर एक शास्त्र के प्राचार्यों ने अपने मनोनुकूल मार्ग से चलकर मंजिल पूरी की और अपनी सफलता के साधन हमारे उपकारार्थ हमें दे गये। हठयोग कुछ सिखाता है, तन्त्रशास्त्रों में उससे भिन्न बात पायी जाती है, दर्शन दूसरे ही पथ के निर्देशक हैं, भक्ति योग में अन्य उपाय की उद्भावना हुई है। भाव भी अनेक बतलाये गये हैं। स्थानाभाव के कारण उनका विशेष उल्लेख हम न कर सके। परमहंस श्रीरामकृष्ण देव ने इन अनेक मार्गों से चलकर और शास्त्रों में वर्णित प्राय: सभी भावों की साधना करके कहा-'ये सभी मार्ग ठीक हैं और इनका अन्त एक ही जगह पर होता है। परन्तु उन्होंने औरों को अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार इनमें से किसी एक का प्राश्रय लेने का उपदेश दिया। इसका कारण समझाते हुए स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है-मनुष्य-मन में आनेवाली चिन्ता-तरंगों को जिनके कारण चित्त का स्थैर्य नष्ट हो जाता है, हटाने के लिए साधक को भावविशेष का अवलम्ब लेना पड़ता है। जिस वहिः संसार को हम इतना स्थूल देख रहे हैं वह सूक्ष्म विचार करने पर शक्तितरंगों के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। सूक्ष्मातिसूक्ष्म वृत्तियों का पारस्परिक संघर्ष ही वहि:संसार का व्यवहार या उसकी लीला है। और इन इतने विरोधी भावों के रहने पर भी संसार के मूल में सर्वव्यापिनी एक ही शक्ति की क्रीड़ा हो रही है। उसी शक्ति को सन्तुष्ट करने के लिए किसी भाव का आश्रय स्वीकार करना पड़ता है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि एक विशाल तरंग के प्रवाह में देह, मन, बुद्धि, अहंकार तथा बाहरी और भीतरी कुल वस्तुओं और विषयों को प्लावित करके, उसकी वेगवती गति से लक्ष्य पर पहुँच जाने के लिए ही भावविशेष का सहारा लिया जाता है। महात्मा कबीरदास कहते हैं-

शूर संग्राम है क्षणक दो चार का, सती संग्राम क्षण एक लागै।

साधु संग्राम रैन-दिन जूझना, देहपर्यन्त का काम भाई।

संचित भावशक्ति के आगे-समरकुशल, भावाश्रय मनुष्य के सामने किसी अपर शक्ति की हुकूमत नहीं चलती चाहे वह बाहर से आवे या भीतर से। सच तो यह है कि जिसमें भावशक्ति या धारणाशक्ति कम है। वह अपने से अधिक शक्तिशाली के साथ प्रादेश का भाव नहीं रख सकता। जिसमें शक्ति की मात्रा कम होती है, उसे स्वभावतः यह ज्ञान हो जाता है कि प्रतियोगी की शक्ति अधिक है। यह प्रकृति के स्वभाव की बात है। और जब कि कोई भी मनुष्य या सृष्टि का कोई भी जीव प्रकृति से परे नहीं तो उसे शास्त्रोक्त भावशक्ति या धारणाशक्ति अथवा चेतनाशक्ति की सहायता से जीत लेना असम्भव नहीं।

भारत के महात्मा मनुष्य-मन को ही नहीं, समस्त प्रकृति को जीत चुके थे, इसके प्रमाण स्वरूप वही हैं। भारतीयों के आगे महात्मानों के उदाहरण उद्धृत करना आवश्यक है।

रही जनता के लाभ की बात। सो जनता को इससे अधिक लाभ और क्या होगा कि उनकी कृपा के बिना वह सर्वशक्तिमान परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकती-मनुष्य जीवन में सर्वोच्च आकांक्षा को पूर्ण नहीं कर सकती। देश की समष्टिगत स्वाधीनता की तो इस प्रसंग में आप मीमांसा हो जाती है, क्योंकि व्यक्तिगत स्वाधीनता ही समष्टिगत स्वाधीनता की जननी है और इस दृष्टि से आज भी भारत में अन्य देशों की अपेक्षा स्वाधीन मनुष्यों की संख्या अधिक होगी। स्वामी विवेकानन्दजी ने भारत की इस समष्टिगत स्वाधीनता के लिए कितने ही स्थानों पर भाषण करते हुए कहा है-"हमें अग्निमन्त्र से दीक्षित केवल आठ युवकों की आवश्यकता है।" परन्तु देश उन्हें कितने त्यागी दे सका?

एक बात और है। जिनमें शक्ति की मात्रा कम है, वे तो काम कर सकते हैं और शक्तिसंचय करना ही जिनका उद्देश्य है, वे काम नहीं कर सकते, इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने से पहले ही मुँहतोड़ जवाब मिल जाता है। 'योगः कर्मसु कौशलम्' जहाँ का सिद्धान्त है वहाँ और उसी के अनुयायियों को अकर्मण्य साबित करना हँसी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है।

कई महात्माओं के आगमन से विचारधारा बदल जाने के कारण भारत उन्नत हो रहा है। उसके विस्तार और उसके धीर स्वभाव के कारण उसकी गति मन्द है और यह उसका सनातन स्वभाव भी है। यदि निःस्वार्थ युवक उसे उन्नत करने के लिए सर्वस्व तक का त्याग करके आध्यात्मिक शक्ति से अपना सम्बन्ध जोड़ें तो ऐसे एक-एक वीर के उदय से सैकड़ों की भौतिक शक्ति का नाश हो सकता है।

दूसरों के उद्धार के विषय में स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है कि सभी शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव हैं। अपनी ही इच्छा से वे बँधे हुए हैं। अन्यथा वे ब्रह्म हैं। साधु महात्मा उन्हें ब्रह्म ही देखते हैं, दूसरों को उनके भूले हुए स्वरूप का पता बताना ही मुक्त महात्माओं का काम है।

तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्।

अहेतु नान्यानपि तारयन्तः ॥

समन्वय

वर्ष 2, अंक 11

सं. 1980

पं. बनारसीदास का अंग्रेजी-ज्ञान

'दुलारे-दोहावली' पर लिखते हुए पं. बनारसीदासजी ने जिस मनोवृत्ति का परिचय दिया है, वह 'विशाल भारत' के पाठकों की दृष्टि में स्पष्ट हो चुकी होगी। मुझ पर भी कटाक्ष हुए हैं। मेरा अपराध, मैंने एक दोहे के छः अर्थ कर दिये। 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' का प्रमाण जो दिया, वह कुछ नहीं ठहरा। प्राचार्यों की भिन्न व्याख्यानों की सार्थकता वहाँ स्थाना भाव के कारण नहीं दे सका, यहाँ अनावश्यक समझता हूँ। मेरे अर्थ अनर्थ हैं, इनके साहित्यिक विवेचन नहीं हुए, साधिकार, सविरोध, निर्भयता पूर्वक 'बौड़मपन' चस्पा कर दिया गया है। यहाँ मुझे इतना ही दिखा देना है कि अंग्रेजी की डींग हाँकनेवाले पण्डित बनारसीदासजी चतुर्वेदी, उसी लेख में, किस तरह 'बौड़मपन' की सार्थकता सिद्ध कर रहे हैं।

पहले सिर्फ एक दूसरी बात पर कुछ पंक्तियाँ लिख देना चाहता हूँ। चतुर्वेदीजी लिखते हैं-'अपने लेख में लेखक महोदय ने यह भी धमकी दी है कि वह इस दोहे से कुल रसों और अलंकारों की सिद्धि करेंगे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि 'दुलारे-दोहावली' की प्रथम आवृत्ति की विज्ञप्ति इन्हीं 'निराला' जी की ही (पहले 'इन' के बाद 'ही', फिर 'की' के बाद, और एक ही शब्दबन्ध में, यह 'विशाल भारत' के सम्पादक की, हिन्दी के साधारण ज्ञान की 'ही-ही' हुई-निराला) लिखी हुई है, अतः उनके अर्थों को हम उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकते।'

एक दोहे पर कुल रस और अलंकारों की सिद्धि धमकी देना नहीं। इसका उत्तरदायित्व चतुर्वेदीजी की समझ में नहीं आ सकता; पर हिन्दी में ऐसे विद्वान, मुमकिन है, हों, जो समझे। मैंने 'दुलारे-दोहावली' पर जो कुछ लिखा है, वह समझकर लिखा है, अपनी ही खुशी से। रस और अलंकारों की सिद्धि के लिए 'दुलारे-दोहावली' से जो दोहा चुना वह अपनी ही खुशी से। मेरे अर्थों को, जो मैंने उस दोहे पर किये हैं, यदि कुछ श्रेय होगा, तो मुझे होगा। रस और अलंकारों में यदि कोई चमत्कार प्रत्यक्ष होगा, तो मेरा कहा जायगा। यह टीका और अर्थ-प्रदर्शन की रीति प्राचीन है। साहित्यिक विशद आनन्द की प्राप्ति का यह एक उत्तम उपाय माना गया है। दोहे के चुनने का यह एक और कारण है कि दोहा मुझे अर्थ गौरव से युक्त जान पड़ा, और मैं बराबर नवीन प्रतिभा के पक्ष में रहा हूँ। मैंने जो कुछ किया है, वह किसी गुरुदेव के अपार ज्ञान का अनुवाद नहीं, उसमें मैंने अपनी ही अक्षमता या सक्षमता के प्रमाण दिये हैं। किसी दूसरे के तिलों को पेरकर भारत के रूखे सर को तैलाक्त करने का अभिप्राय कौन रखता है, यह मेरी अपेक्षा 'विशाल भारत' के सम्पादक को अच्छी तरह मालूम होगा। मेरा यह कार्य ऐसा नहीं कि संवाद पत्रों में छपने के लिए भेजा जाय- 'अब मेरे पास एक पोस्टकार्ड लिखने के पैसे भी नहीं हैं ?' इससे कीमत में मेरा प्रयास कम है, या अधिक, यह सहज ही समझा जा सकता है। अफसोस यह है कि अभी तक हिन्दी के साहित्यिकों या पाठकों की समझ में यह पूरी तरह नहीं बैठ पाया कि 'विशाल भारत' का अभिप्राय क्या है, उसके सम्पादक के लिए कौन-सी योग्यता जरूरी है। रही बात चतुर्वेदीजी की उपेक्षा की दृष्टि' की, सो ऐसी दृष्टियों का ताप मान मुझे साल में गर्मियों के दिनों से ज्यादा दफे मालूम होता रहता है। वह अपने प्रोपागैंडा की सोचें; मैं जानता हूँ, मेरी कृतियों की क्या माँग है?

अब चतुर्वेदीजी अंग्रेजी के उद्धरण से अपनी पुष्टि किस प्रकार करते हैं, इसका विचार किया जायगा। वह कहते हैं- 'हमारे नोट के शेष अंश 'ऐसे हैं, जिनकी ओर जनता का पर्याप्त ध्यान नहीं गया है, और उन्हें हम 'फिर दुहराना चाहते हैं।' कारण, चतुर्वेदीजी जनता के पक्ष से लड़ रहे हैं। इससे पहले लिख चुके हैं कि जनता से सम्मति देने का अधिकार छीनने 'पर साहित्य केवल वाद-विवाद की चीज बन जायगा। उद्धरण एमर्सन का कहकर देते हैं। याद रहे, दो बार उद्धृत किया है। अनुवाद की जिम्मेदारी इससे कितनी बढ़ जाती है, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। कुछ अंश, जो आवश्यक हैं, देता हूँ। केवल अनुवाद के अनुसार छपे 'angles' को मैने 'angels' बना दिया है। बाकी किसी गलती के लिए जिम्मेदार मैं नहीं-

'They who make up the final verdict upon every book are not the partial and noisy readers of the hour when. it appears, but a Court as of angels, a public not to be bribed, not to be entreated and not to be overawed decides upon every man's title to fame.'

चतुर्वेदीजी का किया अनुवाद

'हर एक पुस्तक पर अन्तिम फैसला देनेवाले लोग जिस क्षण पुस्तक प्रकाशित होती है, उसी क्षण के पक्षपातपूर्ण और भड़भड़िया पाठक नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति की ख्याति पाने के दावे पर अन्तिम फैसला देनेवाली अदालत फरिश्तों की अदालत होती है, जिसे रिश्वत नहीं दी जा सकती, जिससे मिन्नत-आरजू नहीं की जा सकती, और जिस पर रोब नहीं जमाया जा सकता।

चतुर्वेदीजी को Public शब्द देख पड़ा, बस, उसका अर्थ 'साधारण जनता' हुए बगैर दूसरा हो ही नहीं सकता। फिर क्या, बार-बार उद्धृत करके लगे पुकारने-देखो, क्या अधिकार एमर्सन साहब से साधारण जनता को मिला है ! क्या अंग्रेजी के विराट् पण्डित बनारसीदासजी का अंग्रेजी-व्याकरण से भी कभी कुछ तअल्लुक रहा है ? या जन्म से ही अंग्रेजी के अहले-जबाँ हैं ? Case in apposition का हवाला तो छठे-सातवें दर्जे के विद्यार्थी भी जानते हैं। जो हर किताब पर अन्तिम फैसला देने की शक्ति रखते हैं, जिनकी अदालत फरिश्तों की अदालत है, वे 'साधारण जनता' कहाँ हो गये ? वे तो एक वह जनसमूह हैं जो रिश्वतखोर नहीं। यहाँ bribed, entreated और overawed के द्वारा चतुर्वेदीजी की 'साधारण जनता' का ही स्वभाव बतलाया गया है। जो वोट देने के समय रिश्वत, आरजू-मिन्नत और रोबदाब का शिकार होती रहती है। पर वे उल्लिखित विद्वान इस तरह बरगलाये नहीं जा सकते। देखिए आप लोग, चतुर्वेदीजी ने दो बार यह उद्धरण देकर अपने विषय की पुष्टि की है, और 'साधारण जनता' के तरफदार बने हैं। यह हिन्दीवालों को समझाना भी है कि हम अंग्रेजी के इतने बड़े पण्डित हैं। अस्तु ! अब यह बताने की कृपा कीजिए कि डॉ. गंगानाथ झा, डॉ. भगवानदास, महामहोपाध्याय पं. मधुसूदन ओझा, रा. ब. पं. शुकदेव बिहारी मिश्र, पं. दामोदर शास्त्री आदि बीसियों विद्वानों की मण्डली फरिश्तों की-सी अदालत और न बरगलायी जानेवाली जनता ठहरती है, या नहीं, और Noisy readers. (गुलगपाड़ा मचानेवाले पाठकों) में अंग्रेजी के धुरन्धर विद्वान पं. बनारसी दासजी चतुर्वेदी के अलावा कौन-कौन आते हैं।

चूँकि 'दुलारे-दोहावली' पुरस्कार-प्रतियोगिता में भेजी जा चुकी है; इसलिए कई बार उसकी उचित आलोचना लिखने की इच्छा करके भी मैं नहीं लिख सका। जब मैंने एक दोहे के छ: अर्थ लिखे थे तब मुझे मालूम भी न था कि वह पुरस्कार के लिए भेजी जायेगी। मैंने वह लेख जब लिखा था, तब 'दुलारे-दोहावली' का सौ दोहोंवाला संस्करण ही निकला था। उसके कई महीने बाद, दो सौ दोहेवाला, वृहत भूमिका-सहित, संस्करण पुरस्कार के लिए भेजा गया है।

मैंने जो कुछ लिखा था, उसमें कोई ऐसी बात अवश्य न थी, जो किसी के लिए अपमानजनक, असाहित्यिक होती। पर आज 'विशाल भारत' कैसे अर्थ छापकर अपनी विशालता का परिचय दे रहा है, हिन्दी के पाठक स्वयं इसका निर्णय करें। दुःख है कि ऐसे मनुष्य भी उत्तरदायी पद पर रहने का दावा करते और बे-रोक-टोक अशिष्टता दिखलाते चले जा रहे हैं। यदि हिन्दी के शक्तिमान लेखक और पाठक ऐसी बातों को चुपचाप सह लेना ही अपना धर्म समझेंगे, तो मैं नहीं समझता, साहित्य में अधर्म दूसरा क्या हो सकता है। जिस 'विशाल भारत' में संस्कृति का डंका पीटा गया, घासलेट का विरोध हुना, उसके बहू-बेटियों तक प्रवेश पाने का नारा बुलन्द किया गया, वही किस तरह की बातों को प्रकाशित करने में असंकुचित है, पं. शालिग्राम शास्त्री का लेख देखिए। मैं उनकी गन्दगी का उल्लेख न कर सकूँगा, केवल दो-एक साहित्यिक बातें लिखता हूँ।

शास्त्रीजी लिखते हैं-'हिन्दी के विषयों में टांग अड़ाना हम अपने लिए अनधिकार चेष्टा समझते हैं।' ठीक समझते हैं। विषय में टाँग नहीं अड़ायी जाती, दखल दिया जाता है। किसी के रास्ते में टांग अड़ायी जाती है, जो बुरा है, न अडाना अच्छा, आगे के लिए याद रखियेगा।

दोहे के पहले अर्थ में, 'सुमिरहु वा विघनेस कौ' में 'सुमिर', 'हुवा', 'विघनेस' जो आपने निकाला है, यह आपके संस्कृत ज्ञान का पूरा-पूरा परिचय देता है। 'हु' और 'वा' को आपने जोड़ कैसे दिया? ये दोनों उतना ही फासला रखते हैं, जितना आप जैसे संस्कृत के पण्डित से शिष्टाचार। व्यर्थ विवाद के लिए मुझे अधिक समय नहीं।

सुधा

वर्ष 8, खण्ड 2, सं. 4

सं. 1992, मई 1935

बंग-भाषा का उच्चारण

यदि बंग-भाषा की तुलना जगत की उन्नतिशील भाषामों से की जाय तो किसी से बुरी नहीं ठहरती। बंकिम-रवीन्द्र-गिरीश-द्विजेन्द्र जैसे नर-रत्नों से जिसकी शोभा बढ़ी है वह बंग-भाषा दूसरी प्रभायुक्त भाषाओं के सामने कदापि निष्प्रभ नहीं कही जा सकती। इसलिए उन्नतिशील भाषाओं में बँगला की भी गणना है। संसार में निर्दोष कोई नहीं। सर्वाङ्ग सुन्दरी बंग-भाषा भी दोषयुक्त है। यह दोष उसके उच्चारण में है। इसका छूटना सर्वथा असम्भव है। यदि कोई जबरदस्ती व्याकरण की युक्तियों की शरण लेकर उसे छुड़ाना चाहे-बंग-भाषा को कलङ्कनिर्मुक्त करना चाहे तो उसका प्रयास विफल होगा। इसके विषय में बड़े-बड़े बंगाली विद्वानों का यह कथन है कि इस दोष से बंग-भाषा का सौन्दर्य वैसा ही बढ़ता है जैसा कालिमा-कलङ्क से चन्द्रमा का। हम इसका समर्थन तो नहीं कर सकते। पर इतना अवश्य कहेंगे कि जैसे चन्द्र का कलङ्क नहीं छूट सकता वैसे ही बंग-भाषा का यह धब्बा। इस धब्बे के कारण बंग-भाषा के उच्चारण में यह कठिनाई होती है कि यदि जीभ लड़कपन में न फेरी गयी तो वह इसके उच्चारण-मार्ग पर कभी शुद्ध चाल चल ही नहीं सकती। इसके उदाहरण दूसरे प्रान्तों के हमारे भाई हैं। जब वे बँगला, विशेष करके उसका पद्य पढ़ते हैं तब उन्हें बँगला शब्दों का उच्चारण बहुत अखरता है। यह सभी को मालूम है कि बंगालियों की तरह बंग-भाषा का उच्चारण केवल वही कर सकता है जिसका बाल्यकाल का जीवन बंगभूमि ही में व्यतीत हुआ है।

बंग-भाषा के उच्चारण में यह धब्बा क्या और कैसा है, यह बताने के लिए हम यहाँ कुछ प्रमाण देते हैं। इस स्थान में यह लिख देना अनुचित न होगा कि उच्चारण का विचार यदि पद्यों के द्वारा किया जाय तो वह सहज ही समझ में आ जायेगा; क्योंकि शब्दों की यथार्थ स्थिति का निश्चय पद्य से ही अधिक होता है।

पद्य रचते समय बंगाली लेखक की दृष्टि मात्राओं के मेल पर नहीं, अक्षरों के मेल पर रहती है। महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं-

बनेर पाखी गाछे बाहिरे बसि बसि

बनेर गान छिल यत

खाँचार पाखी बड़े शिखानो बुलितार

दोहाँर भाषा दुई मत ! *

इस पद्य में पहली पंक्ति के साथ तीसरी पंक्ति का और दूसरी पंक्ति के साथ चौथी पंक्ति का मेल है। पहली और तीसरी पंक्ति में 14-14 अक्षर और दूसरी और चौथी में 9-9 अक्षर हैं। यह अक्षरों का मेल हुआ, मात्राओं का नहीं। मात्रा किसे कहते हैं, यह बात हम लोगों में से बहुतों को मालूम है। तो भी हम यहाँ इसका विवेचन दो-चार शब्दों में किये देते हैं। यथा-

वर्णों का उच्चारण स्वर के योग से ही होता है। स्वर वर्णमाला के दो भाव हैं- ह्रस्व और दीर्घ। अ, इ, उ, और ऋ ये चार ह्रस्व या लघु स्वर हैं और आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ये नव दीर्घ या गुरु स्वर हैं। एक दीर्घ स्वर दो लघु स्वरों के बराबर है, अर्थात् ह्रस्व में एक मात्रा और दीर्घ में दो मात्राएँ होती हैं। मात्रा अक्षरों की शब्द स्थिति का निर्णय करती है।

हमें पूर्वोद्धृत पद्य की मात्राओं को अलग-अलग जोड़कर यह देखना है कि समान पदों में मात्राओं का मेल है या नहीं। यदि समान पदों की मात्रा-समष्टि एक दूसरी के साथ न मिली तो यह सिद्ध होगा कि उच्चारण दोष युक्त है-

1 2 1 2 2 2 2 2 1 2 1 1 1 1=21 मात्राएँ ब ने र पा खी गा छ बा हि रे ब सि ब सि=14 अक्षर

1 2 1 2 1 1 1 1 1=11 मात्राएँ

ब ने र गा न छि ल य त=9 अक्षर

2 2 1 2 2 1 2 1 2 2 1 1 2 1=22 मात्राएँ

खाँ चा र पा खी प ड़े शि खा नो बु लि ता र=14 अक्षर

2 2 1 2 2 1 1 1 1=13 मात्राएँ

दो हाँ र भा षा दु इ मत =9 अक्षर

पहली में 21 तो तीसरी में 22 और दूसरी में 11 तो चौथी में 13 मात्राएँ हैं। समान पदों की मात्राओं में मेल नहीं पाया जाता। उनकी इस शाब्दिक स्थिति से यह सिद्ध होता है कि रचना लघु-दीर्घ अक्षरों के उच्चारण की पहचान से नहीं की गयी।

दीर्घत्व को हानि

किसी पद्य में यदि मात्राओं का मेल न रहे तो वह पद्य पद्य नहीं गिना जा सकता। महाकवि के निर्दिष्ट पद्य में, व्याकरण के नियमों के अनुसार मात्राएँ न मिलने पर भी, एक प्रकार का मिलन अवश्य हो रहा है। केवल आक्षरिक मिलन कहना युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि अक्षरों का उच्चारण करते हए हमें समान पदों के साथ समान पदों का शाब्दिक मिलन भी दिखाना चाहिए, क्योंकि इसके वैषम्य से तुकबन्दियों की लड़ियाँ टूट जाती हैं- पाठक ठोकर-सी खा जाते हैं।

1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 =14 मात्राएँ

ब ने र पा खी गा छे बा हि रे ब सि ब सि=14 अक्षर

1 1 1 1 1 1 1 1 1=9 मात्राएँ

ब ने र गा न छि ल य त =9 अक्षर

1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 =14 मात्राएँ

खाँ चा र पा खी प ड़े शि खा नो बु लि ता र = 14 अक्षर

1 1 1 1 1 1 1 1 1 =9 मात्राएँ

दो हा र भा षा दू इ म त =9 अक्षर

बंगाली लेखक पद्य में अक्षरों की समष्टि ही को उच्चारण की मात्रा समष्टि मानते हैं। इस अवतरण में जितने अक्षर हैं सब पर एक ही मात्रा लगाकर समान पदों के साथ समान पदों का शाब्दिक मेल दिखाया गया है। इस प्रकार के उच्चारण में विचित्रता भरी पड़ी है। इसी से दूसरे प्रान्त के लोगों को बँगला के उच्चारण में कठिनाई पड़ती है। देखिए, यहाँ दीर्घ वर्णों का दीर्घ उच्चारण सम्भव नहीं, क्योंकि दीर्घ वर्ण एक ही मात्रा के अधिकारी बन जाने के कारण, दीर्घत्व के आसन से नीचे उतार दिये गये हैं।

ह्रस्वमय बँगला-भाषा

'बनेर पाखी गाछे बाहिरे बसि-बसि' की जगह यदि 'सकल खग कुल बहत बसि-बसि' कहा जाय तो छन्दोभङ्ग की कोई आशंका नहीं। यहाँ भाव का विचार नहीं किया गया है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि पूर्व पद के चौदह अक्षरों में सात अक्षरों के दीर्घ होते हुए भी, चौदहो लघु वर्णों का कल्पित पद उसके साथ शाब्दिक स्थिति की बराबरी कर रहा है। यदि उन सातों अक्षरों के उच्चारण दीर्घ होते तो अवश्य दोनों पदों की शाब्दिक स्थिति में अन्तर पड़ता। बंगला के नियमानुसार दोनों पदों में मेल है, इससे यह साफ प्रगट होता है कि पूर्व पद के सातों दीर्घ वर्गों के उच्चारण ह्रस्व किये जा रहे हैं। नहीं तो कल्पित पद किसी तरह उसकी बराबरी न करता। यहाँ हम लोगों को भली भाँति मालूम हो जाता है कि बंग-भाषा का उच्चारण ह्रस्वमय है। उसके ह्रस्वों और दीर्थों की शब्द स्थिति में कोई प्रभेद नहीं।

भाषा पर ह्रस्वमयता का प्रभाव

बँगला पद्य-समूह के ह्रस्वमय होने के कारण भाषा पर जो प्रभाव पड़ा है वह बड़ा ही कोमल और मधुर है। भाषा की कोमलता ने बंगालियों के वेश-भूषा, आहार-विहार, रहन-सहन, हाव-भाव, समाज और जीवन सभी में कोमलता भरकर बंग देश को मानो कोमलता की राजधानी बना दिया है। परन्तु-

कोमलता स्त्री का और गाम्भीर्य पुरुष का धर्म है। एक से दूसरा बिल्कुल विपरीत है। बंग-भाषा में यदि कोमलता अधिक है तो उसमें गाम्भीर्य की कमी है। उधर उच्चारण की ओर देखिए। पर्याप्त पौरुष प्रकट करने के लिए जिन शब्दों की जरूरत है उन्हें गम्भीर करना पड़ता है। यदि आवाज गुरु उच्चारणों से ठस, भारी या ऊँची न हो तो भाषा से गम्भीर भाव व्यक्त नहीं होता। बंगला में इस भारीपन का अधिक प्रभाव है। इसीलिए गम्भीर भावों को व्यक्त करते समय बंगाली लोगों के मुख से 'सरे जाव' की जगह 'हट जाव', 'चुप कर' की जगह 'चोप राव' इत्यादि हिन्दी शब्द स्वभावतः निकल पड़ते हैं। ये शब्द इस बात का परिचय देते हैं कि बंग-भाषा में गाम्भीर्य नहीं।

कुछ अक्षरों के विलक्षण उच्चारण

बंगला में 'अ' का उच्चारण न 'अ' है और न 'ओ', बस दोनों के बीचोबीच है। ऐ को बंगाली लोग 'ओइ' और औ को 'ओउ' कहते हैं। जैसे-ऐतिहासिक - 'ओइतिहासिक'; औषध-'ओउषध'। श, ष, स, का श; ण, न का न; ब, व का ब उच्चारण होता है। जैसे 'विशेष'- बिशेश; सर्प-शर्प; वेणी-बेनी; वेद-बेद; अभाव-अभाब इत्यादि। व लिखने की यदि जरूरत पड़ी तो वे लोग 'ओय' लिखकर काम निकालते हैं; जैसे तेवारी-तेओयारी; मेवा -मेओया। यदि 'य' आदि का वर्णन हुआ तो 'ज'; नहीं तो य पढ़ते हैं, जैसे योग-योग, नियम-नियम। क्+ष+अ= क्ष को क्ख कहते हैं, जैसे-पक्ष-'पक्ख', क्+ष् +म +=क्ष्म को क्खँ, जैसे लक्ष्मी-लक्खाँ, क्+म+अ=क्म को क्कँ, जैसे रुक्मिणी-रुक्मिनी, क्+व्+अ=क्व को क्क, जैसे पक्क- 'पक्का', क् +य्+अ =क्य को क्क, जैसे ऐक्य-ओइक्क। परन्तु यदि कहीं 'य' युक्ताक्षर हुआ तो उसका उच्चारण 'य' ही किया जाता है, जैसे ध्+य्+अ =ध्य का ध्य, ध्यान का 'ध्यान'। परन्तु अध्ययन को वे 'अध्यन' कहेंगे।

स्थानाभाव के कारण पद्यों और शब्दों के एकाधिक उदाहरण नहीं दिये जा सके।

सरस्वती

अक्तूबर, सन् 1920 ई.

छत्रपुर में तीन सप्ताह

प्रसंगवश मुझे छत्रपुर जाना पड़ा। पाठक जानते हैं, 'शिवा को सराहौं कै सराहों छत्रसाल को'-महाकवि भूषण ने महाराज छत्रसाल को जातीयता की दृष्टि से कितना उच्च आसन दिया है। छत्रपुर इन्हीं महाराज छत्रसाल की बसायी हुई राजधानी है। बुन्देलखण्ड के ओरछा, पन्ना आदि स्टेटों की तरह यह भी एक प्रभावशाली प्राचीन स्टेट है। अन्यान्य बड़े देशी राज्यों की तरह इसे भी कुल अधिकार प्राप्त हैं। स्टेट के दीवान हैं हिन्दी के चिरपरिचित पण्डित शुकदेव बिहारीजी मिश्र, मिश्र बन्धुओं के छोटे भाई। मैं छत्रपुर पहुँचकर श्री महाराजा साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी, हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, दार्शनिक बाबू गुलाबरायजी के यहाँ ठहरा। तीसरे रोज महाराज से मुलाकात हुई। 'सुधा' के पाठकों को मालूम होगा, चण्डीदास के प्रबन्ध में एक अनुवाद की चर्चा करते हुए मैंने महाराजा साहब और उनके सेक्रेटरी महोदय का उल्लेख किया है। वह अनुवाद बाबू गुलाबरायजी के मार्फत घर से मैंने महाराजा साहब के पास भेज दिया था। उस अनुवाद में मैंने चण्डीदास की स्वर की लड़ी पर भी ध्यान रखा है। यानी अनुवाद की 'स्वर-लड़ी' उतनी ही मात्राएँ लेती है, जितनी चण्डीदास के मूल पद की प्रत्येक लड़ी। 'सुधा' में चण्डीदास प्रबन्ध के उद्धरण-अंश में पाठकों के मिलान करने की सुविधा के विचार से मूल और अनुवाद, दोनों दे दिये गये हैं। छत्रपुर में महाराजा साहब ने ललित किशोरी (ब्रजभाषा के एक कवि) के लिखे किसी छन्द में अनुवाद करने के लिए कहा। तदनुकूल उसी पद का ललित किशोरी के छन्द में मैंने जो अनुवाद किया, उसे 'सुधा' के पाठकों के मनोरंजनार्थ यहाँ उद्धृत करता हूँ। इस अनुवाद में मुझे अपनी तरफ से कुछ शब्द रखने पड़े हैं। कारण, चण्डीदास की स्वर-लड़ी से इस छन्द की स्वर-लड़ी कुछ बड़ी है-अधिक शब्द चाहती है।

पद

स्याम-नाम किन आनि सुनायो,

पल-छिन कल न परत मोहि आली;

स्रवनन-मगु धँसिगो, बसिगो उर,

विकल कियो मो मन बनमाली।

स्रवत सुधा, लवलीन मीन सम,

नाम-नीर नहिं त्यागन चाहौं;

जपत बिबस भो मो तन-मन धनि,

पावन-हित चित सों अवगाहौं।

नाम प्रतापहिं यहि गति भइ जब,

अंग-परस-रस धौं किमि होई;

रहत जहाँ वह लखि नयनन सों,

निज कुल-धरम जुवति किमि गोई।

भूलौं सोचति, भूलि सकौं नहि,

अब कहु, कौन उपाय रह्यो री;

चण्डिदास वारी कुलवारि,

तन - जोबन बनवारी लह्यो री।

एक दिन हम लोग बाबू गुलाबरायजी की 'शस्य-श्यामलाम्' चले। मनोहर पहाड़ी की तल-भूमि में, छ:-सात बीघे जगह घेरकर बाबू गुलाब रायजी ने एक 'बारी' तैयार की है। उसे ही 'शस्य-श्यामलाम्' कहते हैं। कुछ पेड़ अमरूद-नारंगी आदि के हैं, कुछ फूलों के। एक जगह एक छोटा-सा पक्का मन्दिर है, जिसमें शायद शिवजी स्थापित हैं। बीच में एक बड़ा सा पक्का कुँआ है, और अगल-बगल गेहूँ, जव, चने, मटर, अलसी, सरसों आदि के खेत। हाता काँटों से घेरा हुमा। हम तीन आदमी थे, बाबू गुलाब रायजी, पं. रामनारायणजी शर्मा और मैं। रामनारायणजी उठकर एक खेत की ओर गये। शाम हो रही थी। पत्रों पर ओस ने मुक्ताओं के बिन्दु बैठा दिये थे। रामनारायणजी कुछ देर तक वह शोभा देखते रहे, कुछ देर सोचते रहे। उन्हें एक शब्द मिल गया-'श्रमकन-झलकन'। अनुप्रास के आप बड़े भक्त हैं, 'श्रमकन-झलकन' ने आपको मुग्ध कर लिया और इस अनुप्रास-भक्ति की प्राफ़त का बज्र टूटा मेरे ऊपर- 'श्रमकन-झलकन की पूर्ति कर दीजिए।' शब्दों की सैकड़ों उखाड़-पछाड़, आवर्तन-विवर्तन तथा जन्म-मरण, पुनर्जन्मादि के बाद, बड़ी मुश्किल से एक दोहा तैयार हो सका। वह यह है-

लख्यो बिजन-बन गहन में श्रमकन-झलकन बारि,

खरी मोतियन-लर-जरी, परी हरी बर-नारि।

इसके बाद मैं बीमार पड़ गया। मियादी बुखार से कोई १५ उपवास पड़े। बाबू गुलाबरायजी तथा डाक्टर सी. भट्टाचार्य महोदय के संयत। सुशृंखल प्रयत्न से अच्छा होकर २६वें दिन सकुशल घर वापस आ गया।

सुधा

वर्ष 1, खण्ड 2, सं. 6,

आषाढ़ सं. 1985, सन् 1928

'मनसुखा' को उत्तर

कानपुर के हाल-पैदा-लाल 'मनसुखा' पत्र की चौथी संख्या में श्रीयुत रमाशंकर अवस्थी उर्फ 'मनसुखा' महाशय ने अपनी कलम की नोंक बड़ी बेदर्दी से मेरे हृदय में चुभो दी है। कारण, आपकी समझ में गालिब के एक अर्थ का मैंने बहुत बड़ा अनर्थ कर डाला है।

गत कार्तिक की 'सुधा' में मेरा एक लेख निकला है, 'मुसलमान और हिन्दू कवियों में विचार सास्य।' उसमें एक जगह है-

तेरे सर्वे क़ामत से एक क़द्दे आदम

कयामत के फ़ितने को कम देखते हैं।

मैंने इसके नेगेटिव को अफर्मेटिव (ना को हाँ) कर लिया था। भावार्थ के तौर पर, अपने मजमून पर चलते हुए, लिखा था, महाकवि गालिब कयामत को एक आदमी-भर लम्बी बतलाते हैं। 'मनसुखा' महोदय लिखते हैं, 'शायर का मतलब यह है कि कयामत का फ़ितना (उपद्रव) तेरे (माशूक के) सर्व (वृक्ष) ऐसे डील से एक आदमी की लम्बाई-भर छोटा है।' तो कितना लम्बा हुआ ? अगर आदमी की लम्बाई-भर छोटा है तो आदमी ही-भर लम्बा नहीं ?

मैंने भावार्थ लिया था। उस तरह अर्थ सीधा हो जाता है। कयामत और फ़ितना परस्पर सम्बद्ध हैं जैसे आग और उसकी गर्मी। 'आदमी-भर लम्बी' द्वारा कयामत ही माशूक में सीमित होती है यानी माशूक की लम्बाई में कयामत नप जाती है- उस अलंकारोक्ति का यही मतलब है। कयामत ही माशूक की चहल-पहल है, इसलिए मैंने कयामत को प्रधान माना है। इसी भाव का साम्य सूरदास की पंक्तियों में इसके बाद ही दिखलाया गया है। यह भी एक उद्देश्य था।

अब आपका भाष्य देखिए-'कयामत माशूक की तरह मूर्तिमान नहीं, इसलिए उसका एक आदमी की ऊँचाई-भर छोटा होना निर्विवाद है।' कैसा तर्क ! आकाश माशूक की तरह मूर्तिमान नहीं, इसलिए उसका एक आदमी की ऊँचाई-भर छोटा होना निर्विवाद होगा ? हवा माशूक की तरह मूर्तिमान नहीं, इसलिए उसका एक आदमी-भर छोटा होना निर्विवाद है ? क्यों, कुछ सूझता है ? अरे अवस्थीजी, आप और फिलासफी ! आपको किसी बहाने मेरी तरफ भूँकना था, सो भूँक चुके। इस तरह आप दूसरों को प्रसन्न कर सकते हों, तो कीजिए, पर मैं कहूँगा, कुछ काटना भी सीखिए, आपने अपने चुभीले शब्दों का भण्डार बिल्कुल खाली कर दिया है, और कसूर मेरा कुछ भी नहीं; पर खैर मैं मुर्गियाँ नहीं हलाल करता फिरता। यहाँ इतना ही कहूँगा कि वह लेख आप जैसों के लिए नहीं लिखा गया, मैं भैंस के आगे बीन नहीं बजाता। आप पर मैंने कई सफे रंग डाले थे पर आप बेचारे ! मेरे अन्तर के आइने में जितनी आग है, आप में सहने की उतनी ताब है ? मैं अगर हिन्दी के मैदान से खदेड़ा हुआ मनुष्य हूँ; तो राष्ट्रभाषा के स्वयंवर के समय महारथियों के मुकाबिले में अक्षय शब्दास्त्र-शिक्षा के बल पर मत्स्य-लक्ष्य का भेद करनेवाला दूसरा और कौन है।

सुधा

वर्ष 3, खण्ड 2, संख्या 1,

सं. 1986, फरवरी 1930

कामायनी महाकाव्य परीक्षा

रचयिता-कविवर श्री जयशंकर प्रसाद' जी, प्रकाशक-भारती भण्डार, 'लीडर प्रेस, इलाहाबाद; पृष्ठ संख्या ३६४; छपाई-सफाई अत्युत्तम; सजिल्द।

'कामायनी' रहस्यवाद का प्रथम महाकाव्य है। सृष्टि के रहस्य पर मुख्य दो विचारधाराएँ, एक भारतीय, दूसरी पाश्चात्य-डारविन-कृत। भारतीय विचार मनस्तत्त्व प्रधान है, डारविन का, जीव-जन्तुओं के विकास-क्रम को दिखाता हुआ। भारतीय विचार जहाँ मन को अवलम्ब स्वरूप लेता है-जड़ जगत को छोड़ देता है, वहाँ उस क्रम को जड़त्व में अध्यस्त मनुष्य नहीं समझ पाते। इसी प्रकार जहाँ डारविन जल में मल को प्राप्त कर सृष्टि का क्रम तयार करता है, वहाँ विवेचक शंका करते हुए अविश्वास करते हैं कि निर्मल जल में इस मल का कारण कहाँ से आ गया। वास्तव में सृष्टि-तत्त्व समझने के लिए माया की व्याख्या सबसे उत्तम है, यद्यपि हजारों वर्षों से आज तक बहुत कम लोगों की समझ में यह आयी है। इसी सृष्टि-तत्त्व का रूपक के आधार पर पुराणों में वर्णन आया है, जहाँ कश्यप, दिति और अदिति आदि की कथा है। पुनः देवता-विशेष की तारीफ में भी उसी देवता की सृष्टि हुई, वही सृष्टि का प्रधान है, कहा गया है। यहाँ, सब जगह, भिन्न-भिन्न शब्दार्थ की व्यापकता में समस्त सृष्टि है, ऐसा समझना पड़ता है। नहीं तो गड़बड़ी होती है। इसी प्रकार मनु से मनुष्य या मानव की उत्पत्ति हुई, ऐसा कहा गया है। मनु 'मन' से बना है। 'मन' की पैदा करने की ताकत-'मनु' बना देने की शक्ति-पर संसार के मनुष्यों को जितना भी ताज्जुब हो, व्याकरणशास्त्र को बिलकुल नहीं; इसी तरह 'मनुष्य' और 'मानव' 'मनु' के बच्चे हैं, व्याकरण मानता है। कविवर 'प्रसाद' मनु और श्रद्धा (कामायनी) को स्थूल रूप में भी मानते हैं। कवि प्राचीन इतिहास के जानकार हैं। इसलिए केवल रूपक पर नहीं रह सके। स्थूल जगत को सामने देखते हुए, स्थूल रूप से ही, 'घटना' कहकर-वेद और ब्राह्मण के अनेक उद्धरण देकर उन्होंने मनु और श्रद्धा के देह की पुष्टि की है, और सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राप्त कथानुकूल वर्णनों से इस महाकाव्य की रचना की।

हिन्दी के युगान्तर साहित्य के जो तीन प्रजापति हैं, उनमें प्रसादजी एक 'श्रद्धा देवो वै मनु:' हैं। बाकी दो स्वर्गीय प्रेमचन्दजी और बाबू मैथिलीशरणजी। कविवर प्रसाद की सर्वतोमुखी प्रतिभा हिन्दी में क्या चमत्कार पैदा कर चुकी है, इसके परिचय की आवश्यकता नहीं। काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास, प्रबन्ध और आलोचनाओं की अल्पता और विस्तार के भीतर से उनकी जिस प्रधान भावना का स्रोत बहा है, आज हिन्दी के विशाल क्षेत्र पर उसी का कलरव अधिक सुनायी दे रहा है। साहित्य का उनका रहस्यवादी या छायावादी पक्ष एक ओर करने पर हिन्दी का अष्टबज्र सम्मेलन होता है और प्रसादजी इसके सर्वमान्य प्रधान। 'कामायनी' ऐसे कवि की रचना है।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,

बैठ शिला की शीतल छाँह,

एक पुरुष, भीगे नयनों से,

देख रहा था प्रलय प्रवाह !

नीचे जल था, ऊपर हिम था,

एक तरल था, एक सघन;

एक तत्त्व की ही प्रधानता,

कहो उसे जड़ या चेतन।

क्या कहना है ! -ऊपर बर्फ ही बर्फ, नीचे केवल जल-फिर भी एक ही तत्त्व की प्रधानता ! -उसे जड़ कहो या चेतन ! ये 'कामायनी' की पहली आठ पंक्तियाँ हैं। कवि ने कामायनी का सार-तत्त्व इन पंक्तियों। में रख दिया है-उसे जड़ कहो या चेतन ! मनस्तत्त्व की सृष्टि कहो या जड़-जगत् की-मनुष्य को चिन्मय रूप से सृष्टि मानो या स्थूल रूप से। 'मैकबेथ' के प्रारम्भ में महाकवि शेक्सपियर ने नाटक का पूरा भाव जैसे एक गीत में दरसा दिया है, 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का पूरा तत्त्व कविकुल-गुरु कालिदास ने जैसे 'या सृष्टिः स्रष्टुराद्या' वाले पद्य में बाँध दिया है, वैसे ही वर्तमान युग के प्रवर्तक कविश्रेष्ठ प्रसादजी ने उद्धृत आठ पंक्तियों में मानवसृष्टि-तत्त्व की अपूर्व रचना 'कामायनी' की व्याख्या-सी कर दी है।

'कामायनी' की कथा प्रसादजी ने बड़े अच्छे आधार पर खड़ी की है। वैदिक काल में महा भूकम्प हुआ था, जब पंचनद के पास से समुद्र हटा, हिमालय उठा, भारत का नया रूप तैयार हुआ। तब तक आर्य संस्कृति का विस्तार हो गया था। पर ऋषि दिव्य भाव में रहते थे। बुद्धि के द्वारा मानव भाव में आकर प्रकृति पर विजय प्राप्त करना नहीं चाहते थे। वैवस्वत मनु प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने मानवपन को अपनाया -बुद्धि का प्राधान्य माना। इसका कारण वही भौतिक भीषण उत्पात है, जिससे सृष्टि एक प्रकार से नष्ट हो गयी। बुद्धि के द्वारा मनु ने मनुष्यों को प्रकृति से लड़कर विजय प्राप्त करने की ओर सन्मुखीन किया, मुमकिन, इसी भाव से वह मनुष्यों के जनक माने गये हों। धातुगत भाव से और अर्थ भी आते हैं, पर यह अधिक संगत मालूम देता है, कम-से-कम यहाँ। मनु के मनुष्य बनाने की यह कथा बड़े अच्छे ढंग से प्रसादजी ने वणित की है। मनु पहाड़ी प्रान्त में हैं, जब भीषण प्राकृतिक उत्पात होता है। श्रद्धा नाम की एक युवती से उनकी मुलाकात होती है। वह उसके स्नेह पाश में बँध जाते हैं। उत्पात कम होने पर वह आर्यभूमि की ओर चलते हैं, वह सारस्वत प्रदेश उजड़ा मिलता है। वहीं इडा से इनकी मुलाकात होती है। इडा बुद्धि की देवी है। इडा की सहायता से मनु उजड़ा प्रदेश आबाद करते हैं। संस्कृति नये रूप से चमकती है। मानव मानव बनता है। पर मनुष्य के रूप में, मद में आकर मनु इडा पर अधिकार करना चाहते हैं, जिससे उनका पतन होता है। इस समय श्रद्धा आती है। मनु को शान्ति मिलती है।

इस कथा को महाकाव्य 'कामायनी' में कविवर प्रसादजी की लेखनी जिन रूपों में चित्रित करती है, देखते ही बनते हैं। ऐसी किताब, मनुष्य मन का इतना अच्छा चित्र, जिस समझदारी के साथ चित्रित हुआ, मैंने हिन्दी और बंगला के नवीन साहित्य में नहीं देखा। काव्य के सुन्दर-से सुन्दर पद इसमें हैं। कुल पन्द्रह प्रकरणों में यह महाकाव्य समाप्त हुआ है। मैं इसकी विस्तृत आलोचना अन्य लेख में दे रहा हूँ, इसलिए इसे यहीं समाप्त करता हूँ।

सुधा

वर्ष 11, खण्ड 1, संख्या 3,

सं. 1994, अक्तूबर, सन् 1937

बोलचाल

प्रणेता-पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय, साहित्यरत्न (हरिऔध); प्रकाशक- खङ्ग विलासप्रेम, बाँकीपुर; सजिल्द, दाम नहीं लिखा, शायद खङ्गविलास प्रेस को लिखने से यह मुफ्त मिले। पृष्ठ सं. ५०० के कुछ ऊपर। सम्भव है दाम दिखाकर दूसरों को डराया न गया हो।

बड़े महत्त्व की पुस्तक है। आरम्भ में ढाई सौ सफे का एक प्रबन्ध है, जिसमें बड़ी सरसता तथा प्रांजलता के साथ 'बोलचाल' पर उपाध्याय जी ने विवेचन किया है। उपाध्यायजी का गद्य उच्च श्रेणी का हुआ करता है। पढ़ने में किसी प्रकार झुँझलाहट, खीझ नहीं होती। कवि की भाषा भावों के रत्नों का प्रकाश भरती जाती है; जैसे बसन्त-काल की प्रसन्न स्वच्छ-सलिला नदी निशीथ के ज्योत्स्ना लोक के भीतर से चुपचाप, अनर्गल, सौन्दर्य के सिन्धु की ओर प्रवाहित होती चली जा रही हो। किसी को आनन्द लेना हो, तो चुपचाप बैठकर इस आनन्द की गंगा का सौन्दर्य देख ले। भूमिका में बोलचाल, नखशिख, मुहावरे आदि की जमीन पर जो युक्तियों के बेल-बूटे जड़े हैं, वे भाषा तथा भावों के बाग में नवागत बसन्त के समीर के स्पर्श से काँप-काँपकर खिलती हुई कलियों की ही तरह खुल रहे हैं। यह जरूर कि 'To see God is to see as God sees.' में जो गम्भीरता है, चिरकाल तक भावना की जो एक गहन छाप दिल में पड़ी हुई अपना असर पैदा करती रहती है, आत्मा को प्रभावित कर रखती है, उपाध्यायजी की भाषा में वह सामर्थ्य नहीं। भाषा उदाहरणों के प्रकाश से पीछे जान पड़ती है। सेठजी की तोंद की तरह उद्धरण भाषा के आगे-आगे चलते हैं। इस भूमिका में यह एक दोष आ गया है। यदि इतने उद्धरण न दिये जाते, तो उपाध्यायजी की विद्वता की चाँदनी और फैलती। इनके सामने वह अपराह्न की धूप में चाँद की तरह फीकी पड़ गयी है। भले आदमी को उतना ही बोझ उठाना चाहिए, जिससे अपने को तथा दूसरे देखनेवालों को बुरा न मालूम हो; दूसरे समझे, स्वयं ही भार वहन कर रहा है; वाहक नहीं। कुछ हो, पुस्तक अमूल्य है। मुहावरों का इतना अच्छा संकलन, ऐसे सरस ढंग से, उपाध्यायजी जैसे हिन्दी के महाकवि ही कर सकते हैं। यों मुहावरे याद नहीं होते। पर छन्दोबद्ध हो जाने के कारण अब इनका प्रचार हिन्दी में बहुत जल्द हो जायेगा। विद्यार्थियों तथा हिन्दी के अपर प्रान्त के शिक्षार्थियों के लिए बड़े लाभ की पुस्तक है। कवि की लिखी ललित-भाषा तथा संगीतमय छन्द के भीतर से मुहावरे का जौहर अच्छा खुल पड़ा है, परन्तु कहीं-कहीं छन्द की चिर कीनी टाँग को खींच-खाँचकर बराबर करते समय मुहावरे ने मुँह बिगाड़ दिया है। ऐसा न होना था-

है जिसे कुछ भी समझ वह और की

राह में काँटा कभी बोता नहीं;

कर किसी से बेसबब उपरा-चढ़ी

आँख पर चढ़ना भला होता नहीं।

'चढ़ा-ऊपरी' है, 'उपरा-चढ़ी' नहीं। चढ़ा-ऊपरी का अपभ्रष्ट रूप "उपरा-चढ़ी हो गया होगा, उपाध्यायजी के उधर। 'राह में काँटे कभी बोता नहीं' दुरुस्त है। एक वचन का प्रयोग ऐसे स्थल पर ठीक नहीं। मुहावरा रटाने के वक्त, कोश में रखने के समय 'काँटा बोना' ठीक है। पर प्रयोग में 'काँटे बोना' ही अच्छा लगता है। जिन्हें यह एतराज हो कि 'आँख पर चढ़ना' भी फिर 'आँखों पर चढ़ना' होना चाहिए, उनसे यह कहना है 'कि दोनों प्रयोग ठीक हैं। जब एक वचन है, तब आँख के मानी दष्टि कर लेना चाहिए। पर 'आँख की किरकिरी' है, 'आँखों की किरकिरी' नहीं। कारण 'किरकिरी' एक ही आँख में पड़ा करती है।

जो कलेजा पसीज ही न सका,

तो किया रात-रात-भर रो क्या।

मैल जो धुल सका नहीं मन का,

आँख आँसू से धो किया तो क्या।

एक शेर याद आया-

तुम्हारी याद में हर वक्त हम तो रोते हैं

बजाय पानी आँसुओं से मुँह को धोते हैं।

आँखों की कलियों को आँसुओं के प्रोस-कणों से धोना अधिक न्याय संगत है। प्रयोगों की ऐसी अनेक गल्तियाँ हो गयी हैं। एक बार कोई देहाती लखनऊ आये। आपने किसी मिठाईवाले से फर्माया, 'चार पइसे की जलेबी देव।' उसने जवाब दिया-'मेरे यहाँ चार पैसे की जलेबी नहीं बनती।' इस 'बोलचाल' में 'चार पैसे की जलेबी' की कमी नहीं।

सुधा

वर्ष 3, खण्ड 1, संख्या 5,

सं. 1986, दिसम्बर, 1929

श्रीरामकृष्ण आश्रम ,

धन्तौलो की पुस्तकें

परमहंस श्रीरामकृष्ण देव की युगावतार के रूप में आज समस्त संसार में पूजा होती है। उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द चरित्र और विकास में भारत के सच्चे प्रतिनिधि और नेता हैं। जड़वाद के प्रावल्य के साथ-साथ भारत में श्रीरामकृष्ण से चेतनता की तरंग उठती है और स्वामी विवेका नन्द द्वारा समस्त संसार में व्याप्त हो जाती है। जड़वाद अपने लक्ष्य से गिर जाता है, जहाँ उसका लक्ष्य जड़ होता है। चेतनवाद अपने लक्ष्य में चेतन को रखकर गिरता नहीं, पुनः वह जड़ का विरोध नहीं करता; क्योंकि उसके स्वभाव में ही विरोध नहीं। चेतन के आश्रय से जड़ की भी उन्नति हुई है, होती है। इसका हम यहाँ अधिक विवेचन नहीं करेंगे। भारतीयता की यही विजय है कि वह मनुष्य को अपनी सुविधा देती हुई, विकास करती हुई, उसे उस लक्ष्य पर पहुँचाती है, जहाँ जड़वाद की पहुँच नहीं। लेकिन शिक्षा, संस्कार, संग आदि के कारण, इस तरह से भारतीयों की ही आँखें बन्द होती जा रही हैं। वे कारण तक न पहुँचकर, केवल कार्य देखकर प्रभावित हो रहे हैं। इस समय देश की ऐसी हीन दशा है, फिर भी देश के त्यागी युवक, विद्याध्ययन कर स्वामी विवेकानन्दजी के प्रतिष्ठित रामकृष्ण मिशन में आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करके देश तथा विश्व की सेवा के लिए अधिक-से-अधिक संख्या में निकल रहे हैं। इस देश की सेवा सुश्रूषा सबसे पहले रामकृष्ण आश्रम ने शुरू की, ज्ञान-काण्ड का सही-सही रूप लोगों के सामने इसी ने सबसे पहले रक्खा। स्वामी विवेकानन्दजी देश के कितने महान पुरुष थे, यह हिन्दीभाषी बहुत कम लोग जानते हैं। जिन्होंने स्वामीजी की अंग्रेजी किताबें या दूसरे प्रकाशकों के निकाले हुए हिन्दी-अनुवाद देखे हैं, वे थोड़ा-बहुत जानते हैं, फिर भी उन पर स्वामी जी की प्रसिद्धि का और विद्वता का जितना प्रभाव है, उतना उनके विषय विवेचन का नहीं।

यह बड़ी खुशी की बात है कि स्वामी भास्करेश्वरानन्दजी, अध्यक्ष, श्रीरामकृष्ण आश्रम, धन्तौली, नागपुर सी. पी. परमहंस श्रीरामकृष्ण देव और स्वामी श्री विवेकानन्द के साहित्य का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं। इससे पहले रामकृष्ण मिशन के विद्वान संन्यासी स्वामी माधवा नन्दजी ने 'समन्वय' नाम का सुन्दर मासिक अद्वैत-आश्रम, कलकत्ता से निकाला था। मुझे ढाई साल तक स्वामीजी के सहयोग में पत्र का काम करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। मैं स्वामीजी की हिन्दी का-उनके सहृदय महत्तम व्यक्तित्व का-उनकी विद्वता और चरित्र का भक्त हूँ। ऐसी प्रतिभा मैंने नहीं देखी। लेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इतने सुसम्पादित विवेचनापूर्ण पत्र का हिन्दी में प्रचार नहीं हुआ। कुछ साल तक घाटा बर्दाश्त करते हुए आश्रम ने पत्र का प्रकाशन बन्द कर दिया। कुछ दिनों के बाद स्वामी विवेकानन्द के गुरु-भाई, उस समय के रामकृष्ण मिशन के प्रेसिडेण्ट स्वर्गीय स्वामी शिवानन्दजी महाराज की आज्ञा से स्वामी भास्करेश्वरानन्दजी ने धन्तौली, नागपुर से हिन्दी में रामकृष्ण-विवेकानन्द-साहित्य का प्रकाशन शुरू किया। हिन्दीभाषियों के लिए स्वामीजी की देख-रेख में निकले हुए रामकृष्ण-विवेकानन्द-साहित्य की नितान्त आवश्यकता है। स्वामीजी ने इस प्रकाशन से हिन्दी की एक कमी पूरी की है।

श्रीरामकृष्ण-लीलामृत

श्रीरामकृष्ण-लीलामृत - (दो भागों में)। अनुवादक- पं. द्वारिका नाथ तिवारी बी. ए., एल-एल. बी; प्राक्कथन-महात्मा गांधी द्वारा लिखा; पृष्ठ-संख्या-प्रथम भाग ३३७, दूसरा भाग ३६०; मूल्य प्रथम भाग का १। =); दूसरे भाग का १।।); सजिल्द। छपाई-सफाई और कागज साधारण-अच्छा; श्रीरामकृष्ण-पाश्रम, धन्तौली, नागपुर, सी. पी. को लिखने से पुस्तक मिलेगी।

परमहंस श्रीरामकृष्ण देव का ऐसा जीवन-चरित्र हिन्दी में न था। प्रस्तुत पुस्तक स्वर्गीय श्री न. रा. परांजपे की लिखी मराठी-पुस्तक का अनुवाद है। मराठी पुस्तक की सामग्री श्रीरामकृष्ण के अत्यन्त प्रामाणिक जीवन चरित-उन महापुरुष के एक मुख्य शिष्य स्वामी शारदानन्दजी महाराज की लिखी बंगला पुस्तक 'श्रीरामकृष्ण-लीला-प्रसंग' से ली गयी है। इसके अलावा कई अंग्रेजी और बंगला पुस्तकों का आधार लिया गया है।

महात्मा गांधी अपने प्राक्कथन में लिखते हैं- श्रीरामकृष्ण परम हंस का जीवन-चरित्र धर्म के व्यावहारिक आचरण का विवरण है। उनका जीवन-चरित्र हमें ईश्वर को अपने सामने देखने की शक्ति देता है। उनके चरित्र को पढ़नेवाला मनुष्य इस निश्चय को प्राप्त किये बिना नहीं रह सकता कि केवल ईश्वर ही सत्य है और शेष सब मिथ्या भ्रम है। श्रीरामकृष्ण ईश्वरत्व की सजीव मूर्ति थे। ...इस सन्देहवादी युग में श्रीरामकृष्ण सजीव और प्रज्ज्वलित धार्मिक विश्वास के प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरूप हैं। इसी उदाहरण के कारण ऐसे सहस्रों स्त्री-पुरुषों की आत्मा को शान्ति प्राप्त हुई है, जिन्हें अन्यथा आध्यात्मिक प्रकाश से वंचित रहना पड़ता। ...मेरी यही प्रार्थना है कि उनका दिव्य प्रेम इस जीवन-चरित्र। के सभी पाठकों को अन्तःस्फूर्ति दे।"

प्रस्तुत पुस्तक के दोनों भाग श्रीरामकृष्ण-शिवानन्द-स्मृति-ग्रन्थमाला के ११३-१२वें पुष्प हैं। प्रथम भाग में श्रीरामकृष्ण की जन्मभूमि 'कामारपुकुर' गाँव और उनके माता-पिता का परिचय, उनकी माता चन्द्रादेवी के अनुभव, उनका जन्म, बाल चरित्र और पितृ वियोग, उनकी किशोरावस्था, यौवन का आरम्भ, साधक भाव का आरम्भ, रानी रासमणि और दक्षिणेश्वर, पुजारी-पद-ग्रहण, व्याकुलता और प्रथम दर्शन, मथुर बाबू और श्रीरामकृष्ण, साधना और दिव्य उन्माद, प्रथम चार वर्ष की अन्य घटनाएँ, विवाह और पुनरागमन, भैरवी ब्राह्मणी का आगमन, वैष्णव चरण और गौरी पण्डित का वृत्तान्त, तन्त्रशास्त्र का संक्षिप्त परिचय, श्रीरामकृष्ण का तन्त्र-साधन, जटाधारी और वात्सल्य-भाव-साधन, भिन्न-भिन्न साधु सम्प्रदाय, पद्मलोचन और नारायण शास्त्री, मधुर भाव साधन आदि विषय हैं।

द्वितीय भाग में रामकृष्ण का वेदान्त-साधन, इस्लाम धर्म और जन्म भूमि दर्शन, श्रीरामकृष्ण की तीर्थ यात्रा, हृदयराम का वृत्तान्त, मथुर की मृत्यु और षोडशी पूजा, साधक भाव सम्बन्धी कुछ और बातें, श्रीराम कृष्ण का गुरुभाव, असाधारण गुणोत्कर्ष, श्रीरामकृष्ण की शिष्य-परीक्षा, श्रीरामकृष्ण का शिष्य-प्रेम, श्रीरामकृष्ण की शिक्षण-पद्धति, श्रीरामकृष्ण की विषय प्रतिपादन करने की शैली, श्रीरामकृष्ण और श्री केशवचन्द्र सेन, ब्राह्मण समाज और श्रीरामकृष्ण, मणिमोहन मल्लिक के घर में ब्रह्मोत्सव, श्रीरामकृष्ण के पास भक्तमण्डली का आगमन, नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) का परिचय, श्रीरामकृष्ण और नरेन्द्रनाथ, पानीहाटी का महोत्सव, कलकत्ते में श्रीरामकृष्ण का आगमन, श्रीरामकृष्ण का श्यामपुकुर में निवास, काशीपुर में अन्तिम दिन और महा समाधि आदि विषय है।

पुस्तक की भाषा सरल, सुबोध, जीवन चरितोपम है। श्रीरामकृष्ण का जीवन, उनकी लीला यहाँ के साधारण जनों के अस्थिमज्जागत भाव हैं, पढ़कर नयी स्फूर्ति पाते हैं, जिनसे वास्तव में मनुष्य ही नयी शक्ति से भर जाता है। ऐसी पुस्तक का पुस्तकालय, प्रति वाचनालय, प्रति संस्था और प्रति घर रहना आवश्यक है। रामकृष्ण नवीन धर्मसमूह के जीवित सिद्धान्त हैं। मनुष्य उनकी लीला पढ़कर, उनमें रहकर, स्वयं धर्म समन्वय बनता है। भारत को ऐसे महापुरुष की जैसी आवश्यकता थी, भारतीयों को उनके चरित-पाठ की, साधना की सिद्धि की वैसी ही आवश्यकता है।

माधुरी

जनवरी, 1940

 

 

प्राच्य और पाश्चात्य

लेखक-स्वामी विवेकानन्द, प्रकाशक-पूर्वोक्त, छपाई-सफाई अच्छी। (मूल्य ॥)

अनुवादक का नाम नहीं। प्रकाशक ने निवेदन में लिखा है-'यह मूल बंगला में लिखी हुई पुस्तक का अकृत्रिम और अक्षरश: अनुवाद है। हिन्दू राष्ट्र-निर्माण के परिपोषक विचारों का विवेकपूर्ण विवेचन इस पुस्तक में अत्यन्त सुलभ और स्फूर्तिदायिनी भाषा में किया है।'

इस पुस्तक में वर्तमान भारत का बाहरी रूप, पाश्चात्य की दृष्टि में प्राच्य, प्राच्य की दृष्टि में पाश्चात्य, प्रत्येक जाति के विभिन्न जीवनोद्देश्य, प्राच्य का उद्देश्य, मुक्ति और पाश्चात्य का धर्म, प्राच्य जाति ईशू और पाश्चात्य जाति कृष्ण के उपदेश का अनुसरण करते हैं, स्वधर्म की रक्षा ही जातीय कल्याण का उपाय है, फ्रांसीसी, अंग्रेज और हिन्दुओं के दृष्टान्त से उक्त तत्त्व का समर्थन, धर्म के अलावे और किसी दूसरी चीज से भारत के जातीय जीवन की प्रतिष्ठा असम्भव है, शक्तिमान पुरुष ही सब समाजों का परिचालक है, पाश्चात्य देशों में राजनीति के नाम पर दिन में लूट, मनुष्य बनिये, पाश्चात्य जाति के गुणों को साँचे में ढालकर लेना होगा, वर्णभेद का कारण, आर्य जाति, आर्य जाति का गठन और वर्ण, हिन्दू और आर्य, प्राच्य और पाश्चात्य की साधारण भिन्नताएँ, पाश्चात्य देशवासियों का धर्म शक्ति पूजा है, फ्रांस-पेरिस, भारतवर्षीय सभी सम्प्रदायों की मूल-भित्ति स्वरूप परिणामवाद, पाश्चात्य मत से समाज का क्रमविकास, कृष्ण जीवन, विवाह का आदि तत्त्व, कृषिजीवी देवता और मृगयाजीवी असुरों का सम्बन्ध आदि विषयों पर स्वामी विवेकानन्द की सच्ची विचारधारा अँधेरे में किरण का काम करती है। मालूम देने लगता है, वे जो कुछ कह रहे हैं, इससे बेहतरीन तरीका हमारी भलाई का दूसरा नहीं हो सकता। जहाँ हिन्दू शब्द से जड़ जाति का बोध होता है, वहाँ सुसंस्कृत सभी भारतवासियों का अधिकार समझना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ऐसे मनुष्य नहीं थे, जो एक को ठगकर दूसरे को देते। उन्होंने आदमियत को निगाह में रखते हुए भारतीयता का तत्त्व समझाया है। यों मनुष्य मात्र को वे ऊँचे ज्ञान का अधिकारी समझते हैं- हस्ती किसी की भी नहीं मिटाना चाहते। यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्द जी की बहुत ही प्रसिद्ध पुस्तकों में से है। अनुवाद में शुरू में संस्कृतबहुल शब्द काफी आये हैं, फिर भी अंश यह थोड़ा है। बाद का अनुवाद समझते हुए साधारण पठित जनों को भी इससे दिक्कत नहीं होगी। स्वामीजी के लिखने का ढंग कितना रोचक होता है, लिखना अनावश्यक है।

माधुरी

जनवरी, 1940

 

 

श्री भुवनेश्वर की तारीफ

गत मास की 'माधुरी' (पूर्णांक १७२) में श्री 'सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला" शीर्षक एक लेख श्री भुवनेश्वर का लिखा हुआ निकला है। जब यह लेख छपने को दिया जानेवाला था, उसी अवसर पर मैं 'माधुरी' के कुछ पुराने अंक-जिनमें मेरे लेख छपे थे-खरीदने के लिए 'माधुरी' कार्यालय गया हुआ था; मेरी अपनी प्रतियाँ खो गयी थीं। कुछ देर बाद 'माधुरी' के। सम्पादक आदरणीय पं. रूपनारायणजी पाण्डेय आये। यह मेरा उनका चार महीने बाद साक्षात्कार था। मैं काशी से कुछ दिनों के लिए लखनऊ गया था। प्रणाम नमस्कार के पश्चात् मुस्कराते हुए पाण्डेयजी ने कहा 'दो लेख आये हैं; एक तुम पर, एक पन्त पर; नये ढंग के हैं; भुवनेश्वर प्रसाद को तो तुम जानते होगे, उनके लिखे हुए।' मैंने सुन लिया। भुवनेश्वर का स्वरूप-निर्णय इसलिए नहीं किया कि इससे उनके हित में अहित होने की सम्भावना थी। मैं वहाँ से, अमीनाबाद, अपने डेरे पर आया। दूसरे या तीसरे दिन स्कालर कवि-मित्र रामविलास शर्मा के यहाँ जाकर 'कला की रूपरेखा' लिखी जो 'माधुरी' के इसी आलोचित अंक में प्रकाशित है। जल्दी के कारण उसे शर्माजी को देकर 'माधुरी' कार्यालय भेज देने के लिए कहा। साथ ही एक चिट्ठी पाण्डेयजी को लिखी। लिखते समय भुवनेश्वर की याद आयी। मैंने पाण्डेयजी को विस्तार के साथ लिख दिया कि मुझे विश्वास नहीं, श्री भुवनेश्वर मेरे सम्बन्ध में सही सही लिखेंगे। (अगर वह व्यक्तिगत है, आलोचना नहीं) और भुवनेश्वर प्रसाद की मेरी तब तक कोई बातचीत नहीं हो सकती, जब तक वे अट्ठारह साल की उम्र में एम. ए. पास करके आई. सी. एस. की परीक्षा में चुने जाने की पूरी योग्यता रखते हुए भी उसे छोड़कर, हिन्दी की सेवा के विचार से आये हुए नहीं सिद्ध होते। मैंने यह भी लिख दिया कि मैं आपकी स्वाधीन वृत्ति पर दबाव नहीं छोड़ता, आप चाहें तो छाप सकते हैं; परन्तु इसका भविष्य आप ही के हाथों (मेरा उत्तर 'माधुरी' में छपने पर) श्री भुवनेश्वर प्रसाद के लिए अत्यन्त अहितकर प्रमाणित होगा; वे साहित्य में दागी होकर शायद ही फिर उभर सकें। पर पाण्डेयजी ने सम्पादकीय जिम्मेदारी की ओर ही देखा।

अस्तु ! लेख छपने पर मैंने उसे पढ़ा। मुझे सप्रमाण या आलोचनात्मक तो उसमें कुछ न दीख पड़ा, हाँ यह देखा कि भुवनेश्वर ने मेरे सम्बन्ध में एक साथ कई सम्मतियाँ दी हैं, मैं ही नहीं, रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द और सुमित्रानन्दन भी एक ही साथ घसीट लिये गये हैं।

मैं जानना चाहता हूँ, मेरी बातचीत जिस ढंग से शुरू की गयी है, क्या उस ढंग से मेरी भुवनेश्वर जैसे मनुष्य से बातचीत हो सकती है ? ऐसी बातचीत के लिए कोई पूर्व परिचय, भूमिका आदि बिलकुल जरूरी नहीं?

सच यह है कि वह बातचीत सब गलत है। बातचीत हुई, पर नासमझी के कारण उसका रुख (direction) पूरा-पूरा बदल दिया गया है, जैसे, उनके बर्न्स का नाम लेने पर मैंने कहा-"कौन, वह लोहा लक्कड़वाला ?" (मेरे मजाक में कलकत्ते की लोहेवाली बर्न एण्ड कम्पनी की ओर इशाराथा)। इस पर उन्होंने कैसी मुखाकृति बनायी यह सोचने पर ही मालूम होगा। इस तरह और-और बातें हैं।

उनके स्वरूप का पता उनके परिचय के पन्द्रह रोज के अन्दर-अन्दर उन्हीं के एक सहपाठी से मिला, जो बराबर अच्छी तरह पास करता हुआ भी उस समय तक एम. ए. न हो सका था और इन्हें अपनी दृष्टि की आँच से सत्य का परिचय दे चुका था। वे सब अनेकानेक बातें, जिनके जानकार लखनऊ के अच्छे, प्रतिष्ठित और विद्वान मनुष्य हैं, मैं इसलिए छोड़ रहा हूँ कि श्री भुवनेश्वर प्रसाद के परिचय से और भी अनेक सज्जन अभिज्ञता प्राप्त कर चुके हैं और उन्हीं में से दो के उल्लेख यहाँ देता हूँ। ये दोनों उल्लेख इन सज्जनों के अपने हाथ के लिखे हुए हैं। प्रथम हैं हिन्दी के सुपरिचित कहानी लेखक पं. वाचस्पतिजी पाठक और दूसरे, प्रयाग विश्वविद्यालय के एम. ए. पं. बलभद्रप्रसादजी मिश्र, जो इस समय दैनिक 'भारत' में सह-सम्पादक के रूप में रहते हुए उक्त विश्वविद्यालय से डी. फिल्. की तैयारी कर रहे हैं। इतने से शायद भुवनेश्वरप्रसादजी के परिचय में प्रकाश की कमी न रहेगी-

'श्री भुवनेश्वर प्रसाद अपनी एक पुस्तक लीडर प्रेस से छपाना चाहते थे। उन दिनों मेरा उनका साक्षात् परिचय भी हुआ था। परिचय कराने वाले मेरे मान्य अधिकारी ने बतलाया कि यह बी. ए. (अथवा एम. ए., ठीक स्मरण नहीं) हैं। इनको अत्यन्त होनहार समझकर इनके पिता चाहते थे कि यह पाई. सी. एस. में बैठे। किन्तु सरकारी नौकरी करते हुए हिन्दी की उचित सेवा नहीं हो सकती, अतः अपने सबसे उदास होकर अब यह इधर ही आ गये हैं। '-ये बातें इनसे सुनकर ही उन्होंने मुझे बतलायी थीं।

ऐसी बातें एक साथ सुनकर मुझे कुछ भी आश्चर्य न हुआ। मैं ऐसे कुछ लोगों को जानता हूँ, जो अपनी कल्पना से अपने एक दूसरे रूप का निर्माण करते हैं, और उसी निर्मित व्यक्ति का परिचय दूसरों को उनसे पहली भेट में प्राप्त होता है। कुछ बहुत दिनों तक उन्हें इसी रूप में पहचानते हैं, कुछ शीघ्रता से उनकी कल्पना की दीवार तोड़कर उन्हें झाँक लेते हैं। मैंने मन-ही-मन कुछ सोचा और एक दृष्टि बगल में बैठे हुए नवयुवक पर डाली। उसने पाजामा और शेरवानी पहन रखी थी। उसके रूखे बड़े बाल अस्तव्यस्त हो रहे थे। नीचे गालों पर कुछ चकत्ते से भी दीख रहे थे। इन सब रूप-रेखानों से मुझे साफ झलक रहा था कि यह किसी दूसरी दुनिया में भटक रहा है। यह स्पष्ट था कि अपने से बहत पहले से अनुभव प्राप्त करनेवालों को मूर्ख समझने के कारण यह अपनी ही चाल चलनी चाहता है, मैंने उस समय उससे कोई बात नहीं की, और उसकी वह पुस्तक, जो मुझे देखने को दी गयी थी, लेकर उठ आया।

फिर तो यह नवयुवक मेरे अधिक परिचय में आता गया। और-और बातों को छोड़कर यदि साहित्य के सम्बन्ध में उसकी बात कहूँ तो वहाँ भी सीमा नहीं है। उसकी प्रवृत्तियाँ बहुत असंस्कृत जान पड़ती थीं। जैसा कि अपने 'माधुरी' वाले लेख में उसने स्वीकार किया है कि 'बर्न्स' का नाम उसने केवल इसलिए लिया था कि उसे विश्वास था कि निरालाजी ने यह नाम न सुना होगा, ऐसा ही उसके परिचितों ने अनुभव किया है कि विदेशी लेखकों के नाम के बल पर अपने दम्भपूर्ण महाज्ञान की विज्ञप्ति उसकी साहित्यिक साधना है। भारतीय संस्कृति का, हिन्दी के उद्गम काल से आज तक की साहित्य-सृष्टि का और इस भाषा के मूल से अभिधा और व्यंजना का जिसे ज्ञान न हो; मेरी समझ में वह केवल विदेशी लेखकों के नाम रटकर कुछ कर सकेगा, कोरी विडम्बना है। अपने कुछ दिनों के परिचय में उस युवक ने मेरी ऐसी धारणा नहीं बनने दी, जिससे मैं समझता कि साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर उसने मनन कर, उनके भीतर पैठकर कुछ पाया है। उसने जो कुछ पाया है, उसे वह बहुत जल्द उगल देता है, देखनेवाले देखते हैं, उसमें कुछ नाम हैं, जिसे लेकर हिन्दी का उद्धार नहीं किया जा सकता।

किन्तु मुझे 'माधुरी' वाले लेख को देखकर उसकी अनिश्चितता का एक और तरह का प्रमाण मिला। जिन दिनों वह यहाँ रह रहा था, उन दिनों की बात है। एक दिन उसने कहा-'हिन्दी की कविता में कुछ नहीं है। हाँ, सोने के कुछ कण निराला की कविता में हैं।' मैंने पूछा-'और लोग ?' तो मि. ने मुँह बनाकर कहा-'और किसी के पास कुछ नहीं। हिन्दी में बहुत गर्म हो रहे पन्तजी ने केवल टीन चमकायी है।' मैं सुनकर चुप हो रहा। कारण, मैं अपना मत रखता हूँ और यह कुछ समझकर उत्तर दे रहा है, ऐसा मेरा विश्वास नहीं था। इसीलिए आगे चलकर इस बातचीत के कुछ देर बाद मैंने 'निराला' जी के एक छन्द को उपस्थित करके कहा-'महाशयजी, आप इसे समझा देंगे?' महाशयजी ने फिर चेष्टा तो बहुत की, पर वह वैसी ही थी, जैसा एक साहित्य समालोचक पन्तजी की एक वायु पर लिखी कविता के अर्थ में अन्त और अनन्त का समन्वय प्रेयसी को सम्बोधित कर करते थे। मैं चुप रह गया और अपनी समझ की सचाई देखकर मैंने अपने को बधाई दी। मैं इस प्रसंग को यहीं समाप्त कर दूँगा क्योंकि और जो बहुत-सी बातें हैं, उनकी चर्चा अत्यन्त गहित है। पर मुझे इससे अवश्य प्राश्चर्य हुआ कि 'निराला' जी के सम्बन्ध में इस लेखक ने जिस स्वर का उपयोग किया है, वह हिन्दी के भीतर से उनको बहुत ही अपमानित करनेवाला है। फिर भी योग्य सम्पादक ने कुछ भी ख्याल नहीं किया। साथ ही इस लेख की क्या उपयोगिता है, इससे साहित्य को क्या मिला है, ये प्रश्न अलग हैं। हाँ, एक नौसिखिये लेखक को प्राचार्य के टोन में बोलते हुए देखने का लाभ इस लेख द्वारा अवश्य प्राप्त होता है।

वाचस्पति पाठक

'आप भुवनेश्वर प्रसाद को जानते हैं ?'

नवम्बर मास की 'माधुरी' मेरे सामने रखते हुए 'निराला' जी ने अपनी बैसवारी बोली में मुझसे पूछा।

'भुवनेश्वर नाम के महाशय से परिचय पाने का सौभाग्य तो मुझे है।' मैंने उत्तर दिया।

'देखिए उनका एक लेख 'माधुरी' के इस अंक में छपा है।'

'माधुरी' खोलकर एक छोटे-से लेख को कुछ मिनटों में पढ़कर मैंने पत्रिका को एक ओर रख दिया।

'क्यों कैसा है ?' निरालाजी ने फिर प्रश्न किया। 'जान पड़ता है, रूपनारायणजी का भुवनेश्वरजी से सिर्फ एक ही बार का परिचय है, अन्यथा उनके जैसा जिम्मेदार पत्रकार ऐसे लेख को अपनी पत्रिका में शायद ही स्थान देता। गलत या सही, कम-से-कम मेरी तो ऐसी ही धारणा हुई है कि भुवनेश्वरजी की जिन व्यक्तियों से एक से अधिक बार बातचीत हुई है, वे उनमें गहराई और जिम्मेदारी का सर्वथा अभाव पाते हैं। अतः जब इस लेख में मुख्य आधार व्यक्तिगत बातचीत ही रखा गया है तो भुवनेश्वरजी के एक से अधिक बार सम्पर्क में आनेवाला व्यक्ति तुरन्त ही यह समझ लेगा कि उन कथनों के विश्वसनीय होने की सम्भावना कम है। और जब लेख के मूल आधार की प्रामाणिकता में ही सम्पादक को सन्देह हो तब वह उसे कैसे अपनी पत्रिका में स्थान दे सकता है।' इन शब्दों में मैंने उस लेख के सम्बन्ध में अपने विचार निरालाजी को बतलाये।

इस पर निरालाजी ने मुझसे फिर प्रश्न किया, 'क्या आप इस लेख के लेखक-सम्बन्धी अपने विचार मुझे लिखकर देने की कृपा करेंगे ?'

'मुझे इसमें कोई एतराज नहीं है।' मैंने कहा। निरालाजी की इस इच्छा के अनुसार मैं भुवनेश्वरजी के संस्मरण अत्यन्त संक्षेप में लिख रहा हूँ। पूरे विवरण से तो एक नये उन्नीसवें पुराण के निर्माण की आशंका है।

पहली भेंट के समय भुवनेश्वरजी ने अपने सम्बन्ध में मुझे जो बातें प्रत्यक्ष अथवा संकेत रूप में बतलायीं, वे यह थी कि वे किसी विश्व विद्यालय से एम. ए. की डिग्री प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने कई भाषाओं का, विशेषकर अंग्रेजी साहित्य का अत्यन्त गम्भीर अध्ययन किया है। पं. सुमित्रानन्दन पन्त के अनुरोध से उन्होंने उन (पन्त) की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करना प्रारम्भ किया था, परन्तु काम को उठाने के बाद उन्हें यह दिखायी पड़ा कि यह व्यर्थ का परिश्रम होगा; क्योंकि पन्तजी की कविता अत्यन्त साधारण है। पन्त ने सिर्फ टीन पर पालिश की है। अतः पन्त के अनुवाद का काम उन्होंने छोड़ दिया। वे आस्कर वाइल्ड को संसार का सर्वश्रेष्ठ कलाकार मानते हैं और उनके एक उपन्यास का अनुवाद भी वे कर चुके हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। पं. जवाहरलाल नेहरू उनकी प्रतिभा और योग्यता के कायल हैं। नेहरूजी ने उनसे अपनी पुस्तक 'Glimpses of World History' पर सम्मति माँगी थी और उनके यह उत्तर देने पर कि वह H. G. Wells की इसी विषय की पुस्तक का संक्षिप्त रूपान्तर है, नेहरूजी हतप्रभ हुए और दूसरे विषय पर बातचीत करने लगे। लीडर प्रेस के जनरल मैनेजर ने उन्हें 'लीडर' के साप्ताहिक संस्करण के सम्पादन में सहयोग देने के लिए बुलाया है परन्तु हिन्दी-सेवा की अधिक रुचि रखने के कारण उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।

इन सब बातों को सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसा जान पड़ा कि यदि ये कथन सत्य हैं तो हमारे साहित्य के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे असाधारण प्रौर चमत्कारी युवक को अभी तक उचित प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हई। परन्तु भुवनेश्वरजी के अन्तिम कथन अर्थात लीडर प्रेस की भुवनेश्वरजी का सहयोग पाने की उत्सुकता से मन में कुछ सन्देह हुआ। उस समय लीडर प्रेस में नौकरी करते मुझे दो वर्ष हो चुके थे और प्रेस के आहाते में ही मेरा मकान होने के कारण लीडर प्रेस के विधाताओं के घनिष्ठ सम्पर्क में भी काफी आ चुका था। यह बात मेरे अनुभव के प्रतिकूल ठहरती थी कि लीडरवाले किसी प्रसिद्धिहीन व्यक्ति का सहयोग पाने के लिए इतनी उत्सुकता दिखलावें। लगभग एक सप्ताह के के अन्दर ही भुवनेश्वरजी से कई बार भेंट हुई। कुछ उनकी ही बातों से तथा कुछ ऐसे मित्रों के साथ चर्चा चलाने पर जो भुवनेश्वरजी से काफी समय से और अच्छी तरह से परिचित थे, मुझे इसी अवधि में ही यह निश्चय हो गया कि वे कितनी गहराई के व्यक्ति हैं। मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि आत्मविज्ञप्ति तथा अंग्रेजी और हिन्दी के प्रमुख साहित्यिकों के बारे में ऊटपटांग बातें करने का उन्हें मर्ज है। उन्होंने अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी आदि साहित्यिकों के ग्रन्थों तथा साहित्यों के नाम याद कर लिये हैं और उसी आधार पर वे उन सब के असाधारण पाण्डित्य का दावा करते हैं। इसके बाद २ मास में कम-से-कम १० बार भुवनेश्वरजी से भेंट हुई होगी। उनकी बातचीत का ढंग सदैव वैसा ही रहता था। काम से थककर फुर्सत के समय मखौल बाजी करने का वे बहुत अच्छा साधन जान पड़े, परन्तु यदि काम के बीच में वे अपने हवाई घोड़े दौड़ाने लगते थे तो उनको टालने की इच्छा भी होती थी। हिन्दी के प्रमुख साहित्यिकों के निज जीवन आदि के बारे में उनके कथन कभी-कभी अत्यन्त अपमानजनक और कलंकपूर्ण जान पड़ते थे, जिनके उल्लेख का साहस मैं नहीं कर सकता। कुल मिलाकर भुवनेश्वर जी के सम्बन्ध में मेरे मन में यही धारणा बँधी है कि वे काठ की हाँडी हैं, जो सत्य की आँच के सामने ठहर नहीं सकती।

-बलभद्रप्रसाद मिश्र

भुवनेश्वर प्रसादजी का उत्तर

We should be slower to think that the man at his worse is the real man, and certain that the better we are ourselves the less likely is he to be at his worst in our company.

- I. Barrie.

'पाण्डेयजी के सौजन्य से अपने नवम्बर की 'माधुरी' में प्रकाशित निराला पर लिखे लेख का 'उत्तर' पढ़ा, मय दो शहादतों के। इसे मैं किस रूप में स्वीकार करूँ, मैं नहीं जानता। अगर यह निरालाजी का Vindication है तो कुरुचिपूर्ण, अगर revenge तो बहुत सख्त। Egotism निरालाजी का स्वभाव-व्यसन है। उनके निकट उनका अपनापन इतना जरूरी और सार्वजनिक है कि किसी भी प्रसंग में उसे नहीं भूलते। स्कालर कवि मित्र रामविलास शर्मा के यहाँ बैठकर लेख लिखना, एक नंगे को अपना चादर दे देना। जो निरालाजी को जरा भी ईमानदारी से जानते हैं, वह यह भी जानते हैं कि अपनी कला और कविता के बारे में बातें करते वक्त उनका रूप इससे भी भिन्न होता है। मैं फिर कहता हूँ कि इस प्रसंग में कमोबेश मैंने उनके शब्द ही दुहराये हैं और कलकत्ते की बर्न्सवाली बात उस वक्त मुतलक नहीं हुई थी और न उसे सुनकर मेरा प्रदर्शनीय मुख दर्शनीय ही हो गया था। रही एम. ए. और आई. सी. एस. का फरेब, मैं अपराधी प्लीड करता हूँ, कर चुका हूँ कई बार। परिस्थितियाँ बलवती मनुष्य से इससे भी जघन्य काम करवाती हैं, मुझसे करवा चुकी हैं। इन्हें एक संग्राम करते हुए एक कलाकार पर दाग लगाने के लिए प्रयोग करना हलकापन है। खैर ! अगर इस एक बात से जन्म-भर के लिए मैं Taboo किया जा सकता हूँ तो मेरी बला इसकी परवाह करे। लेकिन नहीं, यह शायद मेरी आदत है, मेरा सब कुछ एक छल है, धोखा है, मक्कारी है। इसके दो शाहिद हैं-उनकी असली Bonafides तो यह है कि वह निराला के मित्र, प्रशंसक हैं।

श्री वाचस्पति पाठक और श्री बलभद्रप्रसाद मिश्र भावी डी. फिल्. से मैं ऐसा ही वैसा परिचित हूँ। हाँ, बातचीत लीडर में होने के कारण रोज होती थी, मगर सदैव असुखकर। बलभद्रप्रसादजी के दिखाने के दाँत शायद अधिक सुन्दर थे। उन दोनों ने मेरे ऊपर चार्जशीट लगाये हैं, मैं उनका सिलसिलेवार उत्तर दूँगा। पाठकजी से मेरा परिचय कराते हुए उन सज्जन ने केवल यह कहा था-यह मेरे मित्र हैं भुवनेश्वरप्रसाद। इनकी यह किताब हम प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे मिलना चाहते हैं। 'पुस्तक उन्हें मैंने दी थी। उसका प्रकाशन बिना पाठकजी के तै हो चुका था। एम. ए., बी. ए., आई. सी. एस. की कोई बात उस वक्त नहीं हुई थी, ऐसा मेरा विश्वास है और यह भी कि वह सज्जन इसे किसी अंश में Bear out करेंगे।

निराला की कविता पर मेरी सम्मति बिल्कुल Mutilate की गयी है। मेरे शब्द 'मैंने निरालाजी का 'परिमल' श्रम से पढ़ा और जहाँ तक भाषा का सवाल है, सिर्फ भाषा का, निराला के यहाँ पिघला हुमा सोना है, पन्तजी ने टीन झलझला दी है।' उनकी कोई कविता मेरे सामने अर्थ के लिए नहीं रक्खी गयी थी। पाठकजी ने कहा था, 'यदि आप कृपाकर 'तुलसीदास' के अर्थ मुझे समझा दें तो अच्छा हो' पर बात यहीं खतम हो गयी।

उनके लेख के टोन पर मुझे कुछ नहीं कहना है, वह भद्रपुरुष हैं और मुझसे अधिक Safe हैं। मैं नौसिखिया हूँ या आचार्य, उनकी स्थिति पर बहुत थोड़ा असर डालेगा।

मिश्रजी का वक्तव्य लम्बा है और संगीन। पहले उनका बचाव है सस्ती कहानी के ढंग पर लिखा हुआ, बाद में एक चार्जशीट, जिसमें बहुत सी बातें किसी-न-किसी तरह जोड़ी गयी हैं।

पन्तजी के अनुवाद की बात सही है। मैंने पन्तजी के ज्ञान में उनकी २० कविताओं का अनुवाद किया और बाद में उसे लाहासिल समझकर छोड़ दिया, शायद मैं सफल भी हुआ था।

दूसरी भारत की बात। मैंने कहा था कि मेरा भारत के मैनेजर से 'परिचय हुआ था, जब वह अर्द्धसाप्ताहिक से दैनिक हो रहा था। यदि मैं इलाहाबाद में होता तो शायद आपका सहयोगी होता। यह सब बातें ध्यान रहे, एक Holiday मूड की हुई हैं। मैं उनसे कभी उनके काम के वक्त नहीं मिला। खैर।

पण्डित जवाहरलाल की बात यों है कि वाकई मैंने कहा था, किन्तु प्रमचन्दजी से, जब वह उक्त पुस्तक का अनुवाद कर रहे थे या उसे सुधार रहे थे। यही बात मैंने मिश्रजी से कही। मिश्रजी से मेरी बातें Give and take के मूड में हुई हैं। जब्तशुदा 'चाँद' का मारवाड़ी अंक तकिये के नीचे रखनेवाले मनुष्य से एक जवान आदमी की कुछ गहित बातें होना अजय नहीं। वह मेरे बारे में क्या राय रखते हैं, यह मेरे लिए कोई भी मूल्य नहीं रखता। वह उन्हें इस भद्दे तरीके से प्रकाशित करते हैं, मुझे बुरा मालूम होता है, पर गमोगुस्सा मुझे नहीं है। निरालाजी ने लेख छपने से पहले ही मुझे जो पा रहा है उसका Idea दे दिया था। मैं इसके लिए तैयार था और अब अपनी ओर से इसे समाप्त ही करता हूँ। अगर मैं वाकई मर गया हूँ तो गालिब का एक शेर निरालाजी, मिश्रजी, पाठक जी और पसेपर्दा और सज्जन सुन लें।

गर नहीं है मेरे मरने से तसल्ली न सही।

इम्तहाँ और भी बाकी हों तो यह भी न सही।

-भुवनेश्वर प्रसाद

माधुरी

जनवरी, 1937



* पाठकों से निवेदन है कि वे इसे कविवर पर दोषारोप न समझें। यहाँ केवल उच्चारण पर विचार किया गया है--लेखक।

 


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हिंदी समय में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचनाएँ